कुतूहल, जिज्ञासा और मुमुक्षा




मुमुक्षा गुरु को खोजता है; जिज्ञासु शास्त्र को खोजता है; कुतूहली किसी से भी पूछ लेता है

ये जो वचन इस समाधि शिविर में हम कबीर के लेने जा रहे हैं, उनका शीर्षक है: ‘सुनो भई साधो।’ और कबीर अपने हर वचन में कहीं न कहीं साधु को ही संबोधित करते हैं। इन संबोधन को थोड़ा समझ लें, फिर हम उनके वचनों में उतरने की कोशिश करें।

मनुष्य तीन तरह से पूछ सकता है। एक कुतूहल होता है — बच्चों-जैसा। पूछने के लिए पूछ लिया, कोई जरूरत न थी, कोई प्यास भी न थी, कोई प्रयोजन भी न था। ऐसे ही मन की खुजली थी। उठ गया प्रश्न, पूछ लिया। उत्तर मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक, दुबारा पूछने का भी खयाल नहीं आता — छोटे बच्चे — जैसा पूछते हैं। रास्ते से गुजर रहे हैं, पूछते हैं, यह क्या है? वृक्ष क्या है? वृक्ष हरे क्यों हैं? सूरज सुबह क्यों निकलता है, रात क्यों नहीं निकलता? अगर तुमने उत्तर दिया तो कोई उत्तर सुनने के लिए उनकी प्रतीक्षा नहीं है। जब तुम उत्तर दे रहे हो, तब तक वे दूसरा प्रश्न पूछने चले गये। तुम उत्तर न भी दो, तो भी कुछ जोर न डालेंगे कि उत्तर दो। तुम दो या न दो, यह असंगत है, प्रसंग के बाहर है। बच्चा पूछने के लिए पूछ रहा है। बच्चा केवल बुद्धि का अभ्यास कर रहा है; जैसा पहली दफे जब बच्चा चलता है, तो बार-बार चलने की कोशिश करता है--कहीं पहुंचने के लिए नहीं, क्योंकि अभी बच्चे की क्या मंजिल है! अभी तो चलने में मजा लेता है। अभी तो पैर चला लेता है, इससे ही बड़ा प्रसन्न होता है; नाचता है कि मैं भी चलने लगा। अभी चलने का कोई संबंध मंजिल से नहीं है, अभी चलना अपने-आप में ही अभ्यास है। ऐसा ही बच्चा जब बोलने लगता है, तो सिर्फ बोलने के लिए बोलता है। अभ्यास करता है। उसके बोलने में कोई अर्थ नहीं है। पूछना जब सीख लेता है, तो पूछने के लिए पूछता है। पूछने में कोई प्रश्न नहीं है, सिर्फ कुतूहल है।

तो एक तो उस तरह के लोग हैं, वे बचकाने हैं जो परमात्मा के संबंध में भी कुतूहल से पूछते हैं। मिले उत्तर, ठीक; न मिले उत्तर, ठीक। और कोई भी उत्तर मिले, उनके जीवन में उस उत्तर से कोई भी फर्क न होगा। तुम ईश्वर को मानते रहो, तो तुम वैसे ही जिओगे; तुम ईश्वर को न मानो तो भी तुम वैसे ही जिओगे।

यह बड़ी हैरानी की बात है कि नास्तिक और आस्तिक के जीवन में कोई फर्क नहीं होता। तुम जीवन को देख के बता सकते हो कि यह आदमी आस्तिक है या नास्तिक! नहीं, तुम्हें पूछना पड़ता है कि क्या आप आस्तिक हैं या नास्तिक! आस्तिक और नास्तिक के व्यवहार में रत्तीभर का कोई फर्क नहीं होता। वैसा ही बेईमान यह, वैसा ही दूसरा। वे सब चचेरे-मौसेरे भाई हैं। कोई अंतर नहीं है। एक ईश्वर को मानता है, एक ईश्वर को नहीं मानता है। इतनी बड़ी मान्यता और जीवन में रत्ती भर भी छाया नहीं लाती! कहीं कोई रेखा नहीं खिंचती! दुकानदारी में वह उतना ही बेईमान है जितना दूसरा; बोलने में उतना ही झूठा है जितना दूसरा। न इसका भरोसा किया जा सकता है, न उसका। क्या जीवन में कोई अंतर नहीं आता आस्था से? तो आस्था दो कौड़ी की है। तो आस्था कुतूहल से पैदा हुई होगी; वह बचकानी है। ऐसी बचकानी आस्था को छोड़ देना चाहिए।

सबसे सतह पर कुतूहल है।

दूसरे, थोड़ी गहराई बढ़े, तो जिज्ञासा पैदा होती है। जिज्ञासा सिर्फ पूछने के लिए नहीं है--उत्तर की तलाश है; लेकिन तलाश बौद्धिक है, आत्मिक नहीं है। तलाश विचार की है, जीवन की नहीं है। जिज्ञासा से भरा हुआ आदमी, निश्चित ही उत्सुक है, और चाहता है कि उत्तर मिले; लेकिन उत्तर बुद्धि में संजो लिया जायेगा, स्मृति का अंग बनेगा, जानकारी बढ़ेगी, ज्ञान बढ़ेगा--आचरण नहीं, जीवन नहीं। उस आदमी को बदलेगा नहीं। वह आदमी वैसा ही रहेगा--ज्यादा जानकार हो जाएगा।

जिज्ञासा पैदा होती है बुद्धि से।

फिर एक तीसरा तल है, जिसको मुमुक्षा कहा है। मुमुक्षा का अर्थ है: जिज्ञासा सिर्फ बुद्धि की नहीं है, जीवन की है। इसलिए नहीं पूछ रहे हैं कि थोड़ा और जान लें; इसलिए पूछ रहे हैं कि जीवन दांव पर लगा है। इसलिए पूछ रहे हैं कि उत्तर पर निर्भर होगा कि हम कहां जाएं, क्या करें, कैसे जियें। एक प्यासा आदमी पूछता है, पानी कहां है? यह कोई जिज्ञासा नहीं है। मरुस्थल में तुम पड़े हो, प्यास जगती है और तुम पूछते हो, पानी कहां है? उस क्षण तुम्हारा रोआं-रोआं पूछता है, बुद्धि नहीं पूछती। उस क्षण तुम यह नहीं जानना चाहते कि पानी की वैज्ञानिक परिभाषा क्या है। उस समय कोई तुमसे कहे कि पानी-पानी क्या लगा रखा है। ‘एच टू ओ’। विज्ञान का उपयोग करो, फार्मूला जाहिर है कि उद्जन और ऑक्सीजन से मिलकर पानी बनता है दो मात्रा उद्जन, एक मात्रा ऑक्सीजन-‘एच टू ओ।’ लेकिन जो आदमी प्यासा है, उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि पानी कैसे बनता है, यह सवाल नहीं है। पानी क्या है, यह भी सवाल नहीं है। यह कोई जिज्ञासा नहीं है पानी के संबंध में जानकारी बढ़ाने के लिए। यहां जीवन दांव पर लगा है; अगर पानी नहीं मिलता घड़ीभर और, तो मृत्यु होगी। पानी पर ही जीवन निर्भर है। मृत्यु और जीवन का सवाल है।

मुमुक्षा गुरु को खोजता है; जिज्ञासु शास्त्र को खोजता है; कुतूहली किसी से भी पूछ लेता है।

कबीर उसको साधु कहते हैं, जो मुमुक्षु है। इसलिए उनका हर वचन इस बात को ध्यान में रख कर कहा गया है: ‘सुनो भाई साधो!’ साधु का मतलब है जो साधना के लिए उत्सुक है — जो साधक है। साधु का अर्थ है: जो अपने को बदलने के लिए, शुभ करने के लिए, सत्य करने के लिए आतुर है — जो साधु होने को उत्सुक है।

साधु शब्द बड़ा अद्भुत है। विकृत हो गया बहुत उपयाग से। साधु का अर्थ है: सीधा, सादा, सरल, सहज। साधु शब्द की बड़ी भाव-भंगिमाएं हैं। और सीधा, सादा, सरल, सहज-यही साधना है।

इसलिए कबीर कहते हैं: ‘साधो, सहज समाधि भली!’ सहज हो रहो, सरल हो जाओ।
-ओशो
सुनो भई साधो
प्रवचन नं. 1 से संकलित
(पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. पर भी उपलब्ध है)