अभिनय की कला


प्यारे ओशो! क्या आपके सुनहरे भविष्य में बोधि को उपलब्ध अभिनेताओं की भी वहां एक टोली होगी? क्या किसी मनुष्य के लिए यह सम्भव है--जो बोधि को उपलब्ध होकर भी एक अभिनेता बना रहे?

बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति एक अभिनेता ही है। वह इससे अन्यथा हो ही नहीं सकता। वह जानता है कि वह शरीर नहीं है, फिर भी वह इस तरह व्यवहार करता है, जैसे मानो वह शरीर ही हो, वह जानता है कि वह मन नहीं है, फिर भी वह इस तरह उत्तर देता है, जैसे वह मन ही हो। वह जानता है कि वह न तो एक छोटा बच्चा है, न ही एक युवा और न एक वृद्ध व्यक्ति ही--न वह पुरुष है और न स्त्री, फिर भी वह इस तरह व्यवहार करता है, जैसे कि वह वही है।

अभिनय की पूरी कला ही जैसे मानो, की तरह व्यवहार करने की है। साधारण अभिनेता उथला होता है, वह अपने ऊपर किसी चरित्र का पार्ट आरोपित करता है, और तब उसके अनुसार अभिनय करता है, लेकिन एक बुद्ध अपने आप को इस स्थिति में पाता है कि उसे अभिनेता बनने से दूसरा बनकर रहना, भ्रम और अंधकार में एक अंधे बनकर रहने जैसा लगता है। वह अपने लिए कोई रोल लेता नहीं, वह अपने आप को पहले ही से जीवन के नाटक में पाता है--भली-भांति अपने को पहचानता हुआ कि वह, वह नहीं है, जो कुछ कर रहा है, वह, वह नहीं है, जो बोल रहा है और वह, वह नहीं है--जैसा दिखाई दे रहा है।

और वह जो कुछ है, वह अभिव्यक्ति के पार है। वह जो है, केवल उसे जानता है। कोई भी उसे सुनने वाला नहीं हो सकता। अपने अस्तित्व के अंदर गहराई में वही देखने वाला है और वही दृश्य है और पूरा प्रेक्षागार खाली है, लेकिन वह संसार में बने रहना जारी रखता है यही उसकी करुणा है, अन्यथा बुद्धत्व को उपलब्ध होने के बाद उसे अपने लिए सांस लेने की भी जरूरत नहीं।

गौतम बुद्ध अपने शिष्यों से कहा करते थे--बुद्धत्व को उपलब्ध होने से पूर्व करुणा के भाव से भर जाओ। एक दिन सारिपुत्र ने पूछा--आखिर इस बात के लिए इतना आग्रह क्यों? क्योंकि हमने तो आपको कई बार यह कहते हुए सुना है कि बुद्धत्व करुणा को अपने साथ लाता है, इसलिए बुद्धत्व से पूर्व करुणा के भाव से भरने की क्या आवश्यकता है? यह बात तो विरोधाभासी लगती है।

गौतम बुद्ध ने कहा--‘यह बात विरोधाभासी लगती जरूरत है लेकिन इसके कारण भिन्न हैं। बुद्धत्व घटित होने के बाद जो करुणा आती है...तुम उसमें दूसरे को सहभागी बनाने में समर्थ न हो सकोगे, यदि तुमने बुद्धत्व घटित होने से पूर्व उसे बांटने का अभ्यास न किया, यदि तुमने अपने आपको अनुशासित न किया कि तुम उन लोगों के लिए जीवित रहो, जो अभी भी अंधेरी तंग गलियों में अपना मार्ग खोज रहे हैं।’

फलस्वरूप यहां दो तरह के बुद्ध होते हैं: पहली तरह के अर्हत कहे जाते हैं और दूसरी तरह के बोधिसत्व होते हैं। अर्हत वह हैं, जिन्होंने अपने आपको पूर्व में करुणा की कला के लिए अनुशासित नहीं किया था, इसलिए बुद्धत्व घटते ही उनका कार्य समाप्त हो गया। उन्हें जीवन सरिता के किनारे पर लंगर डालकर अब रुकने की कोई जरूरत नहीं, उनकी नाव दूसरे किनारे पर जाने के लिए तैयार है।

बोधिसत्व को भी बुद्धत्व का वैसा ही अनुभव होता है, लेकिन उन्होंने पहले ही से अपने आपको करुणा को बांटने के लिए अनुशासित किया होता है, इसलिए जब उन्हें बुद्धत्व घटता है, उन्हें स्वयं को जानने का, अखण्ड प्रेम, अखण्ड सत्य, अखण्ड सौंदर्य, अखण्ड आनंद का अनुभव होता है--तो चूंकि उन्होंने करुणा बांटने का पहले ही से अभ्यास किया होता है, इसलिए वे केवल उस करुणा में दूसरों को सहभागी बनाने के लिए ही, उस किनारे पर जितनी अधिक देर तक रुक सकें, रुके रहते हैं, यद्यपि पार जाने के लिए उनकी भी नाव तैयार खड़ी रहती है।
जहां तक स्वयं उसका अपना संबंध है, वह पूर्णता को प्राप्त हो चुका है, लेकिन दूसरों के बारे में क्या स्थिति है? वे लाखों-करोड़ों हैं और वह उसी तरह दुःख और पीड़ाएं झेल रहे हैं, जैसे उसने स्वयं भुगती थीं। उन लोगों के कष्ट अपार हैं, सदियों से उनका अंधापन वैसा ही बना हुआ है, लेकिन अब वह जानता है कि यह अंधापन दूर हो सकता है, अब वह जानता है कि वह उन अंधे लोगों को सहायता का हाथ आगे बढ़ाकर उबार सकता है और वे स्वयं अपने में झांककर देख सकें, इसलिए उनकी आंखें खोल सकता है।

उसकी उपस्थिति दूसरों में भी उसी अनुभव को प्राप्त करने की ललक जागृत कर सकती है। उसकी उपस्थिति की छूत दूसरों को भी लगती है। प्रश्न केवल यह है कि किनारे पर रुकना उसके लिए बहुत कठिन है, क्योंकि नाव का कप्तान उसे पुकारे जा रहा है--तुम्हारा समय पूरा हो चुका और मुझे नौका को उस दूसरे किनारे पर ले जाना है। तुम आकर नाव में बैठो।

गौतम बुद्ध कहा करते थे--एक अर्हत होकर नहीं मरना है--यह है एक निर्दोष मृत्यु, तुम अपने शाश्वत घर में वापस लौट आए हो। एक बोधिसत्व की तरह मरो--केवल इतना ही यथेष्ट नहीं है कि तुम अपने शाश्वत घर वापस लौट आए हो, लेकिन तुम्हें हजारों को इस अग्नि से गुजारना है।

जब उनकी मृत्यु हुई, तो उनकी अपनी ही कहानी अत्यधिक सुंदर है। यह है बस एक कहानी ही, लेकिन इसमें जो तुम्हारे पास होता है, उसमें दूसरों को सहभागी बनाने की एक सारभूत सीख है। जब तुम्हारे पास ‘वह’ होता है, तब देखना वह केवल तुम्हारी पकड़ ही न बन जाए, उसके प्रति सजग बने रहना कि उसे इकट्ठा कर तुम उसे अपने तक सीमित न रखो। उस पर सभी का अधिकार होने दो।
किनारे पर लंगर डाले हुए नाव बयालीस वर्ष तक उनकी प्रतीक्षा करती रही और जब उनकी मृत्यु हुई तो कहानी बताती है कि वे स्वर्ग के द्वार पर पहुंचे। इन द्वारों को बहुत कम ही खोला जाता है, क्योंकि सदियों में कभी कोई ऐसा आता है--ऐसी आत्माएं कोई रोज-रोज नहीं आतीं। जब भी कोई ऐसा इन द्वारों तक आता है तो पूरे स्वर्ग में उत्सव-आनंद मनाए जाते हैं, कि एक और चेतना में खिलावट हुई और अस्तित्व पहले से कहीं और अधिक समृद्ध हुआ।

दूसरे बुद्ध, जो पहले स्वर्ग में प्रविष्ट हो चुके थे...क्योंकि बौद्ध धर्म में, वहां कोई परमात्मा नहीं माना गया है, बल्कि बोधि को उपलब्ध लोग ही देवता कहे जाते हैं। वे सभी स्वर्ग के खुले द्वार पर नाचते-गाते, वे गौतम बुद्ध का स्वागत करना चाहते थे, लेकिन उनके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा कि बुद्ध तो स्वर्ग के द्वार पर पीठ फेरे हुए खड़े हुए हैं और उनका चेहरा अब भी उसी किनारे की ओर देख रहा है, जिसे वे पीछे छोड़ आए हैं।

उन्होंने कहा--‘यह बड़ी अजीब बात है। आप किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं?

ऐसा बताया जाता है, उन्होंने उत्तर दिया--‘मेरा हृदय इतना छोटा नहीं है। मैं उन सभी की प्रतीक्षा कर रहा हूं, जिन्हें मैं अपने पीछे छोड़ आया हूं और जो अभी रास्ते पर संघर्ष कर रहे हैं। वे सभी मेरे सहयात्री हैं। आप लोग द्वार बंद कर सकते हैं और तब तक आपको स्वर्ग में मेरे प्रवेश पर होने वाले उत्सव के लिए थोड़ी प्रतीक्षा करनी होगी। क्योंकि मैंने यह निश्चय कर लिया है कि मैं इस द्वार में प्रवेश करने वाला अंतिम व्यक्ति होऊंगा। जब प्रत्येक व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होकर इस द्वार में प्रविष्ट हो जाएगा, जब वहां कोई भी व्यक्ति बाहर बचेगा नहीं, केवल तभी प्रवेश करने के लिए मेरा समय आएगा।

यह पूरी तरह से तर्कपूर्ण भी लगता है कि प्रथम मनुष्य को ही अंतिम होना चाहिए। बौद्ध देशों में यह कहानी अब भी कही जाती है कि बुद्ध अभी भी स्वर्ग के द्वार पर खड़े हुए लोगों को वहां आने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं और उनके आने की आशा में वहां खड़े प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनकी करुणा इतनी विराट है कि वे उनके स्वयं तक सीमित रह ही नहीं सकती।
यह कहानी तो एक कहानी है--यह एक वास्तविक तथ्य नहीं हो सकता, फिर यह तुम्हारे हाथों में नहीं रह जाता। एक बार तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाओ, तुम्हें सार्वभौम जीवन के स्रोत में प्रवेश करना ही होगा। यह प्रश्न तुम्हारे चुनाव अथवा निर्णय करने का नहीं होता।
लेकिन कहानी का अर्थ इतना ही है कि वे अपनी मृत्यु के बाद भी प्रयास किए जा रहे हैं।

कहानी इसी को बताती है कि जो कुछ उन्होंने इस संसार से जाने के अंतिम दिन कहा था--कि वह तुम सभी की वहां प्रतीक्षा करेंगे, वह वहां अब और अधिक नहीं रुक सकते और उन्होंने पहले ही से निर्धारित समय से अधिक प्रतीक्षा की है, उन्हें पहले ही चले जाना चाहिए था, लेकिन तुम लोगों के दुःख और पीड़ाएं देखकर उन्होंने किसी तरह अपने को रोके रखा, लेकिन वह अधिक-से-अधिक असंभव होने लगा।

और अनिच्छुक होते हुए भी उन्हें यह किनारा छोड़ना ही पड़ेगा, लेकिन वे दूसरे किनारे पर तुम्हारी प्रतीक्षा करेंगे और स्वर्ग के द्वार में प्रवेश नहीं करेंगे--यह उनका वायदा है, इसलिए यह भूलना मत कि तुम्हारे लिए ही मैं वहां सदियों तक खड़ा रहूंगा, लेकिन शीघ्रता करो, मुझे अब और लम्बी प्रतीक्षा मत कराओ।

बुद्धत्व को उपलब्ध लोगों को अभिनेता बनने की आवश्यकता नहीं है, अपने बुद्धत्व से ही वे अपने को अभिनेता ही पाते हैं और कोई दूसरा विकल्प वहां है ही नहीं। उन्हें भोजन भी करना होगा, यद्यपि वह जानते हैं कि उनका अस्तित्व कुछ भी नहीं खोता, उन्हें सांस भी लेना होगा, यद्यपि वे जानते हैं कि सिर्फ शरीर ही श्वास लेता है और वे शरीर नहीं है। वे जानते हैं कि यह शरीर तो मरने जा ही रहा है फिर भी वे उसकी पूरी देखभाल करते हैं क्योंकि वे अपने शरीर के दुश्मन या विरोधी नहीं हैं। अपने शरीर के प्रति भी उनकी उतनी करुणा है, जितनी तुम सभी के लिए।

लेकिन यह सभी कुछ एक तरह से अभिनय ही है, क्योंकि अपने अस्तित्व के किसी गहरे भाग में वह यह भली-भांति जानते हैं कि यह सब कुछ वह इसी क्षण छोड़ सकते हैं और उसे और ढोए जाने की अब और आवश्यकता नहीं। वे यह बोझा तुम्हारे लिए ही ढोए जा रहे हैं...केवल इस आशा के साथ, शायद उनकी बात कोई सुन ले, शायद कोई अपनी आंखें खोलकर उनकी आंखों में झांक सके, शायद उनकी उपस्थिति से किसी को कुछ छू जाए और उसका जीवन एक नई यात्रा पर निकल जाए--वह यात्रा जो तुम्हें स्वयं तुम्हारे तक ले जाती है।
-ओशो
भविष्य की आधारशिलाएं
प्रवचन नं. 7 से संकलित