सूर्योदय

इस दुनियामे किसी कृष्ण ने, मीरा ने, रबियाने किसी बुद्ध ने, मोहम्मद ने और कई सारे मनीषी ने एक ही वक्तव्य में एक स्वयं के होने से सनातन धर्म और धार्मिकता का अवतरण किया पर मनुष्यों ने इन लोगो के दिखलाए रास्तों में से अपने हिसाब से कई बार अलग अलग सांप्रदायिकता, संगठन, रूढ़ियो और धर्मो का निर्माण किया और हर एक के बारे में बनाने वाले ने ही एकदूसरे के विरुद्ध वक्तव्य दिए और मनुष्य इतना अजीब है कि जिन्होंने इन स्वयं के अनुभव के बिना निर्मित धर्मो को तोड़ने जुठलाने की कोशिश की उनकी भी मनुष्य ने रूढ़ियां संप्रदाय बना लिए हैं। बुद्ध ने लोगों को समझाया कि तुम स्वयं हो जाओ, और करोड़ों लोग बौद्ध बने बैठे हैं। अगर बुद्ध कहीं होंगे, तो अपना सिर ठोकते होंगे कि यह क्या पागलपन है? मैंने समझाया कि तुम स्वयं हो जाओ, अपने दीये बनो, और वे कहे रहे हैं कि हम ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ हम बुद्ध की शरण जाते हैं। बुद्ध कहते हैं: तुम किसी की शरण मत जाना, क्योंकि तुम्हारे भीतर वह बैठा है जिसको किसी की शरण जाने की कोई जरूरत नहीं, वह स्वयं आत्म-शरण है। वे कह रहे हैं: बुद्धं शरणं गच्छामि। बुद्ध कहते हैं, किसी की पूजा मत करना, किसी की मूर्ति मत बनाना। दुनिया में बुद्ध की जितनी मूर्तियां हैं उतनी किसी और की नहीं। उर्दू में तो शब्द बन गया है, बुत। बुत शब्द बुद्ध का ही अपभ्रंश है। इतनी मूर्तियां बन गईं कि जब अरब मुल्कों में मूर्तियां पहुचीं, तो वे बुद्ध की ही मूर्तियां थीं, लोगों ने पूछा: यह क्या है? तो लोगों ने कहा: बुद्ध। तो वे समझे कि बुद्ध यानी मूर्ति। इसलिए बुत शब्द बन गया। बुद्ध का ही रूप है बिगड़ा हुआ बुत। बुतपरस्ती, बुद्धपरस्ती का ही रूप है। और जिस आदमी ने मूर्ति का विरोध किया, उसकी इतनी मूर्तियां बन गईं! चीन में एक मंदिर है, दस हजार बुद्धों का मंदिर। उसमें, एक मंदिर में दस हजार बुद्ध की मूर्तिंयां हैं। अगर बुद्ध कहीं होंगे, तो उनकी क्या हालत होती होगी? कि यह क्या हो रहा है? महावीर नग्न रहे, सब छोड़ दिया, कुछ भी पास न रखा; महावीर के अनुयायियों के पास जाकर देखें, जितना पैसा इस मुल्क में उन्होंने इकट्ठा कर रखा है, उतना किसी के पास नहीं है। आश्चर्यजनक है! हैरान करने वाली बात है! आश्चर्यजनक है। लेकिन ऐसा ही हुआ है, इस्लाम का अर्थ है: शांति का धर्म। इस्लाम शब्द का अर्थ है: शांति, पीस। और इस्लाम मानने वालों ने जितनी अशांति दुनिया में फैलाई, उतनी किसी और ने नहीं फैलाई। आश्चर्य! यह क्या होता है दुनिया में? जीसस कहते हैं कि तुम्हारे गाल पर कोई एक चांटा मारे, तुम दूसरा उसके सामने कर देना। लेकिन जितनी तलवार ईसाईयों ने चलाई, जितनी आग ईसाईयों ने लगाई, जितने लोगों को उन्होंने मारा, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है कि उन्होंने कितनी हत्या की। कुछ है बात ऐसी, आदमी इतना नासमझ है कि जिस बात को तोड़ने के लिए कहा जाए, वह उसी को मजबूत करता चला जाता है। अब तक यही हुआ है। लेकिन आगे यह नहीं होना चाहिए। यह बहुत घातक सिद्ध हुआ है। और जिन चीजों से हम परेशान होते हैं, जिनसे हम दुखी होते हैं, हम हैरान होते हैं कि हम फिर उसी तरह की चीजें बना लेते हैं, फिर उसी तरह की भ्रांति कर लेते हैं। धार्मिक मनुष्य से अगर क्राइस्ट को छीन लो, राम को पकड़ लेगा, अगर राम को छीन लो, वह बुद्ध को पकड़ लेगा; अगर बुद्ध को छीन लो, वह कृष्ण को पकड़ लेगा। अगर सबको छीन लो, जीसस को, मोहम्मद को, तो वह स्टैलिन को पकड़ लेगा, माओ को पकड़ लेगा, किसी न किसी को पकड़ लेगा। वह आदमी का दिमाग पकड़ने वाला है। मैं जो कह रहा हूं वह यह नहीं कह रहा हूं कि आप दूसरों को छोड़ दें और मेरी बात को पकड़ लें। मैं यह कह रहा हूं कि पकड़ना गलत है। पकड़ें ही मत। आप अकेले काफी हैं। किसी को पकड़ने की किसी को कोई जरूरत नहीं है। कुछ समझ लेना चाहिए कि हम किन-किन धोखों में आज तक फंसे हैं? मनुष्यता किन-किन में फंसी है? और आगे भी फंस सकती है। मनुष्यता संगठन और सांप्रदायिकता के धोखे में फंसती रही है हमेशा से। ऑर्गनाइजेशन का धोखा। जब भी संगठन होगा, आदमी खतरे में पड़ेगा। संगठन हमेशा खतरनाक है। वह किसी का भी संगठन हो—वह हिंदू का हो, मुसलमान का हो, गांधीवादी का हो, साम्यवादी का हो, संगठन खतरनाक है। क्यों? क्योंकि संगठन व्यक्ति को मिटाता है और भीड़ को खड़ा करता है। व्यक्ति की आत्मा को पोंछता है और यंत्र को मजबूत बनाता है। वह कहता है कि तुम नहीं हो, मुसलमान है; तुम नहीं हो कम्युनिस्ट है; तुम नहीं हो, व्यक्ति नहीं है, हिंदू है, ब्राह्मण है, जैन है। व्यक्ति को पोंछता है संगठन। व्यक्ति की आत्मा को पोंछता है। भीड़ को इकट्ठा करता है। यंत्र को मजबूत करता है। व्यक्ति को डुबाता है, यंत्र को बढ़ाता है।  ऐसी दुनिया बन सके जिसमें संगठन न हो हिंदू, मुसलमान, कम्युनिस्ट, सोशियलिस्ट फैसिस्ट न हो, कोई संगठन न हो, व्यक्ति हों दुनिया में, तो दुनिया में युद्ध हो सकते हैं? व्यक्ति हों दुनिया में, तो दुनिया में कत्लेआम हो सकते हैं? व्यक्ति हों दुनिया में, तो हिंदुस्तान-पाकिस्तान हो सकते हैं? व्यक्ति हों दुनिया में, तो मस्जिद और मंदिर की दुश्मनी हो सकती है? व्यक्ति हों दुनिया में तो प्रेम हो सकता है। यह अब तक माना जाता रहा है कि हर आदमी को किसी ढांचे में बंधा हुआ होना चाहिए, किसी पैटर्न में। किसी आदमी को मुक्त नहीं होना चाहिए। और जो आदमी भी जितना ढांचे में बंधा होगा, उतना ही जड़ होगा। उतनी ही उसके भीतर चेतना कम होगी। रूढ़ियों का मतलब है: ढांचे। और ढांचों में बंधने का आग्रह इतना पुराना है कि बच्चा पैदा हुआ कि हमने ढांचा बिठालना शुरू किया। हम किसी बच्चे को वही नहीं बनने देना चाहते जो वह बन सकता है। हम कहते हैं, हम तुम्हें जो बनाएं, वह तुम बनो। हम बच्चे से कहते हैं, गांधी जैसे बनो। क्यों? किसी बच्चे का कोई कसूर है? वह क्यों गांधी जैसा बने? महावीर जैसे बनो, बुद्ध जैसे बनो, कृष्ण जैसे बनो, कोई बुद्ध ने या महावीर ने कोई कृष्ण ने ठेका ले रखा है कि हर आदमी उन जैसा बने। और कोई चाहे तो भी बन सकता है। महावीर बहुत अदभुत हैं, गांधी भी बहुत अदभुत हैं, राम भी बहुत अदभुत हैं, कृष्ण भी अदभुत है लेकिन कोई दूसरा राम जैसा क्यों बने? क्या जरूरत है? और अगर बहुत राम, कृष्ण, बुद्ध या फिर कोई और होंगे, तो ध्यान रहे, स्वयं के होने का मजा भी चला जाएगा। यही हो गया है सारी दुनिया में। हम रूढ़ियों में, ढांचों में, पैटर्न में, आइडियालॉजी में, अतीत से, शास्त्रों में बंधे हुए लोग जिंदा नहीं रह गए हैं, मुर्दा हो गए हैं। यह मुर्दापन तोड़ना जरूरी है। इस मुर्दापन के खिलाफ बगावत जरूरी है। इस मुर्दापन को बिलकुल ही मिटा देना जरूरी है, ताकि जीवन की किरण, जीवन की आशा, जीवन का सपना, जीवन का भाव उदय हो सके। लेकिन हम अपने देश में यह कहते हैं, हम यह कहते हैं कि सिद्धांत तो सत्य हैं, शास्त्र सत्य हैं, ढांचे सत्य हैं, आदर्श सत्य हैं, गलत है तो आदमी है। और मैं आपसे कहना चाहता हूं, आदमी गलत बिलकुल नहीं है, गलत हैं तो ढांचे हैं, गलत हैं तो सिद्धांत हैं, गलत हैं तो शास्त्र हैं। असल में ढांचे का होना ही गलत है। एक-एक आदमी को बढ़ने दो, उसकी शाखाएं निकलने दो, उसके फूल निकलने दो, उसको पानी दो, खाद दो, लेकिन उसके लिए बंधा हुआ पैटर्न मत दो, ढांचा मत दो; उसे सम्हालो, उसे बढ़ाओ, उसकी रक्षा करो, लेकिन बताओ मत कि शाखा पूरब जाए कि पश्चिम, कि कितनी दूर जाएगी कि न जाए। यह सब मत बताओ, उसको गति दो, प्राण दो, जीवंतता दो; फलने दो, फूलने दो, उसे अपने ही जैसा होने दो। पुराने को हम गिराएंगे नहीं, नया बनेगा नहीं। पुराने को गिराने की हिम्मत करनी जरूरी है। क्योंकि वही हिम्मत नये के निर्माण की हिम्मत भी बनती है। समाज के संबंध में भी, सभ्यता के संबंध में भी, संस्कृति के संबंध में भी पुराने को गिराने की हिम्मत चाहिए। और अपने संबंध में भी अपने पुराने को, अपने पुराने व्यक्तित्व को, अहंकार को गिराने की हिम्मत चाहिए। जो व्यक्ति अपने पुराने को गिरा देता है वह नया हो जाता है। प्रभु से मिल जाता है। और जो समाज अपने पुराने को गिरा देता है, वह भी नया हो जाता है। और प्रभु के रास्ते पर गतिमान हो जाता है। धर्म व्यक्ति को भी नया करना चाहता है, समाज को भी। धर्म व्यक्ति को भी जोड़ना चाहता है सनातन से, सत्य से; समाज को भी, संस्कृति को भी। हम दोनों ही अर्थों में पिछड़ गए हैं। न धर्म समाज के लिए है, न व्यक्ति के लिए रह गया है। क्योंकि धर्म पुराने को पकड़ने वाला रह गया है। धर्म चाहिए नित-नूतन, रोज नया, ताजा, जैसे सूरज सुबह उगता, सुबह नये फूल खिलते, ऐसा ही नया-नया रोज सत्य चाहिए। नया सत्य ही रूपांतरण करता है और क्रांति देता है। ये इस नये सत्य की खोज के लिए कुछ बातें मैंने कहीं, उन बातों को मान नहीं लेना है। मैं कोई गुरु नहीं, कोई उपदेशक नहीं, कोई पुरोहित नहीं, मैं कोई आप्तवचन देने वाला नहीं, मैं कोई ऑथेरिटी नहीं। अपनी बात मैंने कही, मेरी बात को जो चुपचाप मान लेगा वह मेरा दुश्मन हुआ। मेरी बात को चुपचाप मत मान लेना। सोचना, लड़ना-झगड़ना, विचार करना, तर्क करना, खंडन करना, और जब कोई रास्ता न मिले और मेरी बात में कहीं कोई सत्य दिखाई पड़े, सोच-विचार, चिंतन-मनन, ध्यान, समाधि पर कुछ भी सत्य दिखाई पड़े, तो फिर वह मेरा नहीं रह जाएगा, वह आपके विचार से आता है तो फिर आपका हो जाता है। और जो सत्य आपका है, वही सत्य है। वही धर्म है। वही असली सूर्योदय है जीवंतता का। 

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