अहंकार: आत्मस्मरण का अभाव


प्रश्न: ओशो, अपने अहंकार को पूरी तरह और सदा के लिए मिटाने का सबसे तेज और सबसे खतरनाक ढंग क्या है?

अहंकार को मिटाने का कोई ढंग ही नहीं है—न धीमा, न तेज; न सरल, न कठिन; न आसान, न खतरनाक। अहंकार हो तो मिटाया जा सकता है। अहंकार है ही नहीं; इसलिए जो मिटाने चलेगा वह और भी बना लेगा। मिटाने की कोशिश में ही अहंकार निर्मित होता है।

इसीलिए तथाकथित संतों-महात्माओं में जैसा अहंकार पाया जाता है वैसा साधारणजनों में नहीं पाया जाता। साधारणजन का अहंकार भी साधारण होता है। जो अपने को पवित्र मानते हैं, उनका अहंकार भी उतना ही पवित्र हो गया। और पवित्र अहंकार ऐसा ही है जैसा पवित्र जहर, शुद्ध जहर, बिना मिलावट का, खालिस जहर। मिटाने की चेष्टा अज्ञानपूर्ण है।

अहंकार आत्मबोध का अभाव है, आत्मस्मरण का अभाव है। अहंकार अपने को न जानने का दूसरा नाम है। इसलिए अहंकार से मत लड़ो। अहंकार और अंधकार पर्यायवाची हैं। हां, अपनी ज्योति को जला लो। ध्यान का दीया बन जाओ। भीतर एक जागरण को उठा लो। भीतर सोए-सोए न रहो। भीतर होश को उठा लो। और जैसे ही होश आया, चकित होओगे, हंसोगे-अपने पर हंसोगे। हैरान होओगे। एक क्षण को तो भरोसा भी न आएगा कि जैसे ही भीतर होश आया वैसे ही अहंकार नहीं पाया जाता है। न तो मिटाया, न मिटा, पाया ही नहीं जाता है।

इसलिए मैं तुम्हें न तो सरल ढंग बता सकता हूं, न कठिन; न तो आसान रास्ता बता सकता हूं, न खतरनाक; न तो धीमा, न तेज। मैं तो सिर्फ इतना ही कह सकता हूं: जागो! और जागने को ही मैं ध्यान कहता हूं।

सबसे पहला काम है: वह जो थोड़ी सी हमारे भीतर जागरण की रेखा है, उसे सपनों से मुक्त करो, उसे विचारों से शून्य करो। उसे साफ करो, निखारो, धोओ, पखारो। और जैसे ही वह शुद्ध होगी वैसे ही तुम्हारे हाथ में कीमिया लग जाएगा, राज लग जाएगा, कुंजी मिल जाएगी। फिर जो तुमने उस थोड़ी सी पर्त के साथ किया है वही तुम्हें उसके नीचे की पर्त के साथ करना है। फिर और नीचे की पर्त, फिर और नीचे की पर्त...। धीरे-धीरे तुम्हारा अंतर्जगत पूरा का पूरा आलोक से, आभा से मंडित हो जाएगा। एक ऐसी घड़ी आती है जब भीतर आलोक होता है। और जहां आलोक हुआ भीतर, अंधकार नहीं पाया जाता है। अंधकार नहीं अर्थात अहंकार नहीं।

मेरे जीवन-दृष्टिकोण में अहंकार को न तो मिटाना है, न गिराना है, न जीतना है-सिर्फ समझना है; सिर्फ जाग कर साक्षी-भाव से अहंकार को देखना है। और तब चमत्कारों का चमत्कार घटित होता है। इधर तुमने देखा, उधर अहंकार नहीं। इधर तुम्हारी आंख खुली, उधर अहंकार समाप्त। समाप्त भी मैं कह रहा हूं मजबूरी में, क्योंकि भाषा उपयोग करनी पड़ती है। अन्यथा समाप्त कहना भी उचित नहीं; क्योंकि था ही नहीं, कभी नहीं था।

और मजा यह है कि जब साक्षी बनोगे शरीर के, तो शरीर में एक प्रसाद आ जाएगा, एक सौंदर्य आ जाएगा, एक गरिमा आ जाएगी, एक सुगंध आ जएगी, एक दिव्यता, एक भगवत्ता! और जब मन का निरीक्षण करोगे, साक्षी बनोगे, तो मन शांत होने लगेगा, शून्य होने लगेगा, निर्विचार होने लगेगा। विचार को देखते ही विचार विदा होने लगते हैं। और जहां निर्विचार आया, भीतर सन्नाटा हुआ, कि फिर पहली बार अनुभव होता है संगीत का, पहली बार अनुभव होता है रस का, पहली बार आनंद की झलक मिलती है।

लेकिन झलक! जैसे दूर आकाश के चांद को झील में देखा हो, ऐसी झलक, प्रतिबिंब। जैसे कहीं दूर से कोयल अमराई में कूकी हो, कुहू-कुहू की आवाज! अहंकार से लड़ने की बात यूं ही व्यर्थ है, जैसे—
पंचशील पुल पर खड़े पांच अनोखे व्यक्ति
परिचय अपना दे रहे किसमें कितनी शक्ति
किसमें कितनी शक्ति, एक था उनमें अंधा
शेष चार थे—बहरा, लंगड़ा, लूला, नंगा
कंह काका कविराय शून्य में झांक रहे थे
धुत्त नशे में लंबी-चैड़ी हांक रहे थे
बहरा बोला यकायक ध्यान देयो उस ओर
साफ सुनाई पड़ रहा डाकू दल का शोर
डाकू दल का शोर, कसम अंधे ने खाई
वह देखो बारह डाकू दे रहे दिखाई
लंगड़ा बोला भाग चलो वर्ना मर जाएं
लूला कहने लगा कि दो-दो हाथ दिखाएं
तब नंगा चिल्लाया कुछ भी नहीं करोगे
लगता है सब मिल कर मुझको लुटवा दोगे।
-ओशो
आपुई गई हिराय