पाप और पुण्य


भीतर का दीया जला हो, तो वह जो भी करे वह पुण्य होगा। हो सकता है ऊपर से दिखाई पड़े की यह तो पुण्य नहीं, यह कर्म तो पुण्य नहीं; लेकिन वह पुण्य ही होगा। असंभव है कि उससे पाप हो जाए। क्योंकि जिसका बोध जाग्रत है उससे पाप कैसे हो सकता है? उससे पाप नहीं हो सकता...

भीतर दीया जला हो चैतन्य का, तो जो कर्म होते हैं वे पुण्य हैं। भीतर दीया बुझा हो, तो जो कर्म होते हैं वे पाप हैं। समझ लेना आप! कोई कर्म न तो पाप होता है, न पुण्य होता है। पुण्य और पाप करने वाले पर निर्भर होते हैं। कोई कर्म पाप और पुण्य नहीं होता। आमतौर से हम यही मानते हैं की कर्म पुण्य और पाप होते हैं। यह काम बुरा है और वह काम अच्छा है।

यह बात नहीं है। जिस आदमी के भीतर का दीया बुझा है वह कोई अच्छा काम कर ही नहीं सकता। यह असंभव है। दिख सकता है कि अच्छा काम कर रहा है। जिनके भीतर दीए जले रहे हैं उनके कर्मों का अनुकरण कर सकता है। लेकिन अनुकरण में भी वासना उसकी विपरीत होगी। अगर वह मंदिर बनाएगा, तो वह परमात्मा का नहीं होगा, अपने पिता का होगा, उनका लिखवा देगा। अगर वह किसी को दान देगा, तो फिकर में होगा कि अखबारनवीस, जर्नलिस्ट आस-पास हैं या नहीं। वे खबर छापते हैं या नहीं छापते। वह दान प्रेम और करुणा नहीं होगी, वह भी अहंकार का प्रकाशन होगा। अगर वह किसी की सेवा करेगा, तो वह सेवा सेवा नहीं होगी। वह सेवा के गुणगान भी करेगा, करवाना चाहेगा। वह कहेगा, मैं सेवक हूं! वह चाहेगा कि लोग मानें कि मैंने सेवा की है। वह जो भी करेगा, उसके करने के पीछे चूंकि दिया जला हुआ नहीं है, इसलिए काम अच्छे दिखाई पड़ें भला, पाप ही होंगे। भीतर दीया जला न हो, तो जो भी हो सकता है वह पाप ही हो सकता है। पाप मेरे लिए चित्त की एक दशा है, कर्म का स्वरुप विभाजन नहीं।

और अगर भीतर का दीया जला हो, तो वह जो भी करे वह पुण्य होगा। हो सकता है ऊपर से दिखाई पड़े की यह तो पुण्य नहीं, यह कर्म तो पुण्य नहीं; लेकिन वह पुण्य ही होगा। असंभव है कि उससे पाप हो जाए। क्योंकि जिसका बोध जाग्रत है उससे पाप कैसे हो सकता है? उससे पाप नहीं हो सकता।

लेकिन हम कर्म के ताल पर चीजों को नापते-तौलते हैं। कल या परसों मैंने आपसे कहा, आचरण बहुत मूल्यवान नहीं है, अंतस मूल्यवान है। तो अंतस पाप की स्थिति में हो सकता है यदि अंधकार से भरा है; अंतस पुण्य की स्थिति में होता है अगर वह प्रकाश से भरा है। प्रकाशपूर्ण चित्त पुण्य की दशा में है; अंधकारपूर्ण चित्त पाप की दशा में है। ये कर्म के लक्षण नहीं हैं। ये कर्म के बिलकुल लक्षण नहीं हैं। कर्म का लक्षण, कर्म का लक्षण कुछ भी नहीं करता। क्योंकि व्यक्ति भीतर बिलकुल दुर्जन हो सकता है, आचरण बाहर सज्जन का कर सकता है-अनेक कारणों से।

हम इतने लोग यहां बैठे हैं, शायद सोचते होंगे की हम चोरी नहीं करते तो हम बड़ा पुण्य करते हैं। लेकिन अगर आज पता चल जाए कि हुकूमत नष्ट हो गई, चौरस्ते पर कोई पुलिस का आदमी नहीं है, अब कोई अदालत न रही, अब कोई सिपाही नहीं, अब कोई कानून नहीं। फिर पता चलेगा कितने लोग चोरी नहीं करते हैं। आप सोचते होंगे कि हम चोरी नहीं करते तो बड़ा पुण्य का काम कर रहे हैं।

चोरी न करना काफी नहीं है, चित्त में चोरी के न होने का सवाल है। आपको अगर सबको सुविधा और पूरा मौका मिल जाए, मुश्किल से कोई बचेगा जो चोरी न करे। तो यह जो अचोरी है, यह फिर पुण्य नहीं है। यह केवल भय और दहशत और डर, कमजोरी, और अनेक बातें हैं जिनकी वजह से आप चोरी नहीं कर रहे हैं। आपको मौका नहीं है, भयभीत हैं, कमजोर हैं, डरे हुए हैं; उस डर को, भय को छिपाने के लिए, अदालत से, नरक से घबड़ाए हुए हैं, उसको छिपाने के लिए आप कहते हैं, मैं तो चोरी नहीं करता, चोरी करना बहुत बुरी बात है। मैं तो चोरी करने का बुरा काम करता ही नहीं।

जो आदमी कर रहा है चोरी, उसमें आप में हो सकता है केवल सामर्थ्य का और साहस का फर्क हो। केवल सामर्थ्य और साहस का फर्क हो, वह ज्यादा साहसी हो। या हो सकता है विवेकहीन हो! इसलिए विवेकहीन में ज्यादा साहस दिखाई पड़ जाता है। क्योंकि उसे समझ में नहीं आता है कि मैं क्या कर रहा हूं, क्या परिणाम होगा! आप सब हिसाब-किताब सोचते हैं।

लेकिन अगर सारी चोरी की सुविधाएं हों, सारी चोरी की भीतर अनुकूल परिस्थिति हो, और फिर कोई आदमी चोरी न करे, तो बहुत अलग बात हो जाएगी, बहुत अलग बात हो जाएगी। अगर यह भी कोई कह दे कि चोरी करने वाले अब नरक नहीं जाएंगे बल्कि स्वर्ग जाएंगे; कोई धर्मशास्त्र यह भी कहने लगे कि अब चोरी करने वाले, अब कानून बदल गया परमात्मा का, अब वे उनको नरक नहीं भेजते, अब उनको स्वर्ग भेजते हैं; फिर भी कोई आदमी चोरी न करे। अगर यह पता चल जाए कि अब चोरी करने वालों को कष्ट नहीं दिया जाता बल्कि सम्मान मिलता है, और राष्ट्रपति जो हैं वह उनको पुरस्कार देते हैं और पदवियां देते हैं, और भगवान भी अब उनका सत्कार करने लगे हैं; फिर भी कोई चोरी न करे। अगर कोई यह कहे कि जो चोरी नहीं करेगा उसको नरक में डाला जायेगा और सड़ाया जायेगा; और फिर भी चोरी न कर सके। तब तो समझना कि उसके चित्त कि स्थिति अचोरी की हो गई है। नहीं तो उसकी चित्त की स्थिति अचोरी की नहीं है। यह सारी बात है।

अब जैसे हिंदुस्तान-पाकिस्तान का झगड़ा हुआ या हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ। जब बंटवारा हुआ, तो जो पड़ोस में थे, भले लोग थे, मंदिर जाते थे, मस्जिद जाते थे, वे एक-दूसरे कि छाती में छुरा भोंकने लगे, क्योंकि मौका मिल गया। उसके पहले मौका नहीं था तो वे मस्जिद जाते थे; अब मौका मिल गया तो छुरा भोंकने लगे। मौका नहीं मिलता था तो मंदिर में प्रार्थना करते थे; मौका मिल गया तो मकान में आग लगाने लगे।

कल जब ये मंदिर जा रहे थे तब आप सोचते हैं ये दूसरे आदमी थे? यह छुरा भोंकने वाला आदमी कल भी मौजूद था। लेकिन परिस्थिति नहीं थी इसलिए प्रकट नहीं हो रहा था, छिपा हुआ था। आज परिस्थिति प्रकट होने की हो गई है, यह प्रकट हो गया। कल मालूम हो रहा था की मंदिर जाना पुण्य है; आज पता चल रहा है कि दस हजार हिंदुओ को काट सकता है, आग लगा सकता है या मुसलमानों को आग लगा सकता है। यह वही आदमी है।

मेरे गांव में वहां हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए, तो मैंने देखा कि वे ही लोग जिनको हम समझते हैं भले हैं, जो रोज सुबह गीता उठकर पढ़ते हैं, वे इकट्ठे करने लगे कि किस तरह मुसलमानों को काटा जाए। तो मैं मानता हूं, जब वे गीता को पढ़ते थे, यही के यही आदमी थे। गीता आगे पढ़ रहे थे, भीतर वही काटना-पीटना छिपा था, मौजूद था। परिस्थिति नहीं थी। परिस्थिति सामने आ गई, एक नारा खड़ा हो गया कि हिंदू-मुसलमान में दंगा हो गया। इतनी सी बात अखबार में छप गई और यह आदमी बदल गया! यह मकान जलाने कि सोचने लगा! यह वही का वही आदमी है, मौका इसे नहीं था। अब बहाना मिल गया; अब एक मौका मिला कि अपनी हिंसा दिखा सकता है एक बहाने का नाम लेकर। एक स्लोगन-कि मैं हिंदू हूं और हिंदू धर्म खतरे में है, मुसलमान को खतम करो! अब यह बहाना मिल गया, अब यह खतरा कर सकता है।

इनको कोई भी मिल जाए-गुजराती और मराठी में झगड़ा हो जाए, हिंदी बोलने वाले और गैर-हिंदी बोलने वालों में विरोध हो जाए-तो ये आग लगाने लगेंगे, हत्या करने लगेंगे। इनका सब धर्म, इनकी सब अहिंसा, इनकी सब नैतिकता एक तरफ धरी रह जाएगी। तो इनकी नैतिकता चल रही थी वह बिलकुल झूठी थी, उसका कोई मूल्य नहीं था। इनकी जो अहिंसा चल रही थी, बिलकुल थोथी थी, उसका कोई मूल्य नहीं है। इनके भीतर ये सब चीजें छिपी थीं, अवसर कि तलाश थी।

आप दुनिया को अवसर दे दें, यह जमीन इसी वक्त नरक हो सकती है इसी क्षण। आप नरक का पूरा इंतजाम किये बैठे हैं। लेकिन मंदिर भी जाते हैं, दान भी करते हैं, ग्रंथ भी पढ़ते हैं, सदगुरु के चरणों में प्रणाम भी करते हैं। ये बातें भी है, और आप अभी नरक बना दें इसी जगह को इसी क्षण, एक सेकेंड में यह नरक हो जाए। एक नारा उठे और यह अभी नरक हो जाए। अभी जिस आदमी के पास बैठ कर आप बड़े धार्मिक बने बैठे हैं उसी की गर्दन दबा सकते हैं इसी वक्त। तो मेरा मानना यह है कि आप जब नहीं दबा रहे हैं तब भी आप दबाने कि स्थिति में तो हैं; नहीं तो एकदम से कैसे स्थिति आ जाएगी?

पाप की स्थिति होती है, पाप का कर्म नहीं होता। वह स्टेट ऑफ माइंड है। और जब तक हम उसको कर्म समझेंगे, तब तक दुनिया में बहुत क्रांति नहीं हो सकती। क्योंकि कर्म का कोई पता नहीं चलता। कर्म तो मौके-मौके पर प्रकट होते हैं और अच्छे-अच्छे बहाने लेकर प्रकट हो जाते हैं। अच्छे-अच्छे बहाने ले लेते हैं और प्रकट हो जाते हैं। इसीलिए यह संभव हुआ है कि दुनिया में कोई भी शैतान आदमी, कोई भी हुकूमत, कोई भी पोलिटीशियन, कोई भी राजनीतिज्ञ किसी भी क्षण दुनिया को युद्ध में डाल सकता है, किसी भी क्षण! क्योंकि सारे लोग तैयार हैं पाप करने को, बिलकुल तैयार हैं। मौका नहीं है उनको। किसी भी क्षण, कोई भी बहाना-डेमोक्रेसी का, कम्युनिज्म का, भारत का, पाकिस्तान का, हिंदू का, मुसलमान का-कोई भी नारा, जरा सी आग पकड़ाने कि जरुरत है और आप दुनिया को एकदम पाप से भर सकते हैं। फिर लाखों को काट सकते हैं और मजा लेंगे।

ये वे ही लोग जो पानी छान कर पीते हैं, यह खबर सुन कर प्रसन्न होते हैं कि पाकिस्तान का फलां गांव बर्बाद कर दिया गया। या हिंदुस्तान का फलां गांव बर्बाद कर दिया गया; वही आदमी जो रोज नमाज पढ़ता है, वह प्रसन्न होता है कि अच्छा हुआ।

मैं यह समझ नहीं सकता कि यह आदमी जो पानी छान कर पीता था, अखबार में पढ़ता है, रात को खाना नहीं खाता था, अखबार में पढ़ता है कि इतने पाकिस्तानी मर गए, तो सोचता है बहुत अच्छा हुआ। यह आदमी अहिंसक है? इसका पानी छान कर पीना धोखा है, बेईमानी है। इसका रात को न खाना सब झूठी बकवास है। इसका कोई मतलब और मूल्य नहीं है। इसका स्टेट ऑफ माइंड तो पाप का है। यह कर्म-वर्म कुछ भी करे, इसकी चित्त कि दशा तो पापपूर्ण है।

इसलिए दुनिया को कभी किसी भी भूकंप में डाला जा सकता है, किसी भी उपद्रव में डाला जा सकता है। लोगों के काम तो बड़े अच्छे मालूम होते हैं, लेकिन चित्त कि दशा जरा ही, स्किनडीप, जरा सी चमड़ी उघाड़ो, भीतर पाप मौजूद है। और काम बड़े अच्छे-अच्छे कर रहे हैं।

टॉल्सटॉय ने लिखा है कि मैं एक दिन सुबह-सुबह चर्च में गया। अंधेरा था, सर्दी के दिन थे बर्फ पड़ती थी, कोई नहीं था चर्च में, मैं गया। एक और आदमी था, वह कन्फेशन कर रहा था भगवान के सामने। उसे पता नहीं की कोई दूसरा भी अंधेरे में मौजूद है, नहीं तो कन्फेशन करता ही क्यों? वह वहां कह रहा था कि हे परमपिता, मैं बड़ा बुरा आदमी हूं, मेरे मन में बड़े पाप उठते हैं, तू मुझे क्षमा कर! चोरी का भाव भी आता है, पर-स्त्री-गमन का भाव भी आता है, दूसरे के धन को हड़प लेने की वृति भी पैदा होती है, तू क्षमा कर! उसे पता नहीं था की यहां कोई और आदमी भी खड़ा है। वह चर्च से बाहर निकला, टॉल्सटॉय उसके पीछे हो लिया। जब बीच बाजार में पहुंचे, सुबह हो गई थी, लोग आ-जा रहे थे, उसने चिल्ला कर कहा कि ओ पापी, चोर, खड़ा रह!

वह आदमी बोला, अरे, कौन कहता है मुझसे पापी और चोर?

टॉल्सटॉय ने कहा कि मैं चर्च में मौजूद था, मैंने सुन लिया है।

उस आदमी ने कहा, अगर दुबारा मुंह से निकला तो अदालत में अपमान का मुकदमा चलाऊंगा। वह बड़ा प्रतिष्ठित आदमी था गांव का। वह मैंने भगवान के सामने कहा था, तुम्हारे सामने नहीं कहा था।

टॉल्सटॉय ने कहा, मैंने तो यह सोचा कि तूने मान लिया है कि तू पापी है, चोर है। लेकिन तू मानने को राजी नहीं। अदालत में मुकदमा चलाएगा?

यह स्थिति है हमारे चित्त की। भीतर तो वह छिपा है और बाहर हम अदालत में मुकदमा चलाएंगे अगर कोई हमसे चोर कह दे, हम शिकायत करेंगे कि यह क्या आपने हमसे कह दिया! तो हमारा कर्म हमारा ऊपर का आवरण मूल्य नहीं रखता। मूल्य तो अंतस रखता है। उस अंतस की क्रांति की बात है।

तो मैं मानता हूं, पाप-पुण्य कर्मो में नहीं होते, पाप-पुण्य होते हैं चित्त की दशाओं में। एक आदमी की चित्त की दशा पाप की हो, अंधकार की हो, तो वह कुछ भी करे, कुछ भी करे, कितना भी पानी छाने, कितनी ही बार छाने, उसकी हिंसा नहीं मिटेगी। और कितना ही रात को खाए, न खाए, कितना ही उपवास करे, न करे, कितनी ही पूजा करे, कितनी ही प्रार्थना करे-कुछ भी करे, लाख करे-अगर भीतर चित्त की दशा अंधकारपूर्ण है, उसका सब करना पापपूर्ण होगा। उसके भीतर पाप की स्थिति बनी रहेगी। वह जा नहीं सकती। वह किसी स्थिति में नहीं जा सकती।
-ओशो
पुस्तकः जीवन रहस्य
प्रवचन नं 4 से संकलित