वास्तविक धर्म क्या है?


सच्ची धार्मिकता को मसीहाओं, उद्धारकों, पवित्र-ग्रंथों, पादरियों, पोपों और चर्चों की कोई आवश्यकता नही हैं। क्योंकि धार्मिकता तुम्हारे हृदय की खिलावट है। वह तो स्वयं की आत्मा के, अपनी ही सत्ता के केन्द्र बिंदु तक पहुंचने का नाम है। और जिस क्षण तुम अपने अस्तित्व के ठीक केंद्र पर पहुंच जाते हो, उस क्षण सौंदर्य का, आनंद का, शांति का और आलोक का विस्फोट होता है। तुम एक सर्वथा भिन्न व्यक्ति होने लगते हो। तुम्हारे जीवन में जो अंधेरा था वह तिरोहित हो जाता है, और जो भी गलत था वह विदा हो जाता है। फिर तुम जो भी करते हो वह परम सजगता और पूर्ण समग्रता के साथ होता है।

मैं तो बस एक ही पुण्य जानता हूं और वह हैःसजगता। काश पूरी धरती पर यदि धार्मिकता फैल सके तो सारे धर्म विदा हो जाएंगे! और यह मनुष्य जाति के लिए एक महान वरदान होगा, जब मनुष्य केवल मनुष्य होगा-न ईसाई, न मुसलमान, न हिंदू। ये विभाजन, ये सीमाएं, ये भेद पूरे इतिहास में हजारों-हजारों युद्धों के कारण बने हैं। यदि तुम पीछे लौटकर मनुष्य के अतीत पर नजर डालो तो तुम्हें यह कहना ही पड़ेगा कि अतीत में हम विक्षिप्त ढंग से जीते रहे हैं। परमात्मा के नाम पर, मंदिर-मस्जिद और गिरजों के नाम पर, सिद्धांतों के नाम पर, जिनका कोई प्रमाण भी नहीं है, उन सबके नाम पर आदमी आदमी का खून बहाता रहा है। इस संसार में अभी तक वास्तविक धर्म घटित ही नहीं हुआ है।

जब तक धार्मिकता की हवा पैदा नहीं होती और मनुष्यता उस हवा में, उस वातावरण में नहीं डूब जाती, तब तक वास्तविक धर्म पैदा नहीं हो सकता। लेकिन मेरा जोर उसे धार्मिकता कहने पर है, ताकि वह संगठित न हो पाए, संप्रदाय न बन जाए। तुम प्रेम को संगठित नहीं कर सकते। क्या तुमने कभी प्रेम के मंदिर, प्रेम की मस्जिदें और प्रेम के गिरजे सुने हैं? प्रेम है दो व्यक्तियों के बीच घटने वाली एक व्यक्तिगत घटना। और धार्मिकता है एक व्यक्ति की समग्र अस्तित्व के प्रति, समष्टि के साथ होने वाली और महत प्रेम की घटना।

जब कोई व्यक्ति संपूर्ण अस्तित्व के साथ-इन वृक्षों, पर्वतों, तारों, सरिताओं और सागरों के प्रेम में पड़ जाता है, तब पहली दफे वह जानता है कि प्रार्थना क्या है? वह शब्दातीत है...हृदय में एक गहन नृत्य सा उमड़ता है और कोई संगीत सा उठता है जिसमें स्वर नहीं हैं, कोई ध्वनि नहीं है। वह पहली बार उस शाश्वत का, उस अमृत का अनुभव करता है जो हर परिवर्तन में हमेशा मौजूद रहता है, और जो जीवन को सदा ताजा और फिर-फिर नवीन करता जाता है। कोई भी व्यक्ति जो हिंदू, मुस्लिम, जैन, ईसाई और बौद्ध इन सारे मतों को छोड़कर प्रमाणिक रूप से धार्मिक हो जाता है, वह पहली बार अपनी निजता की घोषणा करता है। धार्मिकता एक व्यक्तिगत और निजी मामला है। वह व्यक्ति के द्वारा समष्टि को प्रेषित प्रेम-संदेश है।

धार्मिकता की हवा फैले तो ही दुनिया में शांति हो सकती है, और सारी नासमझियां व भ्रांतियां मिट सकती हैं। अन्यथा ये समस्त धर्म मनुष्य का शोषण करने वाले परजीवी रहे हैं। ये धर्म लोगों को गुलाम बनाते रहे, उन्हें विश्वास करने के लिए विवश करते रहे-और स्मरण रहे सभी विश्वास बुद्धिमता के दुश्मन हैं। वे लोगों को ऐसे-ऐसे शब्दों में प्रार्थना करने को बाध्य करते रहे, जिनमें कोई भाव नहीं, अर्थ नहीं; क्योंकि वे शब्द तुम्हारे हृदय की गहराइयों से नहीं, वरन स्मृति से आते हैं।

लियो टालस्टाय की एक कथा बहुत प्यारी है, कई बार मैंने तुमसे कही है। यह कहानी तीन अनपढ़ और असंस्कृत लोगों के बारें में, जो एक बड़ी झील के बीचोंबीच स्थित एक छोटे से द्वीप पर निवास करते थे। लाखों लोग उनके पास आते और उन्हें पूजते थे। यह रूस की क्रांति से पूर्व की बात है। उनकी प्रसिद्धि की बात सुनकर पुराने रूस का आर्च बिशप बड़ी चिंता में पड़ गया। चर्च खाली पड़े थे; आर्च बिशप के पास कोई आता नहीं था। और खयाल रहे, रूसी चर्च व्यवस्था विश्व की सबसे प्राचीन चर्च व्यवस्था है-अत्यंत रूढ़िवादी; और लोग उन तीन ग्रामीणों के सत्संग को जा रहे थे, जो परंपरानुसार अभी ईसाइयत में दीक्षित तक नहीं हुए थे! फिर वे संत कैसे हो गए?

भारत में संत होना आसान है, पर ईसाइयत में यह इतना सरल मामला नहीं है। संत के लिए अंग्रेजी में शब्द है ‘सेंट’ वह ग्रीक भाषा के मूल स्रोत ‘सेंक्टस’ से आता है। उसका मतलब है ‘सेंक्शन’ अर्थात् जब तक पोप अथवा आर्च बिशप किसी को संत की मान्यता नहीं देते, प्रमाणित नहीं करते, जब तक उसे संत की तरह स्वीकृति नहीं मिल सकती। लेकिन लोग खबर लाते कि वे तीनों इतने संत जैसे हैं...।

आखिर एक दिन गुस्से में आकर आर्च बिशप ने मोटरबोट ली और उन तीनों से मिलने पहुंचा। वे एक पेड़ के नीचे बैठे थे। उसने उन्हें देखा तो भरोसा न आया कि ये किस प्रकार के संत हैं? सबसे पहले पहले अपना परिचय देते हुए उसने घोषणा की कि ‘‘मैं आर्च बिशप हूं।’’ उन तीनों ने उसके चरण स्पर्श किए। अब आर्च बिशप ने थोड़ी राहत की सांस ली, आश्वस्त हुआ कि ये तो बिल्कुल गंवार और मूढ़ लगते हैं, और अभी बात इतनी दूर नहीं गई है कि हाथ से बाहर हो जाए, कि नियंत्रण न किया जा सके।

उसने पूछा, ‘‘क्या तुम संत हो?’’ वे एक-दूसरे की तरफ ताकने लगे और बोले, ‘‘क्षमा करें, हमने तो कभी यह शब्द ही नहीं सुना। हम लोग तो अशिक्षित ग्रामीण हैं। हमसे ग्रीक भाषा में न बोलें, कृपया सीधे-सीधे कहें कि आपका क्या अभिप्राय है?’’

‘‘हे भगवान! आर्च बिशप ने कहा, ‘‘तुम्हें यह तक मालूम नहीं कि संत का क्या अर्थ होता है? अच्छा, चलो यह बताओ कि तुम लोगों को ईसाई प्रार्थना भी आती है या नहीं?’’ वे फिर एक-दूसरे को देखने लगे और एक-दूसरे को कोहनी मारेने लगे। जैसे इशारे से कह रहे हों कि ‘तू बता’, ‘तू जवाब दे’। यह देख आर्च बिशप की हिम्मत और बढ़ गई। वह अकड़कर बोला, ‘‘मुझे बताओ कि तुम्हारी प्रार्थना कैसी है?’’ उन्होंने निवेदन किया कि ‘‘हम बिलकुल अनपढ़ हैं। हम ईसाई प्रार्थना तो नहीं जानते मगर हमने अपनी खुद की एक छोटी सी प्रार्थना गढ़ ली है।’’

यह सुनकर आर्च बिशप को हंसी आ गई। उसने कहा, ‘‘कोई अपनी प्रार्थना भी बनाता है क्या! अरे प्रार्थना तो चर्च के द्वारा बताई हुई होनी चाहिए, चर्च से अधिकृत होनी चाहिए। फिर भी जरा सा सुनुं तो आखिर तुम्हारी प्रार्थना है कैसी।

वे बड़ी शर्मिदगी और घबराहट महसूस करने लगे। अंततः एक ने कहा, ‘‘चूंकि आप पूछ रहे हैं, अतः हम इंकार भी नहीं कर सकते। पर हमारी प्रार्थना, कुछ खास प्रार्थना जैसी नहीं है...हमने सुना है कि परमात्मा के तीन रूप हैं-परम पिता ईश्वर, पवित्र आत्मा, और ईश्वरपुत्र ईसा मसीह। सो हमने अपनी खुद की प्रार्थना बनाने की सोची। बड़ी सरल सी प्रार्थना है हमारीः तुम तीन हो, हम तीन हैं, हम पर कृपा करो।’’

आर्च बिशप बोला, मूर्खो, तुम सोचते हो यह प्रार्थना है! मैं तुम्हें चर्च के द्वारा मान्यता प्राप्त प्रार्थना सिखाऊंगा।’’ लेकिन प्रार्थना अत्यंत लंबी और क्लिष्ट थी। उसे सुनकर वे तीनों एक साथ बोल पड़े, ‘‘इतनी लंबी प्रार्थना हमें याद न रहेगी। हम अपनी पूरी कोशिश करेंगे, लेकिन कृपाकर इसे एक बार और दोहरा दीजिए।’’ फिर उन्होंने उसे तीसरी दफा भी दोहराने की विनती की, क्योंकि प्रार्थना वास्तव में कठिन थी। ‘‘यदि हम शुरुआत याद रखते हैं तो अंतिम हिस्सा भूल जाते हैं। अगर अंत स्मरण हो जाता है तो प्रारंभ भूल जाते हैं। और यदि किसी तरह आदि और अंत दोनों कंठस्थ कर लेते हैं तो मध्य विस्मृत हो जाता है।’’ आर्च बिशप ने कहा, ‘‘तुम्हें शिक्षा की आवश्यकता है। वे बोले, ‘‘हम लिख नहीं सकते, वरना हम आपकी प्रार्थना लिख लेते। हम अपनी तरफ से भरसक प्रयत्न करेंगे, बस केवल एक बार और बता दीजिए।’’

आर्च बिशप अत्यंत प्रसन्न था कि उसने तीन मूर्खों को जो लाखों लोगों द्वारा पूजे जा रहे थे, उन्हें परिवर्तित कर लिया, ईसाई बना लिया। उसने तीसरी बार प्रार्थना दोहराई। उन लोगों ने फिर उसके पैर छुए। और वह अपनी मोटर बोट में वापस लौट पड़ा। जब वह झील के मध्य में ही था कि तभी उसने एक बड़े से बवंडर को अपनी ओर आते देखा... वह भरोसा न कर सका कि यह क्या हो सकता है! डर के मारे वह ईश्वर से प्रार्थना करने लगा। जब वे कुछ नजदीक आए तब वह समझा कि ये तो वही तीनों बेवकूफ हैं-पानी पर पैदल चलते हुए। ‘‘हे भगवान!’’ उसने सोचा, ‘‘पानी पर तो केवल ईसा मसीह ही चले थे!’’

वे लोग हाथ जोड़े हुए आए और बोले, ‘‘हम वह प्रार्थना भूल गए सो हमने सोचा...एक बार और! उन्हें झील पर खड़े देखकर आर्च बिशप को अब सत्य का अहसास हुआ; कुछ समझ आई। उसने कहा, ‘‘नहीं, तुम्हें मेरी प्रार्थना की जरूरत नहीं है। तुम अपनी ही प्रार्थना करो, वही ठीक है। क्योंकि मैं जिंदगी भर से इसे कर रहा हूं, और रूस के इस पारंपरिक चर्च में सर्वोच्च पद पर पहुंच गया हूं; किंतु मैं पानी पर नहीं चल सकता। ऐसा लगता है कि परमात्मा तुम्हारे साथ है। तुम्हारी प्रार्थना सुन ली गई है। तुम जाओ और अपनी प्रार्थना जारी रखो।’’ वे बड़े खुश हुए और कहने लगे कि ‘‘हम आपके बहुत अनुगृहीत है; क्योंकि वह लंबी प्रार्थना तो हमारे प्राण ही ले लेती।’’

यह कथा बड़ी प्रीतिकर है, जो कहती है कि रूढ़िवादी और दकियानूसी धर्म मर चुके हैं।

धार्मिकता तुम्हारे हृदय में से एक सुगंध की भांति उठेगी-इसे समूचे अस्तित्व के प्रति अर्पित तुम्हारे प्रेम के फूल की सुवास। धार्मिक व्यक्ति के लिए ईश्वर भी अनावश्यक है। क्योंकि ईश्वर एक अप्रमाणित परिकल्पना है, और कोई भी प्रामाणिक रूप से धार्मिक आदमी किसी अप्रमाणित चीज को स्वीकार नहीं कर सकता। वह तो केवल उसे स्वीकार करता है, जिसे वह स्वयं अनुभव करते हो? यह श्वास, यह हृदय की धड़कन...यह अस्तित्व ही श्वास भीतर खींच रहा है और बाहर छोड़ रहा है। अस्तित्व ही प्रतिपल तुम्हें जीवन प्रदान किए चला जाता है। लेकिन तुमने कभी इन वृक्षों की तरफ नहीं निहारा। तुमने कभी फूलों और उनके सौंदर्य में गौर से नहीं झांका, और न तुमने कभी यह सोचा कि वे दिव्य हैं।

सच पूछो तो यह अस्तित्व ही एकमात्र परमात्मा है। जो है-वह दिव्य है। यह संपूर्ण अस्तित्व भगवत्ता से पूर्ण है । यदि तुम धार्मिकता से ओत-प्रोत हो, तो सारा अस्तित्व तत्क्षण भगवत्ता से आपूरित हो जाता है। मेरी दृष्टि में यही धर्म है।
-ओशो

पुस्तकः मैं धार्मिकता सिखाता हूं धर्म नहीं
प्रवचन नं. एक से संकलित 
पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध है