जीवन का परम् नियम है अनुशासन


जीवन का जो परम नियम है, जो उसका गहनतम अनुशासन है, डिसिप्लन है, उसे पहचान लेने की कला का नाम धर्म है

नानक ने अस्तित्व और उसकी खोज को चार खंडों में बांटा है। उन चार खंडों को थोड़ा समझ लें। उनका विभाजन बहुत वैज्ञानिक है। पहले खंड को वे धर्म-खंड कहते हैं, दूसरे का ज्ञान, तीसरे का लज्जा और चैथे को कृपा।

धर्म से अर्थ है, दि ला, नियमः जिससे अस्तित्व चलता है। जिसको वेद ने ऋत कहा है। ऋत के कारण ही तो हम बदलाहट को मौसम की ऋतु कहते हैं। उन दिनों जब वेद लिखे गये तो ऋतुएं बिल्कुल निश्चित थीं। रत्ती-पल फर्क न पड़ता था। हर वर्ष वसंत उसी दिन आता था जिस दिन सदा आता रहा था। हर वर्ष वर्षा उसी दिन शुरू होती थी जिस दनि सदा होती रही थी। आदमी ने प्रकृति को अस्तव्यस्त कर दिया है। इसलिए ऋतुएं भी ऋतुएं नहीं हैं। क्योंकि ऋतु शब्द ही हमने इसलिए दिया था, कि अपरिवर्तित नियम के अनुसार जो चलती थीं। एक अनुशासन था। आदमी की तथाकथित समझदारी के कारण सब अस्तव्यस्त हो गया है। ऋतुओं ने भी अपनी पटरी छोड़ दी।

अब पश्चिम में इस पर बहुत चिंता पैदा हुई है। एक नया आदोंलन चलता है। वे कहते हैं कि प्रकृति को मत छुओ। हमने बहुत नुकसान कर दिया है। और प्रकृति को उस पर छोड़ दो। उसमें किसी तरह का मानवीय हस्तक्षेप खतरनाक है। उससे न केवल प्रकृति, बल्कि अब मनुष्य का भी अंत करीब है।

वेद ने जब मौसम के परिवर्तन को ऋतु कहा, तो ऋतु शब्द के कारण कहा। ऋतु का अर्थ होता है, अपरिवर्तित नियम, अनचेंज़िंग ला; जिसको लाओत्से ने ताओ कहा है। उस नियम को जानने की जो विधि है, वह धर्म है। जीवन का जो परम नियम है, जो उसका गहनतम अनुशासन है, डिसिप्लन है, उसे पहचान लेने की कला का नाम धर्म है। बुद्ध ने तो धम्म या धर्म शब्द का अर्थ नियम की ही तरह उपयोग किया है। तो जब बौद्ध-भिक्षु कहते हैं, धम्मं शरणं गच्छामि, तब वे ये कह रहे हैं कि अब हम नियम की शरण जाते हैं। अब हम अपने को छोड़ते हैं। और हम उस परम नियम की शरण गहते हैं, जिससे हम पैदा हुए और जिसमें हम लीन हो जाएंगे। अब हम उसी के सहारे चलेंगे। सत्य को जान लेना, उस नियम को जान लेना ही है।

जीवन का जो मूल आधार है, उसको पहचान लेने को नानक कहते हैं, धर्म-खंड।

हम जीते हैः लेकिन हम विचार से जीते हैं। हम सोच-सोच कर कदम रखते हैं। और जितना सोच-सोच कर हम कदम रखते हैं, उतने ही हमारे कदम गलत पड़ते हैं। जो-जो हम बिना सोचे करते हैं, वहीं-वही ठीक कदम पर ले जाता है।

तुम खाना खाते हो। फिर उसे पचाने के लिए तो तुम नहीं सोचते। फिर तो नियम उसे पचाता है। किसी दिन कोशिश कर देखो। भोजन कर लो, फिर सोचो कि अब कैसे शरीर पचाएगा? फिर चौबीस घंटे पेट का ख्याल रखो कि पच रहा है? अपच हो जाएगी उसी दिन। क्योंकि जैसे ही विचार अचेतन नियम में बाधा डालता है, वैसे ही उपद्रव हो जाता है। तुम रोज सोते हो सांझ, एक दिन सोते वक्त सोच कर सोओ कि किस तरह सोता हूं,? किस तरह नींद आती है? विचार करो। उस रात नींद खो जाएगी। इसलिए ज्यादा विचार करने वाले लोगों को अगर अनिद्रा का रोग हो जाता है तो कुछ आश्चर्य नहीं है।

जीवन तो चल रहा है। वृक्ष फूल को खिलाते वक्त सोचता थोड़े ही है, कि कब खिलाऊं? कि समय पक गया या नहीं? मौसम आ गया है या नहीं? वृक्ष जानता है अपनी जड़ों से, सोच कर नहीं। यह उसमें अंतर्भावित है। नदियां सागर की तरफ बहती हैं। उन्हें कुछ दिशा का बोध है? उनके पास कोई नक्शा है कि सागर कहां है? लेकिन एक अचेतन नियम उन्हें सागर की तरफ ले जाता है।

यह इतना विराट जगत चल रहा है बिना विचार के। और इस विराट जगत में कहीं भी कोई गलती नहीं हो रही है। कभी कोई भूल-चूक नहीं हो रही, सब बिल्कुल ठीक है। सिर्फ आदमी गलत हो गया है। क्योंकि आदमी नियम से नहीं चल रहा है, विचार से चल रहा है। आदमी सोचता है, करूं या न करूं? ठीक है या गलत? उचित होगा कि अनुचित? परिणाम क्या होंगे? फल मिलेगा या नहीं मिलेगा? लाभ होगा या हानि? लोग क्या कहेंगे? हजार विचार करता है। और इस हजार विचार के धुएं में ही जीवन के नियम की सीधी रेखा उलझ जाती है और खो जाती है। निर्विचार से जो चलने लगा, वही सिद्ध है। निर्विचार से जो जीने लगा, वही आ गया शरण धर्म की।

तो धर्म कोई बुद्धिमानी नहीं है और न तुम्हारी बुद्धि का कोई निर्णय है। धर्म तो बुद्धि से थक गए आदमी की-जो बुद्धि से परेशान हो गया है, जिसने अपनी तरफ से सभी हाथ -पैर मार लिए और कुछ परिणाम न हुआ, जो सब तरफ से थक गया और असहाय हो गया-उस आदमी की खोज है धर्म। वह छोड़े देता है बुद्धि को। वह कहता है, अब तू जैसा चलाए। उसको ही नानक हुक्म कहते हैं। वे कहते हैं, अब उसके हुक्म चलूंगा।

इससे तुम यह न समझना कि वहां बैठा हुआ कोई महापुरुष, कोई परमात्मा हुक्म दे रहा है। वहां कोई बैठा हुआ नहीं है। हुक्म चल रहा है बिना हुक्मी के। नियम चल रहा है। नियम ही परमात्मा है। हमें भाषा ऐसी उपयोग करनी पड़ती है जिसे आदमी समझ ले। तो हमें तो प्रतीक बनाने पड़ते हैं। कई बार नासमझ आदमी प्रतीकों को जकड़ कर बैठ जाता है। वह सोचता है कि परमात्मा का कोई मुंह है, या हाथ-पैर हैं। वह किसी सिंहासन पर बैठ कर हुक्म चला रहा हैं हम हुक्म को मानें या न मानें! न मानें तो धार्मिक। नहीं मानेंगे तो परमात्मा नाराज होगा, क्रुद्ध होगा, दंड देगा। मानेंगे तो पुरस्कृत करेगा।

ये सब व्यर्थ की बातें हैं। यह तुम प्रतीक को जरूरत से ज्यादा खींच लिए। कोई व्यक्ति बैठा हुआ नहीं है। उस नियम की शरण जब तुम चले जाते हो तो तुमसे गलत होना बंद हो जाता है। क्योंकि वह नियम गलत करना जानता ही नहीं। और जब तुमसे ठीक होने लगता है तो सुख का संगीत बजने लगता है। ठीक का अर्थ ही यही है कि जब सब ठीक होगा, तब तुम्हारे पास दुख की छाया होगी। जितना गलता होता जाएगा, उतना चिंता गहन होगी। दुख, पीड़ा होगी। तुम दुख को दंड मत समझना। कोई दंड नहीं दे रहा है। तुम दुख को तो सिर्फ गलत होने का सूचन समझना।
-ओशो

पुस्तकः एक ओंकार सतनाम
प्रवचन नं. 18 से संकलित
पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध है