प्रेम ही सृजन का स्रोत है



शब्द की राख के पीछे जो जीवित आग छिपी है, उसे ही जानना है। वह आग प्रेम की है। और प्रेम सृजन है। अप्रेम को मैंने विध्वंस कहा है, प्रेम को सृजन कहता हूं।

अहिंसा जीवन की घोषणा है। प्रेम ही जीवन है।

अहिंसा शब्द में हिंसा की निषेधात्मकता का निषेध, निगेशन ऑफ निगेशन है। और मैंने सुना है कि निषेध के निषेध से विधायकता, पाजिटिविटी फलित होती है। शायद अहिंसा शब्द को उसी विधायकता की ओर संकेत है। फिर, शब्द की खोल तो निस्सार है। शब्द की राख के पीछे जो जीवित आग छिपी है, उसे ही जानना है। वह आग प्रेम की है। और प्रेम सृजन है। अप्रेम को मैंने विध्वंस कहा है, प्रेम को सृजन कहता हूं। जीवन में प्रेम ही सृजन का स्रोत है। विधायकता और सृजनात्मकता के चरम स्रोत और अभिव्यक्ति के कारण ही क्राइस्ट प्रेम को परमात्मा या परमात्मा को प्रेम कह सके हैं। सच ही सृजनात्मकता, क्रिएटिविटी के लिए प्रेम से अधिक श्रेष्ठ और ज्यादा अभिव्यंजक अभिव्यक्ति खोजनी कठिन है।

मैं देखता हूं कि यदि अहिंसा की यह विधायकता और स्वसत्ता दृष्टि में न हो, तो वह केवल हिंसा का निषेध होकर रह जाती है। हिंसा न करना ही अहिंसा नहीं है, अहिंसा उससे बहुत ज्यादा है। शत्रुता का न होना ही प्रेम नहीं है, प्रेम उससे बहुत ज्यादा है। यह भेद स्मरण न रहे तो अहिंसा-उपलब्धि केवल हिंसा-निषेध और हिंसा-त्याग में परिणत हो जाती है।

इसके परिणाम घातक होते हैं। नकार और निषेध की दृष्टि जीवन को विस्तार नहीं, संकोच देती है। उससे विकास और मुक्ति नहीं, कुंठा और बंधन फलित होते हैं। व्यक्ति फैलता नहीं, सिकुड़ने लगता है। वह विराट जीवन ब्रह्म में विस्तृत नहीं, क्षुद्र में और अहं में सीमित होने लगता है। वह सरिता बन कर सागर तक पहुंच जाता, लेकिन सरोवर बन सूखने लगता है। अहिंसा को जगाना सरिता बनना है, केवल हिंसा-त्याग में उलझ जाना सरोवर बन जाना है। नकार की साधना श्री और सौंदर्य और पूर्णता में नहीं, कुरूपता और विकृति में ले जाती है। वह मार्ग छोड़ने का है, पाने का और मर जाने का नहीं। जैसे कोई स्वास्थ्य का साधक मात्र बीमारियों से बचने को ही स्वास्थ्य-साधना समझ ले, ऐसी ही भूल वह भी है।

स्वास्थ्य बीमारी का अभाव ही नहीं, प्राणशक्ति, वाइटल फोर्स का जागरण है। वह प्राण की प्रसुप्त और बीज-शक्ति का जागना और वास्तविक बनना है। बीमारी से बचाव तो मुर्दों का भी हो सकता है, लेकिन उन्हें स्वास्थ्य नहीं दिया जा सकता है। बीमारियों से बच-बच कर कोई अपने को जिलाए रख सकता है, लेकिन स्वास्थ्य और जीवन को पाना बहुत दूसरी बात है।
धर्म-साधना में भी स्वास्थ्य-साधना के इस विज्ञान को याद रखना अत्यधिक उपादेय है।

एक साधु आश्रम में अतिथि था। उसके स्वागत में एक समारोह आयोजित था। उस आश्रम के कुलपति ने अपने आश्रम और आश्रम के अंतेवासियों के परिचय में कहा था, हम हिंसा नहीं करते हैं, हम मादक द्रव्यों का उपयोग नहीं करते हैं, हम परिग्रह नहीं करते हैं। इसी स्वर में उसने और बहुत सी बातें बताई थीं, जो कि साधु नहीं करते थे। वह अतिथि देर तक यह सब सुनता रहा था और अंत में उसने पूछा था, मैं यह तो समझ गया कि आप क्या नहीं करते हैं, अब कृपया यह और बताएं कि आप करते क्या हैं!

निश्चय ही, यही मैं भी पूछना चाहता हूं, ‘न करने’ और ‘करने’ के इस बहुमूल्य भेद की मैं भी याद दिलाना चाहता हूं।

अहिंसा को, या उस दृष्टि से धर्म को ही जिसने ‘न करने’ की भाषा में समझा और पकड़ा है, वह बहुत आधारभूत भूल में पड़ गया है। शवीत्जर ने जिसे जीवन-निषेध, लाइफ निगेशन कहा है, वही उसकी चर्या हो जाती है। जीवन-विधेय, विधायकता, लाइफ एफर्मेशन के लक्ष्य से उसके संबंध-सूत्र विच्छिन्न हो जाते हैं। वह उपलब्धि के आरोहण को खो देता है, और केवल खोने और न होने में लग जाता है।
और सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि खोने की इस सतत चेष्टा और आग्रह के बावजूद भी जिन्हें वह खोना चाहता है, उन्हें नहीं खो पाता है। संघर्ष से जिन्हें वह दूर करता है, वे किसी रहस्यमय ढंग से उसके निकट ही बने रहते हैं। वह विश्राम भी नहीं कर पाता है कि पाता है कि जिन्हें वह दूर छोड़ आया था, वे सब पुनः वापस लौट आए हैं। जिन्हें वह दमन करता है, वे वेग न मालूम क्यों और वेग पकड़ते प्रतीत होते हैं। जिन वासनाओं से वह युद्धरत है, जिनके सिरों को वह धड़ों से अलग कर फेंक देता है, वह अवाक रह जाता है कि वे सब पुनः-पुनः हजार-हजार सिर रख कर फिर उसे घेर कर कैसे खड़ी हो जाती हैं?

हिंसा, क्रोध या काम, सेक्स कोई भी केवल दमन से विलीन नहीं होता है। नकार और विरोध मात्र से ये वेग समाप्त नहीं होते हैं। उस भांति वे और सूक्ष्म होकर चित्त की ओर भी गहरी पर्तों पर सक्रिय हो जाते हैं। फ्रायड ने जिसे अचेतन मन, अनकांशस कहा है, वही दमन से उनका कार्य क्षेत्र बन जाता है। इस दमन, सप्रेशन और विरोध की दिशा से चल कर व्यक्ति विमुक्त तो नहीं, विक्षिप्त अवश्य हो सकता है।
-ओशो
महावीर या महाविनाश
प्रवचन नं. 11 से संकलित
(पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. पर भी उपलब्ध है)