तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision -भाग-01)-प्रवचन-02

जब सरहा का तंत्र अपने आत्यंतिक शिखर पर पहुंचता है, तब यह पता चलता है: न तुम हो, न तुम सत्य हो, न तुम्हारा अस्तित्व है, न तुम सही हो, न तुम्हारा अस्तित्व है, और न ही मेरा, दोनों ही वहां विलीन हो जाते हैं। दो शून्य मिलते हैं--मैं नही, तू नहीं, न तू न मैं। दो शून्य, दो रिक्त आकाश एक दूसरे में विलीन हो जाते हैं, क्योंकि सरहा के मार्ग पर सारा प्रयास यही है, कि विचार को कैसे विलीन किया जाए, और मैं और तू दोनों विचार के ही अंग हैं।
जब विचार पूर्णतः विलीन हो जाए, तुम स्वयं को ‘मैं’ कैसे कह सकते हो? और किसे तुम अपना ईश्वर कहोगे? ईश्वर विचार का अंग है, यह एक चिर-निर्मित, विचार-सृजित, मन-सृजित बात है। अतः समस्त मन-सृजन विलीन हो जाते हैं, और केवल शून्य रिक्तता उत्पन्न होती है।
शिव के मार्ग पर, अब तुम रूप को प्रेम नही करते, अब तुम व्यक्ति को प्रेम नहीं करते--तुम समस्त अस्तित्व को प्रेम करने लग जाते हों। संपूर्ण अस्तित्व तुम्हारा ‘तू’ हो जाता है; तुम संपूर्ण अस्तित्व को संबोधित होते हो। मालकियत खो जाती है, ईष्या गिर जाती है, घृणा मिट जाती है--भाव में जो-जो भी नकारात्मक होता है वह छूट जाता है। और भाव शुद्ध-विशुद्ध होता चला जाता है। एक क्षण आता है जब विशुद्ध प्रेम ही वहां बचता है। विशुद्ध प्रेम के उस क्षण में, तुम ‘तू’ में विलीन हो जाते हो और ‘तू’ तुम में विलीन हो जाता है। विलीन तुम भी होते हो पर तुम दो शून्यों की भांति विलीन नहीं होते, तुम ऐसे विलीन होते हो जैसे प्रेमिका प्रेमी में विलीन हो जाती है, और प्रेमी प्रमिका में विलीन हो जाता है।