नकारात्मक मन


जिस दिन तुम्हें यह भी दिखायी पड़ेगा कि फूल और कांटे साथ-साथ आते हैं, उस दिन कांटे का दुख फूल के साथ भी संयुक्त हो जाएगा-संयुक्त है ही। फूल में भी दुख है, ऐसा जिस दिन दिखायी पड़ जाएगा, उस दिन छूटने में क्षणभर की देर न लगेगी...

पहली बात, नकारात्मक मन से छुटकारे की चेष्टा सफल नहीं हो सकती, क्योंकि विधायक मन को बचाने की चेष्टा साथ में जुड़ी है। और विधायक और नकारात्मक साथ-साथ ही हो सकते हैं। अलग-अलग नहीं। यह तो ऐसे ही है जैसे सिक्के का एक पहलू कोई बचाना चाहे और दूसरा पहलू फेंक देना चाहे। मन या तो पूरा जाता है, या पूरा बचता है, मन को बांट नहीं सकते। नकारात्मक और विधायक जुड़े हैं, संयुक्त हैं, साथ-साथ हैं। एक-दूसरे के विपरीत हैं, इससे यह मत सोचना कि एक-दूसरे से अलग-अलग हैं। एक-दूसरे के विपरीत होकर भी एक-दूसरे के परिपूरक हैं। जैसे राज और दिन जुड़े हैं, ऐसे ही नकारात्मक और विधायक मन जुड़े हैं।

तो पहली तो बात यह समझ लो कि अगर नकारात्मक से छुटकारा पाना है, तो कभी छुटकारा न होगा। मन से ही छुटकारा पाने की बात सोचो। मन यानी नकारात्मक विधायक, दोनों।

हम जीवनभर ऐसी चेष्टाएं करते हैं और असफल होते हैं। असफल होते हैं तो सोचते हैं, हमारी चेष्टा शायद समग्र मन न हुई, पूरे संकल्प से न हुई, शायद हमने अधूरा-अधूरा किया, कुछ भूल-चूक रह गयी नहीं, भूल-चूक कारण नहीं है। जो तुम करने चले हो, वह हो ही नहीं सकता। उसके होने की ही संभावना नहीं है। वह स्वभाव के नियम के अनुकूल नहीं है, इसलिए नहीं होता।

इसलिए इसके पहले कि कुछ करो, ठीक से देख लेना कि जो तुम करने जा रहे हो, वह जगत-धर्म के अनुकूल है? वह जगत-सत्य के अनुकूल है? जैसे एक आदमी दुख से छुटकारा पाना चाहता है और सुख से तो छुटकारा पाना नहीं चाहता, तो क्भी सफल नहीं होगा। सुख-दुख साथ-साथ जुड़े हैं। दुख गया तो सुख गया। सुख बचा तो दुख बचा।

तुम्हारी उलझन और दुविधा यही है कि तुम एक को बचा लेना चाहते हो, दूसरे को हटाते। यही तो सभी लोग जन्मों-जन्मों करते रहे हैं। सफलता बच जाए, असफलता चली जाए। सम्मान बच जाए, अपमान चला जाए। विजय हाथ रहे, हार कभी न लगे। जीवन तो बचे और मौत समाप्त हो जाए। यह नहीं हो सकता। यह असंभव है। जीवन और मृत्यु साथ-साथ हैं। जिसने जीवन को चुना, उसने अनजाने मृत्यु के गले में भी वरमाला डाल दी। ऐसा ही विधायक और नकारात्मक मन है।

विधायक मन का अर्थ होता है, हां; और नकारात्मक मन का अर्थ होता है, नहीं। हां और नहीं को अलग कैसे करोगे? और अगर नहीं बिल्कुल समाप्त हो जाए तो हां में अर्थ क्या बचेगा? हां में जो अर्थ आता है, वह नहीं से ही आता है।

इसलिए मैं कहता हूं, तुम अगर आस्तिक हो, तो नास्तिक भी होओगे ही। चाहे नास्तिकता भीतर दबा ली हो। नास्तिकता के ऊपर बैठ गए होओ, उसे बिलकुल भुला दिया हो, अचेतन के अंधेरे में डाल दिया हो, मगर, अगर तुम आस्तिक हो तो तुम नास्तिक भी रहोगे ही। अगर तुम नास्तिक हो, तो कहीं तुम्हारी आस्तिकता भी पड़ी है; जानो न जानो, पहचानो न पहचानो। आस्तिक और नास्तिक साथ-साथ ही होते हैं।

इसलिए धार्मिक व्यक्ति को मैं कहता हूं, जो आस्तिक और नास्तिक दोनों से मुक्त हो गया। धार्मिक व्यक्ति को मैं आस्तिक नहीं कहता, और धार्मिक व्यक्ति को विधायक नहीं कहता, धार्मिक व्यक्ति को कहता हूँ, द्वंद्व के पार।

तो पहली बात, पूछते हो, ‘नकारात्मक मन से कैसे छुटकारा होगा?’

मन से छुटकारे की बात सोचो। नकारात्मक मन से छुटकारे की बात सोचो ही मत, अन्यथा कभी न होगा। और जब मन से छुटकारे की बात उठती है तो उसमें विधायक मन सम्मिलित है उतने ही अनुपात में, जितने अनुपात में नकारात्मक मन सम्मिलित है। वे दोनों ही मन के ही पहलू हैं। हां कहो तो मन आती है, न कहो तो मन से आती है।

इसीलिए तो परम सत्य को कहा नहीं जा सकता; कैसे कहो? यहां तो हां कहो, या न कहो। हां कहो नहीं आ जाती है, नहीं कहो तो हां आ जाती है। इसलिए परम सत्य को केवल मौन से ही कहा जा सकता है, शून्य से कहा जा सकता है। जहां शून्य है, वहां मन नहीं। ऐसा समझो, जहां हां और नहीं दोनों गिर गये, वहां जो बचता है उसी का नाम शून्य है।

बुद्ध का मार्ग तो शून्य का मार्ग है। इसे समझना। इसे हम समझ नहीं पाए, इस देश में बुद्ध को ठीक से समझा नहीं गया। ऐसा लगा कि शून्य तो नकारात्मक है। गलत हो गयी, भूल हो गयी बात। शून्य तो केवल इस बात की सूचना है कि हां और न दोनों गए।

बुद्ध बार-बार कहते हैं कि लोग कहते हैं कि मैं ईश्वर को मानता हूं; कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, मैं ईश्वर को नहीं मानता; कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, मैं आत्मा को मानता हूं, कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, मैं आत्मा को नहीं मानता; लेकिन मैं मान्यताओं के पार हूं। न मैं कहता हूं ऐसा है, न मैं कहता हूं वैसा है। मैं कुछ कहता ही नहीं। मैंने मान्यता ही छोड़ दी है। मैंने मन ही छोड़ दिया है। मैं शून्यभाव में ठहरा हूं।

इस शून्य का अर्थ तुम नकारात्मक मत ले लेना। इस शून्य का अर्थ है, द्वंद्व जा चुका, विभाजन गिर चुका। दो बचे ही नहीं, चुनाव का सवाल कहां है? और जहां चुनाव को कुछ भी नहीं बचा, वहीं है सत्य। सत्य तुम्हारा चुनना नहीं है। जब तुम्हारे चुनने की सारी आदत गिर गयी, तब जो शेष रह जाता है वही सत्य है।

मैं समझता हूं, तुम कांटों से मुक्त होना चाहते हो, फूलों को बचाना चाहते हो। और सारे बुद्धपुरुषों की शिक्षा यही है कि अगर कांटों से मुक्त होना हो, तो फूलों को विदा दे दो। यही अड़चन है।

इसलिए पूछा है तुमने, ‘ये दुखदायी हैं, तो भी इनसे लगाव क्यों बना है?’

फूल से लगाव है, फूल में दुख नहीं है। कांटे में दुख है। सो कांटे से छूटने की तुमने जिज्ञासा उठायी है। जिस दिन तुम्हें यह भी दिखायी पड़ेगा कि फूल और कांटे साथ-साथ आते हैं, उस दिन कांटे का दुख फूल के साथ भी संयुक्त हो जाएगा-संयुक्त है ही। फूल में भी दुख है, ऐसा जिस दिन दिखायी पड़ जाएगा, उस दिन छूटने में क्षणभर की देर न लगेगी।

हमारी कठिनाई यही है। मन के सिक्के को हाथ में रखे हैं, एक हिस्सा प्रीतिकर मालूम होता है कि इसे बचा लें, एक हिस्सा अप्रीतिकर मालूम होता है। तो न छोड़ पाते हैं। दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम। ऐसे बीच में अटक जाते र्हैं। ऐसे बड़ा तनाव और चिंता पैदा होती है। ऐसे बहुत खिंचे-खिंचे हो जाते है। ऐसे बड़ी बेचैनी पैदा होती है। और जीवन एक रोग जैसा मालूम होने लगता है।
-ओशो
पुस्तकः दुख-निरोध
प्रवचन नं. 68 से संकलित