निर्दोषता

प्रेम कै नेम कहूं नहिं दीसत लाज न कानि लग्यौ सब खारौ। - सुंदरदास

प्रेम यानी परमात्मा उसके कहीं कोई नियम कहीं दिखाई नहीं पड़ते। प्रेम मर्यादा-मुक्त है। प्रेम राम जैसा नहीं है, प्रेम कृष्ण जैसा है। राम व्यवस्था हैं, मर्यादा हैं, नीति-नियम हैं। कृष्ण मर्यादा से मुक्ति हैं--प्रेम हैं, ज्वलंत प्रेम हैं। न कोई नियम है, न कोई व्यवस्था है। इसलिए हमने हिम्मत की, इस देश ने अकेले हिम्मत की इस बात की, कि कृष्ण को पूर्णावतार कहा, राम को अंशावतार कहा। कितना ही सुंदर चरित्र हो, कितना ही पुण्यवान चरित्र हो, अगर तुमने प्रेम की मर्यादा-शून्य अवस्था नहीं पाई, तो तुम अंश-रूप में ही पहुंचे हो, पूरे रूप में नहीं पहुंचे। तो तुमने छोटा आंगन, साफ-सुथरा आंगन पा लिया है, लेकिन विराट आकाश नहीं पाया है। राम सुंदर हैं। उनके शील में क्या भूल निकाल सकोगे? कृष्ण में भूलें ही भूलें हैं। उनमें ठीक खोजने चलोगे तो जरा मुश्किल पड़ेगी। लेकिन फिर भी हमने हिम्मत की और कृष्ण को पूर्णावतार कहा--सिर्फ एक कारण से, कि प्रेम ही पूर्णता में ले जाता है। क्योंकि प्रेम ही इतनी हिम्मत देता है कि ज्योति में ज्योति मिले, मिलि जाइए। राम तो अगर परमात्मा के सामने खड़े होंगे तो भी मर्यादा का ध्यान रखेंगे--कैसे खड़े हों कैसे बैठें, क्या कहें क्या न कहें, क्या उचित है क्या अनुचित है। कृष्ण नाचते हुए डूब जाएंगे और शायद कृष्ण को नाचते हुए डूबना भी न पड़े; कृष्ण नाचते रहें, परमात्मा उनमें डूब जाए, परमात्मा को उनमें डूबना पड़े। 

अब जैसे परमात्मा को अपने भीतर खोजना, वहां कोई भेद नहीं है कि कौन पहुंचेगा, कि ब्राह्मण पहुंच सकता है कि शूद्र नहीं पहुंच सकता है, कि कुलीन पहुंच सकते हैं, अकुलीन नहीं पहुंच सकते हैं। न इस बात का भेद है कि चरित्रवान पहुंच सकते हैं और चरित्रहीन नहीं पहुंच सकते। न इस बात का भेद है कि पुण्यात्मा पहुंच सकते हैं और पापी नहीं पहुंच सकते। पापी भी पहुंच गए हैं। बाल्या भील पहुंच गया। बड़े-बड़े पुण्यात्माओं को पीछे ढकेल कर पहुंच गया। और मरा-मरा जप कर पहुंच गया। राम-राम भूल ही गया। सीधा-सादा आदमी था। बे-पढ़ा-लिखा था। मंत्र उलटा-सुलटा हो गया तो भी पहुंच गया। मंत्र से कोई संबंध ही नहीं है। यही अर्थ है इस कहानी में बाल्या भील की, कि राम-राम की जगह भूल ही गया। मरा-मरा जपने लगा, उलटा कर लिया सब, विधि उल्टी हो गई, फिर भी पहुंच गया। क्योंकि विधियों की गिनती नहीं की जाती--प्रेम का सवाल है। और न मालूम कितने पंडित उन दिनों में राम-राम जपते रहे होंगे और नहीं पहुंचे। यह बाल्या कैसे पहुंच गया? यह भाव-प्रवण रहा होगा। इसके भीतर एक निर्दोषता रही होगी। यही निर्दोषता परमात्मा है।

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