शूून्य की किताब–(Hsin Hsin Ming)-05

मूलस्त्रोत की और लोटना-(प्रवचन-पांचवां)
Hsin Hsin Ming (शुन्य की किताब)--ओशो
(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद) 
सूत्र:

जब विचार के विषय विलीन हो जाते है

विचार करने वाला भी विलीन हो जाता है;

जैसे मन विलीन हो जाता है विषय भी विलीन हो जाते है।


वस्तुएं विषय बनती है क्योंकि भीतर विषयी मौजूद है;

वस्तुओं के कारण ही मन ऐसा है। इन दोनों की सापेक्षता को,

और मौलिक सत्य शून्यता की एकात्मकता को समझो।
इस शून्यता में इन दोनों की अलग पहचान खो जाती है

और प्रत्येक अपने आप में संपूर्ण संसार को समाए रहता है
अगर तुम परिष्कृत और अपरिष्कृत में भेद नहीं करते,

तो तुम पूर्वाग्रहों और धारणाओं का मोह नहीं करोगे।

संसार है तुम्हारे कारण-तुम ही इसका सृजन करते हो तुम ही इसके सष्टा हो। प्रत्येक प्राणी अपने चारों ओर एक संसार का निर्माण कर लेता है, वह उसके मन पर निर्भर है। मन भले ही माया हो लेकिन यह रचनात्मक है- यह स्वप्नों का सृजन करता है। और यह तुम पर निर्भर है कि तुम नरक का निर्माण करते हो या स्वर्ग का।

अगर तुम इस संसार को त्याग देते हो तो भी तुम इसे त्याग नहीं सकोगे। तुम जहां भी जाओगे तुम फिर से वैसा ही संसार निर्मित कर लोगे क्योंकि संसार निरंतर तुम्हारे भीतर से ऐसे निकल रहा है जैसे पेड़ से पत्ते निकलते हैं।

तुम सब एक समान संसार में नहीं रहते-तुम रह भी नहीं सकते क्योंकि तुम्हारे मन एक समान नहीं हैं। हो सकता है तुम्हारे बिलकुल निकट ही कोई स्वर्ग में रह रहा हो और तुम नरक में रह रहे हो--और तुम्हें लगता हो कि तुम एक जैसे संसार में रहते हो? तुम कैसे एक जैसे संसार में रह सकते हो जबकि मन भिन्न हैं?

इसलिए समझ लेने जैसी पहली बात यह है कि तुम तब तक संसार का त्याग नहीं कर सकते, जब तक