सत्य और तथ्य
सत्य दो तरह से खोजा जा सकता है : एक तो तर्क से, मस्तिष्क से, सोच विचार से; एक भाव से, अनुभूति से। एक तो गणित बिठाकर और एक मस्ती में गुनगुनाकर। और जिन्होंने गणित बिठाया है, वे कभी सत्य तक नहीं पहुंचे हैं। ज्यादा से ज्यादा तथ्य तक पहुंचते हैं, सत्य तक नहीं। सत्य और तथ्य का यही भेद है। तथ्य आज सत्य लगता है, कल और खोजबीन होगी तो शायद सत्य न लगे। इसलिए विज्ञान रोज बदल जाता है। न्यूटन के लिए जो सत्य था, वह एडिंग्टन के लिए सत्य न रहा। जो एडिंग्टन के लिए सत्य था, वह आइन्स्टीन के लिए सत्य न रहा। जो आइन्स्टीन के लिए सत्य था, आगे सत्य नहीं रह जाएगा। विज्ञान में सिर्फ तथ्य होते हैं, जो बदल जाएंगे।
जैसे जैसे खोज होगी, नये अन्वेषण होंगे, हमें पुराने तथ्यों को फिर फिर जमाना होगा। लेकिन जो बुद्ध ने जाना, वह सत्य है। वह अब भी वैसा का वैसा है। उतना ही तरोताजा; जरा भी बासा नहीं। उस पर धूल जमती ही नहीं। और कितनी ही खोज होती रहे, कुछ भेद न पड़ेगा।
तथ्य होते हैं बाहर के, सत्य होते हैं भीतर के। तथ्य होते हैं बहिर्मुखी, सत्य होते हैं अन्तर्मुखी। तथ्य होते हैं पदार्थ के संबंध में, सत्य होते हैं चैतन्य के संबंध में। तथ्य होते हैं सांसारिक, सत्य होते हैं आध्यात्मिक। आध्यात्मिक सत्य सदा वही हैं, सनातन हैं; शाश्वत हैं; पुराने से पुराने हैं और नये से नये, ऐसा उनका विरोधाभास है।
ओशो
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