अथातोभक्तिजिज्ञासा



जो मनुष्य नाद के स्वागत के साथ, संगीत के सत्कार के साथ, उत्सव की घोषणा के साथ भक्ति की जिज्ञासा पर निकलते हैं। बजती हुई जगत की ध्वनि में, लोक और परलोक के बीच उठ रहे नाद में भगवान को खोजने निकलते हैं उनके लिए यह यात्रा संगीत से पटी है। यह यात्रा रूखी-सूखी नहीं है। यहां गीत के झरने बहते हैं, क्योंकि यह यात्रा हृदय की यात्रा है। मस्तिष्क तो रूखा-सूखा मरुस्थल है, हृदय हरी-भरी बगिया है। यहां पक्षियों का गुंजन है, यहां जलप्रपातों का मर्मर है। इसलिए ओम से यात्रा शुरू करते हैं। और ओम पर ही यात्रा पूरी होनी है। क्योंकि जहां से हम आए हैं, वही पहुंच जाना है। हमारा स्रोत ही हमारा अंतिम गंतव्य भी है। बीज की यात्रा बीज तक। वृक्ष होगा, फल लगेंगे, फिर बीज लगेंगे। स्रोत अंत में फिर आ जाता है। और जब तक स्रोत फिर न आ जाए, तब तक भटकाव है। इसलिए चाहे कहो अंतिम लक्ष्य खोजना है, चाहे कहो प्रथम स्रोत खोजना है, एक ही बात है। मूल को जिसने खोज लिया, उसने अंतिम को भी खोज लिया। 

इसलिए शांडिल्य कहते हैं: अथातोभक्तिजिज्ञासा ‘ईश्वर के प्रति संपूर्ण अनुराग का नाम भक्ति है।’ संपूर्ण पर ध्यान रखना। ‘उसमें चित्त का लग जाना अमृत की उपलब्धि है।’ अमृत कुछ अलग नहीं है। जिस दिन तुमने जाना कि मैं नहीं हूं, तुम अमृत हो गए। अमृत का अर्थ है: अब तुम कभी न मरोगे। मैं मरता है, मैं मरा ही हुआ है, तुम तो शाश्वत हो। 

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