दादू दयाल


कबीर की शिष्य परंपरा मे पांचवे राजस्थान के संत दादू संवत 1601 में अहमदाबाद में साबरमती नदी के तट पर लोदीराम नाम के ब्राह्मण को पानी में बहते मिले थे। 11 की उम्र में श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन हो गये। 13 साल में जब वे घर से भागे तो माता-पिता पकड़ कर वपास ले आये। लेकिन सात वर्ष बाद वे फिर भाग खड़े हुए और सागर पहुंच कर धुनिया का काम करने लगे।

वहीं 12 साल तक अध्ययन में करते रहे। उनके इस काम से कई ब्राह्मण खफा रहने लगे। एक बार जब दादू अपने घर में ध्यान लीन थे तो कुछ पंडितो ने ईर्ष्यावश उनके घर के द्वारों को ईटों से बंद करवा दिया था। जिसे बाद में उनके पड़ोसियों ने खोला। दादू ने कहा, अच्छा हुआ कि कृष्ण की उपासना करने का इतना शांत माहौल मिला। दयालु स्वभाव के होने के कारण दादू से संत दादूदयाल हो गये। मतलब दयालु संत। गुरु-कृपा से ज्ञान प्राप्त होने से इनके कई सैकडों शिष्य हो गए। जिनमें गरीबदास, सुंदरदास, रज्जब और बखना मुख्य हैं। दादू हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी आदि कई भाषाओं के ज्ञाता थे। इन्होंने शबद और साखी लिखीं। इनकी रचना प्रेमभावपूर्ण है। जात-पात के निराकरण, हिन्दू-मुसलमानों की एकता आदि विषयों पर इनके पद तर्क-प्रेरित न होकर हृदय-प्रेरित हैं।

प्रसिद्धि होने पर एक बार उन्हें अकबर बुलवाया और पूछा कि अल्लाह कि जाति क्या है ? इस पर दादू ने एक दोहा सुनाया-

इश्क अल्लाह की जाती है इश्क अल्लाह का अंग

इश्क अल्लाह मौजूद है, इश्क अल्लाह का रंग ।

कहा जाता है कि साधना के क्रम मे ही नाराना नगर कि भाराना पहाड़ी से वे गायब हो गए। आज भी उस पहाड़ी पर दादू के कपडे-किताबें आदि दादुपंथियो के पास हैं और उनकी एक समाधि भी है। दादू कि रचनाओं मे कबीर कि रचनाओं के कई अंश शामिल हैं।

दादू के बारें में सद्गुरु ओशो कहते हैं: मैं उसी को धार्मिक कहता हूं, जो न तो आस्तिक है, न नास्तिक है; खोजी है, यात्री है, जो कहता है, जीवन दांव पर लगा देंगे, लेकिन खोज कर रहेंगे। उसके जीवन में अंधेरे की प्रतीत हुई है। अब वह प्रकाश चाहता है। उसने प्यास को जाना है और जीवन के मरुस्थल को जाना है। वह मरूद्यान की खोज में है। वह किसी सरोवर की तलाश में है। और वह तलाश बौद्धिक नहीं है, उसका रोआं-रोआं प्यास से प्यासा है।

दादू उसी की बात कर रहे हैं। वे कहते हैं:

मन चित्त चातक ज्यूं रटै, पिव पिव लागी प्यास।

ऐसी बौद्धिक बातचीत से परमात्मा कुछ मिलेगा नहीं कि तुम बैठ कर गीता पढ़ लो, कि दर्शनशास्त्र का विचार कर लो; नहीं इससे कुछ न होगा।

मन चित चातक ज्यूं रटै, जैसे चातक चिल्लाता है रात भर-पिव पिव लागी प्यास! पियू पियू कहे चला जाता है। साधारण जल से राजी नहीं होता, स्वाति की बूंद की प्रतीक्षा करता है। वर्ष बिता देता है। दिन आते हैं, जाते हैं, चातक की रटन बढती चली जाती है।

चातक नाम का पक्षी केवल स्वाति नक्षत्र के पानी को ही पीता है। बाकी साल भर रोता रहता है। साधारण जल उसे तृप्त नहीं करता-स्वाति का परम जल चाहिये। संत साधारण जल से राजी नहीं-परमात्मा के जल से ही राजी है। साधारण प्रेम से उसे तृप्त नहीं कर पाता। जब तक परमात्मा की ही वर्षा उस पर न हो जाये, जब तक परम प्रेम न आ जाए तब तक वह प्यासा ही रहेगा।

मन चित चातक ज्यूं रटै, पिव पिव लागी प्यास।

बस उस प्यारे की ही प्यास लगी है। वही बुझा सकेगा।

दादू के शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं, वे कहते हैं, मन चित। मन के लिए भारत में बहुत शब्द हैं, ऐसा दुनिया की किसी भाषा में नहीं है। अंग्रेजी में एक ही शब्द है-माइंड, लेकिन भारत में बहुत शब्द हैं। इसमें दो शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं दादू: मन, चित, चातक।

साधारण मन तो तुम्हारे पास है, चित तुम्हारे पास नहीं है। जब तक मन अँधेरे से राजी है तब तक वह चित नहीं है। जब मन चैतन्य की प्यास से भरता है और चैतन्य के आरोहण पर निकलता है; और जब कहता है चैतन्य होना है और चेतना है, जागना है, जागरण की अभीप्सा जब मन में पैदा होती है तब मन चित हो जाता है। तब मन साधारण मन न रहा। तब एक नई ही घटना घट गई। वह चैतन्य होने लगा।

मन साधारणतः अचित है, वह बेहोश है। तुम्हारा मन तो बिलकुल बेहोश है। तुम्हें पता नहीं तुम्हारा मन तुमसे क्या करवाता है। तुम करते रहते हो। जैसे कि कोई शराब के नशे में कर रहा है। किसी ने गाली दी, तुम्हें क्रोध आ गया। तुम कहते जरुर हो कि मैंने क्रोध किया, अब मैं क्रोध न करूंगा; लेकिन तुम गलत कहते हो। तुमने क्रोध किया नहीं। मन ने क्रोध करवा लिया। तुम मालिक नहीं हो। इसलिए तुम यह मत कहो कि मैंने क्रोध किया। अगर तुम करने ही वाले होते तब तो तुम्हारे बस में होता करते, या न करते। तुम मालिक नहीं हो।
-ओशो
पुस्तकः पिव पिव लागी प्यास से संकलित