Me Mrutyu Sikhata Hu - Pravachan 15 - Bhag - 4

 प्रवचनमाला--- मैं मृत्यु सिखाता हूँ

 प्रवचन नं---15

भाग----4....

Me Mrutyu Sikhata Hu - Pravachan 15 - Bhag - 4



यूरोप में बहुत—से ईसाई फकीर हैं जिनके हाथ पर स्टिगमैटा प्रकट होता है। स्टिगमैटा का मतलब है कि जीसस को जब सूली दी गई, तो उनके हाथों में खीले ठोंके गए। खीले ठोंकने से उनके हाथ से खून बहा। तो बहुत से फकीर हैं जो शुक्रवार को जिस दिन जीसस को सूली हुई उस दिन सुबह से ही जीसस के साथ अपने को आइडेटीफाई कर लेते हैं। वे जीसस हो जाते हैं। ठीक सूली का क्षण आते — आते हजारों लोगों की भीड़ देखती रहती है। वे हाथ फैलाए खड़े रहते हैं। फिर उनके हाथ फैल जाते हैं जैसे सूली पर लटक गए हों। और हाथों में, जिनमें खीलें नहीं ठुके हैं, उनसे खून की धाराएं बहनी शुरू हो जाती हैं। वे इतने संकल्प से जीसस हो गए हैं और सूली लग गई है। तो हाथ से छेद होकर खून बहने लगता है बिना किसी उपकरण के, बिना किसी छेद किए, बिना कोई खीला चुभाए।


मनुष्य के संकल्प की बड़ी संभावनाएं हैं। लेकिन हमें कुछ खयाल में नहीं है। यह जो मृत्यु का स्वेच्छा से प्रयोग है, यह संकल्प का गहरा से गहरा प्रयोग है। क्योंकि साधारणत: जीवन के पक्ष में संकल्प करना कठिन नहीं है। हम जीना ही चाहते हैं। मृत्यु के पक्ष में संकल्प करना बहुत कठिन बात है। लेकिन जिन्हें भी सच में ही जीने का पूरा अर्थ जानना हो, उन्हें एक बार मर कर जरूर देखना चाहिए। क्योंकि बिना मर कर देखे वे कभी नहीं जान सकेंगे कि उनके पास कैसा जीवन है, जो नहीं मर सकता। उनके पास कुछ जीवन है जो अमृत की धारा है। इसे जानने के लिए उन्हें मृत्यु के अनुभव से गुजरना जरूरी है। क्योंकि एक बार वे स्वेच्छा से मर कर देख लें, फिर दोबारा उन्हें मरने का भय नहीं रह जाएगा। फिर मृत्यु है ही नहीं।


तो सिर्फ पूर्ण संकल्प से कि मेरी चेतना सिकुड़ रही है, मैं अपने को चारों तरफ से सिकोड़ लेता हूं। आंख बंद करके मैं अपने को सिकोड़ता हूं कि मेरी चेतना सिकुड़ रही है, उसने पैरों से यात्रा भीतर की तरफ शुरू कर दी, हाथों से भीतर की तरफ शुरू कर दी, मस्तिष्क से भीतर की तरफ शुरू कर दी। उस केंद्र पर ऊर्जा इकट्ठी होने लगी, जहां से फैली थी। वापस सब किरणें लौटने लगीं। इसका सघन मन से किया गया प्रयोग एक क्षण में अचानक सारे शरीर को मृत कर देता है और एक बिंदु कोई भीतर जीवित बिंदु रह जाता है। सारा शरीर अलग मुर्दे की तरह पड़ा रह जाता है, सिर्फ शरीर के भीतर एक बिंदु जीवित हो जाता है। यह जीवित बिंदु अब भलीभांति देखा जा सकता है कि शरीर से भिन्न है। ऐसे ही जैसे बहुत अंधेरे में बहुत—सी किरणें फैली हों और पता न चलता हो कि क्या किरण है और क्या अंधेरा है। लेकिन सारी किरणें सिकुड़ कर एक जगह आ जाएं, तो अंधेरा और किरणों का कंट्रास्ट साफ हो जाए कि अलग हो गया।


जब हमारे भीतर प्राण की ऊर्जा इकट्ठी एक बिंदु पर आकर घनीभूत हो जाती है, कंडेन्स, इकट्ठी हो जाती है तो सारा शरीर अलग और वह बिंदु अलग मालूम होने लगता है। अब जरा —से संकल्प की जरूरत है कि आप शरीर के बाहर हो सकते हैं। सिर्फ सोचें कि मैं बाहर हूं, और आप बाहर हैं। और अब बाहर से खड़े होकर इस शरीर को पड़ा हुआ देख सकते हैं कि यह मुर्दे की तरफ पड़ा हुआ है। छोटा—सा एक धागे की तरह कोई चीज इस शरीर से अब भी जोड़े रहेगी। वही द्वार है आने —जाने का। एक सिलवर कार्ड, एक स्वर्ण धागा इस शरीर की नाभि से आपको जोड़े रहेगा।


जैसे ही यह बिंदु बाहर आएगा, वैसे ही एक और नई हैरानी का अनुभव होगा कि इस बिंदु ने फिर नए शरीर का रुख ले लिया। यह फिर फैलकर एक नया शरीर बन गया। यह शरीर सूक्ष्म शरीर है। यह शरीर बिलकुल इसकी ही प्रतिलिपि है जैसा यह शरीर है। लेकिन बहुत जिसको कहें धूमिल, फिल्मी, ट्रासपेरेंट, पारदर्शी। अगर हाथ को हिलाएं, तो उसके आर—पार निकल जाएगा, लेकिन उसका कुछ बिगड़ेगा नहीं।


तो पहला तत्व है इस संकल्प की साधना का, सारे प्राणों को एक बिंदु पर इकट्ठा कर लेना। और जब एक बिंदु पर वे इकट्ठे हो जाएं, तो यह ऐसे छलांग लगाकर बाहर निकल जाता है। सिर्फ इच्छा, कि बाहर यानी बाहर। और सिर्फ इच्छा, कि वापिस भीतर तो यानी भीतर। इसमें कुछ करने का नहीं है। बस करने का प्रयोग तो सिर्फ ऊर्जा को इकट्ठा करना है। एक दफा ऊर्जा इकट्ठी हो जाए, तो आप बाहर— भीतर हो सकते हैं। उसमें कोई कठिनाई नहीं है।


और यह अनुभव एक बार साधक को हो जाए, तो उसकी जीवन—यात्रा तत्काल ही बदल जाती है, रूपांतरित हो जाती है। कल तक फिर जिसे वह जीवन कहता था, अब जीवन न कह सकेगा। और कल तक जिसे मृत्यु कहता था, उसे मृत्यु भी न कह सकेगा। और कल तक जिन चीजों के लिए दौड़ रहा था, अब दौड़ जरा मुश्किल हो जाएगी। और कल तक जिन चीजों के लिए लड़ रहा था, अब लड़ना मुश्किल हो जाएगा। और कल तक जिन चीजों की उपेक्षा की थी, अब उपेक्षा न कर सकेगा। जिंदगी बदलेगी, क्योंकि एक ऐसा अनुभव जिंदगी में आया है कि इसके बाद जिंदगी वही नहीं हो सकती जो इसके पहले थी। इसलिए प्रत्येक ध्यान के साधक को एक न एक दिन आउट बाडी एक्सपीरिएंस, यह शरीर के बाहर जाने का अनुभव अनिवार्य चरण है, जो उसके भविष्य के लिए बड़े अदभुत परिणाम ले आने लगता है।


कठिन नहीं है यह, संकल्प भर चाहिए। संकल्प कठिन है, यह प्रयोग कठिन नहीं है। संकल्प कठिन है। और इसलिए कोई सीधा चाहे कि इस प्रयोग को कर ले, तो जरा मुश्किल पड़ेगी। उसे छोटे —छोटे संकल्प के प्रयोग करने चाहिए। उसे छोटे —छोटे प्रयोग करने चाहिए। जब वह छोटे —छोटे प्रयोगों में सफल होता जाता है, तो उसकी संकल्प की सामर्थ्य बढ़ती चली जाती है।


इस सारे जगत में धर्म की साधनाएं वस्तुत: धर्म की साधनाएं नहीं हैं, संकल्प—पूर्व तैयारिया हैं। जैसे एक आदमी तीन दिन का उपवास कर लेता है, यह सिर्फ संकल्प की साधना है। उपवास से कोई फायदा नहीं होता, फायदा होता है संकल्प से। उपवास से कोई फायदा नहीं हो रहा है, फायदा हो रहा है संकल्प से। कि उसने तीन दिन का संकल्प किया तो उसको पूरा निभाता है। कि एक आदमी कहता है कि मैं बारह घंटे खड़ा रहूंगा एक ही जगह पर। खड़े रहने से कोई फायदा नहीं हो जाता, फायदा होता है खड़े रहने के संकल्प से, उसकी पूर्णता से। धीरे — धीरे क्या हुआ कि मूल बात खयाल से भूल गई है कि ये संकल्प के प्रयोग हैं। अब एक आदमी खड़े होने को ही समझ रहा है कि काफी है, वह खड़ा ही है। वह यह भूल ही गया है कि खड़ा होने से कोई प्रयोजन नहीं है, प्रयोजन है उस भीतरी संकल्प का जो कि खड़े होने का निर्णय करता है, तो उसे पूरा करता है।


ये संकल्प किसी भी तरह से पूरे किए जा सकते हैं। ये बहुत छोटे —छोटे संकल्प हैं, ये कोई बहुत बड़े संकल्प नहीं हैं। कि एक आदमी इस गैलरी में खड़ा हो जाए और संकल्प कर ले कि छह घंटे तक खड़ा रहूंगा, लेकिन नीचे झांक कर न देखूंगा, तो भी काम हो जाएगा। सवाल यह नहीं है कि नीचे झांक कर नहीं देखने से कोई फायदा होने वाला है। सवाल यह है कि उसने तय किया, वह उसे पूरा कर रहा है। जब कोई आदमी जो तय करता है, उसे पूरा कर लेता है, तो उसके भीतर की ऊर्जा बलवान हो जाती है, वह आत्मवान होने लगता है। उसे लगता है कि मैं ऐसा हवा के झोंके पर डोलता हुआ कुछ नहीं हूं। उसके भीतर एक तरह का क्रिस्टलाइजेशन, उसके भीतर कुछ क्रिस्टल बनने शुरू हो जाते हैं। उसके व्यक्तित्व में पहली दफा कुछ बुनियादें पड़नी शुरू हो जाती हैं।


बहुत छोटे—छोटे संकल्पों का प्रयोग करना चाहिए और छोटे —छोटे संकल्पों से ऊर्जा इकट्ठी करनी चाहिए। और हमें जिंदगी में बहुत मौके हैं। आप कार में बैठे जा रहे हैं। आप इतना ही संकल्प कर ले सकते हैं कि आज मैं रास्ते के किनारे लगे बोर्ड नहीं पढूंगा। इसमें किसी का कोई हर्जा नहीं हुआ जा रहा है। इससे किसी का कोई नुकसान—फायदा कुछ भी नहीं हो रहा है। लेकिन आपके संकल्प के लिए मौका मिल जाएगा और किसी को कहने की भी कोई जरूरत नहीं। यह आपकी भीतरी यात्रा है कि आप कहते हैं कि मैं यह नहीं पढूंगा आज, जो किनारे पर बोर्ड लगे हैं। और आप पाएंगे कि आधा घंटा कार में बैठना व्यर्थ नहीं गया। जितने आप कार में बैठे थे, उससे कुछ ज्यादा होकर कार के बाहर उतरे हैं। आपने कुछ उपलब्ध किया, जब कि आप ऐसे बैठकर कुछ भी खोते। यह सवाल बड़ा नहीं है कि आप कहां प्रयोग करते हैं। मैं उदाहरण के लिए कह रहा हूं। कुछ भी प्रयोग कर सकते हैं। जिस प्रयोग से भी आपके संकल्प को ठहरने की सामर्थ्य बढ़ती हो, उसे आप कर सकते हैं। ऐसे छोटे —छोटे प्रयोग करते रहें।


अब एक आदमी को हम कहते हैं कि ध्यान में चालीस मिनट’ आंख ही बंद रखो। तीन दफे वह आंख खोलकर देख लेता है बीच में। अब यह आदमी संकल्पहीन है, आत्महीन है। आंख बंद करने का बड़ा फायदा और नुकसान नहीं है। लेकिन चालीस मिनट तय किया तो यह आदमी चालीस मिनट आंख भी नहीं बंद रख सकता, तो और इससे बहुत आशा रखना कठिन है। इस आदमी से हम कह रहे हैं कि दस मिनट गहरी श्वास लो। वह दो मिनट के बाद ही धीमी श्वास लेने लगता है। फिर उससे कहो गहरी श्वास लो, फिर एकाध —दो गहरी श्वास लेता है, फिर धीमी लेने लगता है। वह आत्मवान नहीं है। दस मिनट गहरी श्वास लेना कोई बड़ी कठिन बात नहीं है। और सवाल यह नहीं है कि दस मिनट गहरी श्वास लेने से क्या मिलेगा कि नहीं मिलेगा। एक बात तय है कि दस मिनट गहरी श्वास के संकल्प करने से यह आदमी आत्मवान हो जाएगा। इसके भीतर कुछ सघन हो जाएगा। यह किसी चीज को जीतेगा, किसी रेसिस्टेंस को तोड़ेगा। और वह जो वैगरेंट माइंड है, वह जो आवारा मन है, वह आवारा मन कमजोर होगा। क्योंकि उस मन को पता चलेगा कि इस आदमी के साथ नहीं चल सकता। इस आदमी के साथ जीना है, तो इस आदमी की माननी पड़ेगी।


और आप रोज कार में बैठ कर निकलते हैं, हो सकता है, आप कभी पास के बोर्ड न पढ़ते हों, लेकिन जिस दिन आप तय करेंगे कि आज बोर्ड नहीं पढ़ना है, तो उस दिन मन पूरी कोशिश करेगा कि पढ़ो। क्योंकि मन की ताकत आपके संकल्पहीन होने में निर्भर है। इधर आपका संकल्पवान होना, उधर मन की मौत है। विल जितनी मजबूत हो, मन उतना मुर्दा है। मन जितना मजबूत है, संकल्प उतना क्षीण है। तो वह रोज कभी नहीं कहता था, क्योंकि रोज आपने उसको चुनौती न दी थी। आज यह भी उसके लिए चुनौती का सवाल है। वह हजार बहाने खोजेगा, वह कहेगा, यह तो देखना बिलकुल जरूरी था इसलिए देखा। वह कहेगा, इतने जोर की आवाज आ .रही है, दंगाफसाद हो गया, जरा तो बाहर देखो कि क्या हो रहा है! वह भुलाने की कोशिश करेगा, वह दूसरी बातों में लगा लेगा, ताकि आपको यह खयाल भूल जाए और आप एक दफे बाहर झांककर देख लें और बोर्ड पढ़ लें। सारा उपाय करेगा। यह ऐसा ही है।


हम मन के साथ ही जीते हैं। साधक संकल्प के साथ जीना शुरू करता है। जो मन के साथ जीता है, वह साधक नहीं है। जो संकल्प के साथ जीता है, वह साधक है। साधक का मतलब ही यह है कि मन जो है वह अब संकल्प में रूपांतरित हो रहा है।


तो बहुत छोटे —छोटे मुद्दे चुन लें। आप खुद ही चुन लेंगे, इसमें कोई कठिनाई नहीं है, बहुत छोटे —छोटे मुद्दे चुन लें। और चौबीस घंटे में दो—चार प्रयोग कर लें जिनका किसी को पता नहीं चलेगा। अलग बैठकर करने की कोई जरूरत नहीं है, किसी को खबर करने की जरूरत नहीं है, बस चुपचाप कर लें और गुजर जाएं। बहुत छोटे..।


छोटा—सा संकल्प कि जब कोई क्रोध करेगा, तब मैं हसूंगा। और आपके ऊपर किए गए प्रत्येक


क्रोध की इतनी अदभुत कीमत आपको मिल जाएगी कि आप जिसने क्रोध किया, उसको धन्यवाद देंगे। एक छोटा—सा संकल्प कि जब भी मुझ पर कोई क्रोध करेगा, मैं हसूंगा, चाहे कुछ भी हो जाए। आप एक पंद्रह दिन के बाद पाएंगे कि आप दूसरे आदमी हो गए, आपकी क्वालिटी बदल गई। आप वही आदमी नहीं हैं जो पंद्रह दिन पहले थे। बहुत छोटे —से निर्णय करें और उनको जीने की कोशिश करें। और उस जीने की कोशिश से धीरे— धीरे जब आपको ऐसा भरोसा आने लगे कि अब मैं कोई बड़े संकल्प कर सकता हूं तो थोड़े बड़े संकल्प करें। और अंतिम संकल्प साधक को करने जैसा है स्वेच्छा से मरने का। किसी दिन जब आपको यह लगे कि अब मैं यह कर सकता हूं तो करें। जिस दिन आप उस संकल्प को करके शरीर को मुर्दे की तरह देख लेंगे, उस दिन से दुनिया का कोई धर्मशास्त्र आपके लिए कोई नई बात कहने वाला नहीं रह जाएगा। उस दिन से दुनिया का कोई गुरु आपको कोई नई बात न बता सकेगा।




ओशो