शूून्य की किताब–(Hsin Hsin Ming)-प्रवचन-04

चैतन्य का स्वभाव बस दर्पण हो जाना है। दर्पण का अपना स्वयं का कोई चुनाव नहीं है। जो भी इसके सामने आता है वह प्रतिबिंबित हो जाता है अच्छा या बुरा सुंदर या कुरूप- जो कोई भी। दर्पण की अपनी कोई पसंद नहीं है वह निर्णय नहीं करता वह निंदा नहीं करता। स्रोत पर चैतन्य का स्वभाव बस दर्पण की भांति है।

एक बच्चा पैदा होता है; जो भी उसके सामने आता है उसे वह प्रतिबिंबित करता है। वह कुछ नहीं कहता कोई व्याख्या नहीं करता। जैसे ही व्याख्या प्रवेश करती है, दर्पण अपने दर्पण जैसे गुण को खो देता है। अब वह शुद्ध नहीं रहा। अब वह विचारों मतों से भरा हुआ, विचलित कई अंशों में बंटा हुआ विभाजित खंडित हो जाता है। वह स्किजोफ्रेनिक हो जाता है।

जब चेतना विभाजित हो जाती है दर्पण की भांति नहीं होती, तब वह मन बन जाती है। मन टूटा हुआ दर्पण है।

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