सजग उदासीनता

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जितना आदमी सजग हो उतने जल्दी रस टूट जाता है। जितना आदमी बेहोश हो, उतनी देर तक रस टिकता है। बेहोशी रस का सहारा है। जितनी तुम्हारे भीतर बुद्धिमानी हो--होशियारी नहीं कह रहा हूं, चालाकी नहीं कह रहा हूं; बुद्धिमत्ता हो--उतने जल्दी तुम जीवन के रस से चुक जाओगे। और जब जीवन का रस चुकता है तभी तुम्हारी रसधार जो जीवन में नियोजित थी, मुक्त होती है; अब संसार में जाने को कोई जगह न बची; अब वह रास्ता रास्ता न रहा; अब चीजों की तरफ दौड़ने की बात न रही; अब संग्रह को बड़ा करना है, मकान बड़ा बनाना है, धन इकट्ठा करना है, पद-प्रतिष्ठा पानी है--सब व्यर्थ हुआ; अब तुम अपने घर की तरफ लौटते हो।

घर बयाबां में बनाया नहीं हमने लेकिन
जिसको घर समझे हुए थे वह बयाबां निकला।

कोई रेगिस्तान में घर नहीं बनाया था, लेकिन जिसको घर समझे हुए थे वही रेगिस्तान निकला, वही वीरान निकला।जिस दिन तुम्हें अपना घर बयाबां मालूम पड़े, वीरान मालूम पड़े... वीरान है; सिर्फ तुम अपने सपनों के कारण उसे सजाए हो। जरा चौंक कर देखो, जिसे तुम घर कह रहे हो, वह घर नहीं है, ज्यादा से ज्यादा सराय है; आज टिके हो, कल विदा हो जाना पड़ेगा। जो छिन ही जाना है, उसको अपना कहना किस मुंह से संभव है? जहां से उखड़ ही जाना पड़ेगा, जहां क्षण भर को ठहरने का अवसर मिला है, पड़ाव हो सकता है, मंजिल नहीं है, और मंजिल के पहले घर कहां! घर तो वहीं हो सकता है जहां पहुंचे तो पहुंचे, जिसके आगे जाने को कुछ और न रहे। परमात्मा के अतिरिक्त कोई घर नहीं हो सकता। 'कफस कफस ही रहा, फिर भी आशियां न हुआ' नहीं, यह घर न बन पाएगा। यह जगह कारागृह है, यह घर न बन पाएगी। यहां तुम अजनबी हो। यहां तुम लाख उपाय करो, और कल्पनाएं कितनी ही करवटें बदलें, हजार तरह से कल्पनाएं, सपने को संजोएं, लेकिन यह जाल कल्पना का ही रहेगा। कल्पना तुम्हारी है; सत्य परमात्मा का है। जब तक तुम सोचोगे-विचारोगे, तब तक तुम सपने में रहोगे। जब तुम सोच-विचार छोड़ोगे और जागोगे, तब तुम जानोगे, सत्य क्या है। सत्य मुक्तिदायी है। और जो मुक्त करे वही घर है। जहां स्वतंत्रता हो वही घर है। कारागृह में और घर में फर्क क्या है? दीवालें तो उन्हीं ईंटों की बनी हैं, दरवाजे उन्हीं लकड़ियों के बने हैं। कारागृह और घर में फर्क क्या है? घर में तुम मुक्त हो; कारागृह में तुम मुक्त नहीं हो--बस इतना ही फर्क है। घर स्वतंत्रता है; कारागृह गुलामी है। 

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