प्रेम में पाप और पुण्य क्या?


प्रेम और प्रार्थना में उतना ही फर्क है जितना अशुद्ध सोने और शुद्ध सोने में। मगर दोनों ही सोना हैं, यह मैं जोर देकर कहना चाहता हूं। इस पर मेरा बल है। यही आने वाले भविष्य के मनुष्य के धर्म की मूल भित्ति है...

प्रेम यदि पाप है तो फिर संसार में पुण्य कुछ होगा ही नहीं प्रेम पाप है तो पुण्य असंभव है। क्योंकि पुण्य का सार प्रेम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं।

लेकिन तुम्हारे प्रश्न को मैं समझा। तुम्हारे तथाकथित साधु-महात्मा यही कहते हैं कि प्रेम पाप है। और वे ऐसी व्यर्थ की बात कहते रहे हैं, लेकिन इन्होंने इतने दिनों से कही है, इतने लंबे अर्से से कही है कि तुम्हें उसकी व्यर्थता, उसका विरोधभास दिखाई नहीं पड़ता।

प्रेम को तो वे पाप कहते हैं और प्रार्थना को पुण्य कहते हैं। और तुमने कभी गौर से नहीं देखा कि अगर प्रेम पाप है, तो प्रार्थना भी पाप हो जाएगी। क्योंकि प्रार्थना प्रेम का ही परिशुद्ध रुप है। माना कि प्रेम में कुछ अशुद्धियां हैं, लेकिन पाप नहीं है। सोना अगर अशुद्ध हो तो भी लोहा नहीं है। सोना अशुद्ध हो तो भी सोना है। अशुद्ध होकर भी सोना सोना है। रही शुद्ध करने की बात, सो शुद्ध कर लेंगे। कूड़े-करकट को जला देंगे, सोने को आग से गुजार लेंगे; जो व्यर्थ है, असार है, जल जाएगा आग में; जो सार है, जो शुद्ध है, बच जाएगा।

प्रेम और प्रार्थना में उतना ही फर्क है जितना अशुद्ध सोने और शुद्ध सोने में। मगर दोनों ही सोना हैं, यह मैं जोर देकर कहना चाहता हूं। इस पर मेरा बल है। यही आने वाले भविष्य के मनुष्य के धर्म की मूल भित्ति है।

अतीत ने प्रार्थना और प्रेम को अलग-अलग तोड़ दिया था। और उसका दुष्परिणाम हुआ। उसका दुष्परिणाम यह हुआ कि प्रेम दूषित हो गया, कुलषित हो गया, निंदित हो गया। एक तरफ प्रेम को अपराध बना दिया हमने; तो जो प्रेम में थे, उनकी आत्मा का अपमान किया, उनके भीतर आत्मनिंदा पैदा कर दी। और इस जगत में इससे बड़ी कोई दुर्घटना नहीं है कि किसी व्यक्ति के भीतर आत्मनिंदा पैदा हो जाए। तो प्रेम के कारण हमने पापी पैदा कर दिया दुनिया में। प्रेम पाप है, तो जो भी प्रेम करते हैं, सब पापी हैं। और कौन है जो प्रेम नहीं करता? कोई पत्नी को करता है, कोई पति को, कोई बेटे को, कोई भाई को, कोई मित्र को। शिष्य भी तो गुरु को प्रेम करते हैं! गुरु भी तो शिष्यों को प्रेम करता है! यहां जितने संबंध हैं, वे सारे संबंध ही किसी न किसी अर्थ में प्रेम के संबंध हैं। संबंध मात्र प्रेम के हैं। तो हमने प्रेम को पापी कर दिया। सारा संसार हमने पाप से भर दिया, एक छोटी सी भूल करके कि प्रेम पाप है।

और दूसरा दुष्परिणाम हुआ है कि जब प्रेम पाप हो गया, तो प्रार्थना हमारी थोथी हो गई, उसमें प्राण न रहे, औपचारिक हो गई। प्राण तो प्रेम से मिल सकते थे, तो प्रेम को तो हमने पाप कह दिया। जीवन तो प्रेम से मिलता प्रार्थना को, तो जीवन के तो हमने द्वार बंद कर दिए। प्रेम की ही भूमि से प्रार्थना रस पाती है, तो हमने भूमि को निंदित कर दिया और प्रार्थना के वृक्ष को भूमि से अलग कर लिया। भूमि वृक्षहीन हो गई और वृक्ष मुर्दा हो गया। ये दो दुर्घटनाएं घटीं। प्रेम पाप हो गया और प्रार्थना थोथी हो गई।

इसलिए तुम्हारा प्रश्न तो स्वाभाविक है। सदियों-सदियों से यही समझाया है, इसलिए मन में यह सवाल उठता हैः कहीं प्रेम पाप तो नहीं? लेकिन एक बुनियादी भूल हो गई। और उस बुनियादी भूल के कारण पृथ्वी धार्मिक होने से वंचित रह गई। उस भूल को सुधार लेना है। और जितनी जल्दी सुधर जाए उतना अच्छा है।

मैं तुमसे कहता हूं, यह घोषणा करता हूं कि प्रेम पुण्य है।

लेकिन मुझे गलत मत समझ लेना। जब मैं प्रेम को पुण्य कहता हूं तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बस प्रेम पर रुक जाना है। जब मैं प्रेम को पुण्य कह रहा हूं तो सिर्फ यह कह रहा हूं कि प्रेम में सोना छिपा है। कचरा भी है। लेकिन जो कचरा है, वह प्रेम नहीं है। वह विजातीय है। वह सोना नहीं है। कूड़ा-करकट होगा, मिट्टी होगी, कुछ और होगा। विरह की अग्नि से गुजारो इसे। और तुम धीरे-धीरे पाओगे कि तुम्हारे हाथों में प्रार्थना का पक्षी लग गया है, जिसके पंख हैं, जो आकाश में उड़ सकता है। जो इतना हल्का है! क्योंकि सारा बोझ कट गया, सारी व्यर्थता गिर गई। जिस दिन तुम प्रार्थना को अनुभव कर पाओगे, उस दिन तुम धन्यवाद दोगे अपने सारे प्रेम के संबंधों को, क्योंकि उनके बिना तुम प्रार्थना तक कभी नहीं आ सकते थे। तुम धन्यवाद दोगे प्रेम के सारे कष्टों को, सुखों को, मिठास के अनुभव और कडुवाहट के अनुभव; जहर और अमृत, प्रेम ने दोनों दिए, उन दोनों को तुम धन्यवाद दोगे। क्योंकि जहर ने भी तुम्हें निखारा और अमृत ने भी तुम्हें सम्हाला और यह घडी अंतिम आ सकी सौभाग्य की कि प्रेम प्रार्थना बना।

प्रेम जब प्रार्थना बनता है तो परमात्मा के द्वार खुलते हैं।

प्रेम पाप नहीं है। और किसी बुद्धपुरुष ने प्रेम को पाप कहा है।

लेकिन लोग कुछ का कुछ समझे हैं। पंडितों-पुजारियों ने कहा है। पंडित-पुजारियों की समझ ही क्या है? उनका अनुभव क्या है? तोतों की तरह शास्त्रों को रटे हुए बैठे हैं। हां, उनसे रामायण कहलवा लो, कि उनसे गीता दोहरवा लो, कि वे कुरान का पूरा पाठ कर दें। मगर बस तोतों की तरह, मशीनों की तरह। यह काम तो मशीनें कर सकती हैं। अब तो कंम्प्यूटर पैदा हो गए हैं, ये सारी बातें कंप्यूटर कर सकते हैं। और आदमी से ज्यादा शुद्ध, आदमी से ज्यादा भूलचूक-मुक्त। बुद्धों ने कुछ कहा, पंडित कुछ समझे। और यह स्वाभाविक है एक अर्थ में, क्योंकि बुद्ध अपनी ऊंचाई से बोलते हैं और पंडित-पुरोहित अपनी नीचाई से समझते हैं। बुद्ध पुकारते हैं पर्वत-शिखरों से और पंडित-पुरोहित अंधेरी घाटियों में सरक रहे हैं। और वही से उन्हें जो सुनाई पड़ता है, उसका वे अर्थ बिठाते हैं, उसकी व्याख्या करते हैं। उन्होंने सब गुड़-गोबर कर दिया।

मुल्ला नसरुद्दीन पुलिस ऑफिस गया। पुलिस अफसर ने पूछा, बड़े मियां, तुम्हारे पास क्या सुबूत है कि तुम्हारी बीबी पागल हो गई है? कोई डाक्टर की रिपोर्ट, या।

मुल्ला नसरुद्दीन ने बात काटते हुए कहा, यह सब कुछ मैं नहीं जानता साहब, किंतु जो कुछ मैं कह रहा हूं वह सौ प्रतिशत सच है। आज शाम मैं आफिस से घर लौटा तो उसने मुस्कुरा कर मेरा स्वागत किया, बड़े प्यार से चाय की प्याली पेश की-हालांकि आज पहली तारीख नहीं है।

लोगों के अपने समझने के ढंग है।

मुल्ला नसरुद्दीन होटल से बाहर निकल रहा है और होटल के बैरा ने कहा, बड़े मियां, टिप में सिर्फ अठन्नी! आप मेरा अपमान कर रहे हैं। कम से कम एक रुपया तो होना ही चाहिए।

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, क्षमा करना भाई, एक अठन्नी और देकर मैं दुबारा तुम्हारा अपमान नहीं करना चाहता।

लोगों की अपनी समझ है, अपनी व्याख्या है। बुद्धपुरुष कुछ कहते हैं, बुद्ध कुछ समझते हैं। किसी बुद्धपुरुष ने नहीं कहा कि प्रेम पाप है। जीसस ने कहा है: प्रेम परमात्मा है। बुद्ध ने कहा है: प्रेम ध्यान की परिणति है। महावीर ने कहा है: प्रेम समाधि की आत्यंतिक अनुभूति है। नारद से पूछो। शांडिल्य से पूछो। चैतन्य से पूछो। मीरा से पूछो। और क्या तुम सोचते हो, योगेंद्र, इनमें से कोई भी कहेगा प्रेम पाप है? असंभव। जिन्होंने प्रार्थना जानी, जिन्होंने ध्यान जाना, वे कह ही नहीं सकते कि प्रेम पाप है। लेकिन जिन्होंने न ध्यान जाना है, न प्रार्थना जानी है, जिन्होनें जिदंगी का कुड़ा-करकट ही इकठटा किया है, और जिन्होंने प्रेम भी नहीं जाना, प्रेम के नाम पर भी कुछ और ढोते रहे हैं; प्रेम के नाम पर भी, प्रेम का मुखोटा लगा कर भी कुछ और ही करते रहे हैं, वे जरुर कहेंगे कि प्रेम पाप है। उसका अनुभव।

अगर साधारण मनुष्य के प्रेम का तुम विचार करो तो बहुत चकित हो जाओगे! उसके प्रेम में इतनी कीचड़ मिली है, उसके सोने में इतना कचरा मिला है, कि सोना तो एक प्रतिशत होगा, निन्यानबे प्रतिशत कचरा है। प्रेम के नाम पर घृणा तक भीतर छिपी है।

तुमने यह बात गौर की? प्रेम को घृणा बनने में देर नहीं लगती। मित्र को दुश्मन बनने में देर कितनी लगती है? जिस स्त्री के लिए तुम जान देने को तैयार थे, उसी की जान लेने को भी तैयार हो जाते हो-इसमें देर कितनी लगती है?

प्रेम इतनी जल्दी घृणा बन जाता है? प्रेम घृणा बन सकता है? और अगर प्रेम घ्रण बन सकता है तो कैसा प्रेम! प्रेम घृणा नहीं बन सकता। फिर जो घृणा बन जाता है, वह प्रेम था ही नहीं, कुछ और था, घृणा ही थी, प्रेम का मुखोटा लगा कर नाटक कर रही थी। प्रेम के नाम पर तुम शोषण कर रहे हो। प्रेम के नाम पर तुम एक-दूसरे का उपयोग कर रहे हो। प्रेम के नाम पर तुम एक-दूसरे का उपयोग कर रहे हो। प्रेम के नाम पर तुम एक-दूसरे की मालकियत कर रहे हो। प्रेम के नाम पर राजनीति है, कूटनीति है। प्रेम बड़ा लुभावना शब्द है, बड़ा प्यारा शब्द है, खूब उलझा लेता है। जिससे भी तुम कह देते होः मुझे आपसे बहुत प्रेम है, वही आपकी बातों में आ जाता है। तुम्हें खुद से भी प्रेम नहीं है, तुम्हें और किस्से प्रेम होगा? तुम कहते हो, हमें अपने बच्चों से प्रेम है। अपने बच्चों से तुम्हें प्रेम नहीं है, अपने हैं, इसलिए प्रेम है। मेरे हैं, अहंकार का हिस्सा हैं तुम्हारे, इसलिए प्रेम है। और अगर तुम्हारा बेटा प्रधानमंत्री हो जाए, तो बहुत प्रेम पैदा हो जाएगा। और तुम्हार बेटा अगर डाकू हो जाए और कारागृह में चला जाए, तो तुम जाकर अदालत में घोषणा कर दोगे कि मैं इनकार करता हूं कि यह मेरा बेटा है। प्रेम समाप्त हो जाएगा।

तुम्हारा प्रेम भी अहंकार है। तुम्हारा प्रेम भी उतने ही दूर तक है जहां तक तुम्हारे अहंकार को सहारा मिलता है, सत्कार मिलता है, सम्मान मिलता है। इस प्रेम के अनुभव के कारण लोगों को भी बात जंच जाती है कि प्रेम पाप है। मगर यह तो प्रेम का अनुभव ही नहीं है। कंकड़-पत्थर बीनते रहे और कहने लगे कि हीरे पाप हैं! हीरों का तुम्हें अनुभव नहीं है।

प्रेम का थोडा अनुभव करो। प्रेम बड़ी अदभुत घटना है। साधारण नहीं है, अलौकिक है। इस पृथ्वी पर स्वर्ग की छोटी सी जो किरण उतरती है, उसी का नाम प्रेम है। इस अंधेरे में रोशनी की जो थोड़ी सी झलक उतर आती है, उसी का नाम प्रेम है। इस पथरीले हृदय में जो थोड़ी आर्द्रता आ जाती है, उसी का नाम प्रेम है।
-ओशो
पुस्तकः प्रेम पंथ ऐसो कठिन
प्रवचन सं 11 से संकलित