राम और रावण

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राम तो हम अपने को नहीं कह पाते। कहना तो चाहते हैं, कह नहीं पाते, वास्तविक कठिनाइयां हैं, लेकिन रावण मानने का भी मन नहीं होता। तो बीच का हम मार्ग खोज लेते हैं। हम कहते हैं, न हम राम हैं अभी न रावण हैं, मध्य में हैं, अभी हम बीच में है। अभी परम् ज्ञान नहीं हुआ बुद्धत्व उपलब्ध नहीं हुआ, लेकिन हम कोई मूढ़ और अज्ञानी भी नहीं है

या तो रावण हो सकते हैं या राम, मध्य में होने का कोई उपाय नहीं। हमारे मन की तकलीफ यह है कि यह तो हम भी समझते हैं कि राम हम नहीं हैं, मगर अहंकार को चोट होती है कि तो फिर रावण ही बचते हैं, वह मानने को मन राजी नहीं होता। मन कहता है, माना कि राम नहीं हैं, क्योंकि इतनी घोषणा करनी भी जरा मुश्किल मालूम पड़ती है। और चारों तरफ लोग जानते हैं कि राम हम नहीं हैं..., किसके सामने घोषणा करें? लोग सिर्फ हंसेंगे। तो राम तो हम अपने को नहीं कह पाते। कहना तो चाहते हैं, कह नहीं पाते, वास्तविक कठिनाइयां हैं, लेकिन रावण मानने का भी मन नहीं होता। तो बीच का हम मार्ग खोज लेते हैं। हम कहते हैं, न हम राम हैं अभी न रावण हैं, मध्य में हैं, अभी हम बीच में है। अभी परम् ज्ञान नहीं हुआ बुद्धत्व उपलब्ध नहीं हुआ, लेकिन हम कोई मूढ़ और अज्ञानी भी नहीं है।

यह जो बीच का ख्याल है, यह बहुत खतरनाक है, क्योंकि यह तुम्हें तुम्हारी स्थिति से परिचित ही न होने देगा। अच्छा है कि तुम समझ लो कि तुम रावण हो। और रावण में खराबी क्या है, जिसकी वजह से तुम डरते हो ? अगर रावण के व्यक्तित्व को समझो, तो तुम पाओगे कि तुम मध्य में तो हो ही नहीं सकते, छोटे या बड़े रावण हो सकते हो। यह हो सकता है कि तुम छोटे रावण हो।

पर तुम्हारा ढंग और तुम्हारी चेतना का गुण, एक बूंद हो कि सागर, इससे क्या फर्क पड़ता है? सागर की एक बूंद भी खारी है, पूरा सागर भी खारा है। बुद्ध कहते थे, सागर की एक बूंद चख लो, तुमने पूरा सारा सागर चख लिया। वैज्ञानिक कहते हैं, सागर की एक बूंद का विश्लेषण कर लो, तुमने पूरे सागर का विश्लेषण कर लिया। जो एक बूंद संकुचित है, बस उसी का संकोच है। तो यह हो सकता है कि तुम सागर न हो, बूंद हो, पर तुम्हारा मूल गुणधर्म वही है।

रावण की क्या कठिनाई है? रावण में क्या है, जो तुम पाते हो, तुममें नहीं है। इससे थोड़ा हम समझें। रावण धन का दीवाना है, साम्राज्य के विस्तार की आकांक्षा है। स्त्रियों के लिए लोलुप है। वे चाहे स्त्रियां परायी हो, दूसरों की स्त्रियां ही क्यों न हों, अगर उसे पसंद पड़ जाएं, तो उन्हें उसके राजमहल में ही होना चाहिए। पंडित है बड़ा, शास्त्र का ज्ञाता है।

रावण में ये जो गुणधर्म हैं, इनमें कौन सा है, जो हम कोशिश करें तो अपने में न पाएं, खोजे तो न पाएं! हृदय आकर्षित करती है। और सच तो यह है कि अपनी हृदय कम आकर्षित करती है, दूसरे की ही सदा आकर्षित करती है। क्योंकि अपनी से तो हम धीरे-धीरे आदी हो जाते हैं। और मन अपने से तो ऊब जाता है। खुद की पत्नी में कभी कोई आकर्षण होता है? खुद की पत्नी में कोई आकर्षण रह ही नहीं जाता। आकर्षण तो उसमें होता है, जो उपलब्ध नहीं है। और जितना कठिन हो पाना, उतना ही आकर्षण बढ़ता है।

राम की हृदय में रावण का रस कठिनाई के कारण है। कठिनाई निश्चित बड़ी थी और कठिनाई बड़ी गहरी थी। कठिनाई क्या थी? राम की हृदय को चुराना बहुत कठिन नहीं था, वह तो रावण ने किया ही। राम की हृदय को झुकाना कठिन था, जो रावण नहीं कर पाया। वही कठिनाई थी, वही चुनौती थी। सीता का लगाव राम की तरफ ऐसा परिपूर्ण था कि सीता के ह्नदय में जरा सी भी रंध्र न थी, जिसमें से रावण भीतर प्रवेश कर जाए-यह चुनौती थी।

वेश्या में थोड़े ही आकर्षण होता है! सती में आकर्षण होता है। वेश्या में क्या आकर्षण है? थोड़ा आपका खीसा हल्का होगा और वेश्या उपलब्ध हो जाएगी। वेश्या खरीदी जा सकती है। उसमें क्या रस हो सकता है? रस था सीता में, उसे खरीदना असंभव था। कोई उपाय न था, जिससे उसे खरीदा जा सके। और कोई उपाय न था कि उसके ह्नदय में प्रवेश किया जा सके।

इसलिए पूरब की स्त्रियों में जो आकर्षण है, वह पश्चिम की हृदय में नहीं है। पश्चिम के लिए लोग भी अनुभव करते हैं कि पूरब की हृदय में जो आकर्षण है, वह पश्चिम की हृदय में नहीं है। पश्चिम की हृदय ज्यादा सुंदर हो सकती है, उसके शरीर का अनुपात ज्यादा ढंग का हो सकता है, लेकिन फिर भी उसमें वह आकर्षण नहीं जो पूरब की साधारण हृदय में होगा। क्योंकि पूरब की हृदय के प्रवेश में प्रवेेश असंभव है। चुनौती बड़ी है।

रावण के पास सुंदर स्त्रियों की कमी न थी, सीता से शायद ज्यादा सुंदर रही हों। लेकिन सीता की जो अनन्य भक्ति है राम के प्रति, वह चुनौती बन रावण को।

तुम्हारे लिए भी सदा वहीं चुनौती है। दूसरे की हृदय में रस है। वह रावण की चेतना का गुणधर्म है। जो दूसरे के पास है उसमें रस है, जो अपने पास है उसमें रस नहीं है।

राम को किसी दूसरी हृदय में कोई रस नहीं, जैसे सीता में सारा संसार पूरा हो गया। यह राम की चेतना का हिस्सा है कि जो अपने पास है, वह सब है; जो अपने पास है, वह पूरा है; जो अपने पास है, उसमें संतोष है, उसमें संतुष्टि गहन है, उससे ज्यादा की कोई मांग नहीं है। उससे ज्यादा दिखाई ही नहीं पड़ता, सब उसमें समाया हुआ है। जैसे सारी दुनिया की हृदय का हृदयत्व सीता में समा गया है। सीता मिल गई, तो सब स्त्रिया मिल गई।

रावण की चेतना, जब तक सारी स्त्रियां न मिल जाएं, तब तक तृप्ति नहीं होती। और तब भी तृप्ति होगी, कहना कठिन है। व्यक्ति का मूल्य रावण को नहीं है, खुद के स्वार्थ और खुद की संवेदना का मूल्य है।

जिसके पास हम रहते हैं, उसके प्रति हमारी संवेदना बोथली हो जाती है। रोज उसे देखते हैं, फिर उसे देखने योग्य कुछ नहीं बचता; रोज उसे खोजते हैं, फिर खोजने योग्य कुछ नहीं बचता। फिर उसके पूरे व्यक्तित्व से हम परिचित हो जाते हैं, तो सब बासा हो जाता है। यही सभी इंद्रियों का ढंग है। आज भोजन मिला, वहीं कल भी मिला। आज कहा, बहुत अच्छा है; लेकिन कल उतना अच्छा नहीं कह सकेंगे, वही भोजन। फिर तीसरे दिन भी वही भोजन फिर मिला, तो ऊब पैदा हो गई। चौथे दिन थाली सरका देंगे। वही है, जो पहले दिन बहुत अच्छा कहा था, लेकिन चार दिन में ऊब गए।

इंद्रिया पुराने से ऊबती है। इंद्रियों का ढंग है, रोज नए की तलाश। क्योंकि इंद्रियों को उत्तेजना चाहिए। उत्तेजना नए से मिलती है। इसलिए जितने ऐंद्रिक समाज होंगे, नए की खोज उनका सूत्र होगा। जितने आध्यात्मिक समाज होंगे, पुराने के साथ तृप्ति उनका स्वभाव होगा। चेतना तो सनातन की खोज करती है, इंद्रिया नवीन की।

तो राम ने सीता में सनातन को खोज लिया। वह जो शाश्वत है, जो कभी पुराना नहीं पड़ता और जिसे नया करने की कोई जरूरत नहीं, जिससे ऊब कभी पैदा ही नहीं होती।

प्रेम से कभी ऊब पैदा नहीं होती, काम से ऊब पैदा होती है। क्योंकि प्रेम है ह्नदय का और काम है इंद्रियों का। इसलिए अगर कामवासना आपका केंद्र है, तो रोज आपको नई हृदय चाहिए, नया पुरूष चाहिए, नया भोजन चाहिए, रोज! क्योंकि शरीर तो प्रतिपल नए में जी सकता है, उससे उत्तेजना मिलती है, चुनौती मिलती है। लेकिन चेतना तो सनातन में जीती है, शाश्वत में जीती है। इसलिए प्रेम शाश्वत हो सकता है।
-ओशो
पुस्तकः भारत एक सनातन यात्रा
पूरा प्रवचन एम. पी. थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध

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