श्रद्धा क्या है?


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श्रद्धालु का कहना यह है कि हाथ में कितना ही हो, वह उसके लिए गंवाने की तैयारी रखनी चाहिए जो हाथ के अभी बाहर है, तो विकास होता है

श्रद्धा है एक प्रकार का पागलपन; लेकिन सिर्फ धन्यभागियों को ही ऐसा पागलपन मिलता है। अभागे हैं, वे जो श्रद्धा के पागलपन से अपरिचित हैं। श्रद्धा का पागलपन जीवन की सबसे बड़ी संपदा है, क्योंकि उसी के आधार पर, जो नहीं दिखाई पड़ता; उसकी खोज शुरू होती है।

जिसके जीवन में श्रद्धा का सूत्र नहीं है, वह इंद्रियों पर अटका रह जाता है; उसका यथार्थ-आंख से जितना दिखाई पड़े, हाथ से जितना छूने में आ जाए, कान से जितना सुनाई पड़े-इसी पर अटक जाता है। और इंद्रियों की सीमा है। इंद्रियां बड़ी छोटी हैं; अस्तित्व विराट है। इंद्रियां ऐसी हैं जैसे चाय की चम्मच; और अस्तित्व ऐसे है जैसे महासागर। चाय की चम्मच से जो सागर को नापने चलता है, कब नाप पाएगा! कैसे नाप पाएगा! चाय के चम्मच में सागर का कोई दर्शन नहीं हो सकता; यद्यपि चाय की चम्मच में जो भर जाता है वह भी सागर है। पर बड़ा गुण-भेद हो गया। कहां सागर के तूफान! कहां सागर की मौज! कहां सागर की मस्ती! कहां सागर की उतुंग लहरें! कहां सागर की गहराइयां-जिनमें हिमालय जैसा पहाड़ खो जाए तो पता भी न चले कि कहां गया! उस चाय की चम्मच में न तो गहराई होगी सागर की, न सागर की तरंगों की मौज-मस्ती होगी, न नृत्य होगा, न तूफान-आंधी होंगे। हालांकि चम्मच में जो भर गया है वह सागर का ही एक छोटा सा हिस्सा है। लेकिन गुणात्मक परिवर्तन भी हो गया। परिमाण तो कम हुआ ही हुआ, गुण का भी अंतर हो गया। सागर में डूब सकते हो; चाय की चम्मच में कैसे डूबोगे!

ऐसी ही इंद्रियों की स्थिति है। इनसे जो हमें दिखाई पड़ता है, वह विराट का ही हिस्सा है, पर अति क्षुद्र। इतना क्षुद्र कि परिमाण का भेद तो पड़ता ही है, गुण का भेद भी पड़ जाता है। अदृश्य न मिलेगा तो सागर न मिलेगा।

मगर अदृश्य को खोजने के लिए जो पहला सूत्र है, वह है श्रद्धा। श्रद्धा का मतलब होता है: जो नहीं देखा, उस पर भी भरोसा; जो नहीं सुना, उस पर भी भरोसा। श्रद्धा का अर्थ होता है: अनजान में उतरने का साहस।

इसलिए मैं कहता हूं: श्रद्धा एक पागलपन है। जो तथाकथित समझदार हैं, वे ऐसी झंझट में नहीं पड़ते। वे जाने-माने की सीमा में रहते हैं। जहां तक जाना-माना है वहीं तक जाते हैं, उससे आगे नहीं जाते। उससे आगे विराट का जंगल है; भटक जाने का डर है। भटक जाने की जोखिम उठाने का नाम श्रद्धा है।

जोखिम तो है। कोई गारंटी हो नहीं सकती। कौन देगा गारंटी? कोई इंश्योरेंस भी नहीं हो सकता। अज्ञात की तरफ जो चला है उसने एक जोखिम तो ली है। हो सकता है खो जाए। हो सकता है भटक जाए। हो सकता है लौटने की संभावना न रहे। क्योंकि विराट से संबंध जोड़ना खतरनाक तो है ही। जब नदी सागर से संबंध जोड़ती है तो खतरा तो लेती ही है। खतरा यही है कि खो जाएगी। और सौभाग्य यह है कि खोकर ही नदी सागर हो जाती है।

इसलिए मैं कहता हूं: श्रद्धा एक तरह का पागलपन है। और इसलिए जो थोड़ा-बहुत श्रद्धा से पागल हैं, उनको ही मैं स्वस्थ कहता हूं, क्योंकि उनके जीवन में झरोखा खुला है। वे आकाश को बाहर छोड़ नहीं दिए हैं; आकाश उनके भीतर आता-जाता है। उनके पंख अभी भी फड़फड़ाते हैं। वे अभी भी उड़ने को तत्पर हैं। वे अभी भी दूर चांद-तारों से मिलने की तैयारी कर रहे हैं। छोटी है क्षमता; छोटी है शक्ति-लेकिन आकांक्षा विराट की है। यही श्रद्धा का अर्थ है।

जब एक किसान बीज बोता है तो श्रद्धा है-क्योंकि कौन जाने बीज पनपेंगे न पनपेंगे! सभी बीज पनपते तो नहीं। सभी बीज सदा नहीं पनपते। फिर कौन जाने वर्षा आएगी कि नहीं आएगी, मेघ घिरेंगे कि नहीं घिरेंगे। सदा मेघ घिरते भी नहीं। सूखा भी पड़ता है। और कौन जाने, जैसा कल तक हुआ है वैसा आगे भी कल होगा कि नहीं! आज तक सूरज उगा है, सच; लेकिन कल उगे न उगे! कल के बाबत क्या कहोगे! कोई निश्चय से उत्तर नहीं दे सकता।

एक दिन तो ऐसा जरूर आएगा जब सूरज नहीं उगेगा। वैज्ञानिक कहते हैं कि कभी न कभी वह दिन आएगा जब सूरज का ईंधन चुक जाएगा। आखिर तेल का छोटा सा दीया जलाते हो, वह भी तो उतनी ही देर तक जलता है जितनी देर तक तेल है। सूरज का भी तेल एक दिन चुक जाएगा। उसकी क्षमता भी रोज कम होती जा रही है, प्रतिदिन कम होती जा रही है; क्योंकि जितनी रोशनी देता जाता है, उतना कम होता जाता है। एक न एक दिन ठंडा हो जाएगा। हो सकता है वह दिन कल ही हो। कल का क्या भरोसा-सूरज निकलेगा कि नहीं! बादल घिरेंगे कि नहीं। और क्या भरोसा कि बीज अब तक तो धोखा नहीं दिए, कल भी अपनी पुरानी प्रतिष्ठा कायम रखेंगे कि नहीं रखेंगे।! बीज सड़ भी सकते हैं।

सब डर है; फिर भी किसान बीज बोता है। हाथ में जो है उसको गंवाता है-उसकी आशा में, जो अभी हाथ में नहीं है। हालांकि बुद्धिमानों का तर्क यह है कि हाथ की आधी रोटी, आकांक्षा और आशा की पूरी रोटी से बेहतर है। यह बुद्धिमानों का कहना है। श्रद्धालु का कहना यह है कि हाथ में कितना ही हो, वह उसके लिए गंवाने की तैयारी रखनी चाहिए जो हाथ के अभी बाहर है, तो विकास होता है।
बुद्धिमानों की बात मानी तो जड़ हो जाओगे। पागलों की सुनो। श्रद्धा का सूत्र जीवन में सारी संभावनाओं को अपने में लिए है। आमतौर से लोग सोचते हैं कि श्रद्वालु व्यक्ति कमजोर होता है। बिलकुल ही गलत बात है। श्रद्धालु ही शक्तिशाली है। अश्रद्धालु कमजोर होता है। वह अपनी कमजोरी को बड़े तर्क देता है। वह कहता है: जब तक मुझे प्रमाण न मिल जाएं, मैं मानूं कैसे? लेकिन श्रद्धालु कहता है: कुछ चीजें जीवन में ऐसी भी हैं कि मानो तो प्रमाण मिलते हैं; अगर मानो ही न तो प्रमाण मिलते ही नहीं।

जैसे कोई कहे कि प्रेम मैं तब करूंगा जब प्रेम का पहले मुझे प्रमाण मिल जाए कि होता है। कोई बच्चा यह कहे कि मैं प्रेम तभी करूंगा जब मुझे प्रेम का प्रमाण मिल जाए कि यह रहा प्रेम, ऐसा रहा प्रेम; जब मैं प्रेम का पूरा शास्त्र समझ लूं, सब तरफ से जांच-परख कर लूं, भूल-चूक की कोई संभावना न रहे-तब करूंगा प्रेम। तो फिर इस जगत में प्रेम विदा हो जाएगा। यह तो श्रद्धालु के कारण प्रेम चल रहा है। क्योंकि श्रद्धालु कहता है: कर लेंगे पहले, फिर जांच-परख हो लेगी; फिर जांच-परख पीछे हो लेगी।
श्रद्धा बड़ी दुस्साहस की बात है; कमजोर के बस की बात नहीं है। यह बलवान की बात है।

मैं पागिल हूँ, सितारों की बात करता हूँ।
खिजां जदां हूँ, बहारों की बात करता हूँ।

श्रद्धा ऐसा पागलपन है कि जब चारों तरफ मरुस्थल हों और कहीं हरियाली का नाम न दिखाई पड़ता हो, तब भी श्रद्धा भरोसा रखती है कि हरियाली है, फूल खिलते हैं। जब जल का कहीं कण भी न दिखाई पड़ता हो, तब भी श्रद्धा मानती है कि जल के झरने हैं, प्यास तृप्त होती है। जब चारों तरफ पतझड़ हो, तब भी श्रद्धा में वसंत ही होता है। श्रद्धा एक ही मौसम जानती है-वह वसंत। बाहर होता रहे पतझड़, पतझड़ के सारे प्रमाण मिलते रहें, लेकिन श्रद्धा वसंत को मानती है।
-ओशो

पद घुंघरू बांध
प्रवचन नं. 06 से संकलित
(पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. पर भी उपलब्ध है)

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