कर्म फल

जब हम बुरा कर्म करते हैं तो लोग कहते हैं कि बुरा परिणाम मिलेगा, अच्छा काम करेंगे तो अच्छा परिणाम मिलेगा। यह जो हम सोचते हैं, मिलेगा, फ्यूचर की भाषा में, यह गलत है। हमने बुरा काम किया, उसी क्षण बुरा हो गया। कुछ आगे नहीं मिलेगा। उसी क्षण हमारे भीतर कुछ बुरा हो गया। हमने कुछ भला किया, उसी क्षण हमारे भीतर कुछ भला हो गया। हम अपने को कांस्टेंटली क्रिएट कर रहे हैं। हमारा प्रत्येक कर्म हमको बना रहा है। बनाएगा नहीं, इसी क्षण बना रहा है। हम अगर ठीक से जिसको जीवन कहते हैं, वह जीवन ही नहीं है, वह एक सेल्फ क्रिएशन भी है। जो-जो हम कर रहे हैं, उससे हम बन रहे हैं। हमारे भीतर कुछ बन रहा है, कुछ घना हो रहा है। कुछ अपने ही भीतर हम अपने चैतन्य का निर्माण कर रहे हैं। तो हम जो-जो कर रहे हैं, उसके, ठीक उसके अनुकूल या उसके जैसा हमारे भीतर कुछ बनता चला जा रहा है। तो लोग कहते हैं कि नरक में आप चले जाएंगे, या स्वर्ग में चले जाएंगे। वे कुछ इस तरह की बात करते हैं जैसे नरक और स्वर्ग कोई ज्योग्रॉफी में कहीं होंगे। लोग जिस तरह की बात करते हैं, मैं ऐसा नहीं करता। नरक और स्वर्ग ज्योग्रॉफी में नहीं हैं, साइकोलॉजी में हैं। वह भौगोलिक धारणाएं नहीं हैं, मानसिक धारणाएं हैं। जब आप बुरा करते हैं, उसी क्षण नरक में चले जाते हैं। मेरी धारणा मैं आपको कह रहा हूं। जब मैं क्रोध करता हूं, तो मैं उत्तप्त हो जाता हूं और अग्नि की लपटों में अपने आप चला जाता हूं, उसी वक्त! तो नरक में आप कभी चले जाएंगे, ऐसा नहीं है या स्वर्ग में आप कभी चले जाएंगे, ऐसा नहीं है। चौबीस घंटे में आप अनेक बार नरक में होते हैं और अनेक बार स्वर्ग में होते हैं। जब-जब आप क्रोध से भरते हैं, उत्ताप तीव्र वासना से भरते हैं, तब-तब आप अपने भीतर नरक को आमंत्रित कर लेते हैं। तो लोग कहते हैं कि आप नरक में चले जाएंगे या स्वर्ग में चले जाएंगे। मेरा मानना ऐसा है कि आपमें नरक और स्वर्ग अनेक बार आ जाता है। वह आपकी मानसिक घटना है। कहीं जमीन फोड़ कर नीचे नरक नहीं मिलेगा और कहीं आकाश में खोजने से कहीं कोई स्वर्ग नहीं मिल जाएगा। असल में, यह तो हमारी, कष्ट की कल्पनाएं जो हैं, उनको हम इस भांति परिवेश में कल्पित कर लेते हैं। कष्ट मानसिक घटना है, भौगोलिक घटना नहीं है। अभी भी, आप जब बुरा करते हैं, तो आपके भीतर अत्यंत कष्टप्रद स्थितियों का निर्माण होता है। तो अभी कभी-कभी होता है, अगर आप निरंतर बुरा करते जाएंगे तो वह सतत होने लगेगा, और करते चले जाएंगे तो एक घड़ी ऐसी आ सकती है कि आप चौबीस घंटे नरक में होंगे। तो आदमी, आम आदमी कभी नरक में होता है, कभी स्वर्ग में होता है। फिर बहुत बुरा आदमी, अधिकतर नरक में रहने लगता है। फिर बिलकुल बुरा आदमी, चौबीस घंटे नरक में रहने लगता है। भला आदमी स्वर्ग में रहने लगता है। और भला आदमी और स्वर्ग में रहने लगता है। बिलकुल भला आदमी बिलकुल स्वर्ग में रहने लगता है। जो भले और बुरे दोनों से मुक्त है, वह आदमी मोक्ष में रहने लगता है। मोक्ष में रहने लगने का मतलब यह है: कोई स्थान नहीं है यह, कहीं स्पेस में खोजने पर यह जगह नहीं मिलेंगी कि यह रहा स्वर्ग और यह रहा नरक। यह मनुष्य की जो साइकोलॉजी है, उसका जो मानसिक जगत है, उसके विभाजन हैं। तो मानसिक जगत के तीन विभाजन हैं: नरक, और स्वर्ग, और मोक्ष। नरक से, जिसको मैंने आज सुबह कहा दुख; स्वर्ग से, जिसको मैंने आज सुबह कहा सुख; और मोक्ष से मेरा मतलब है: न सुख, न दुख, वह जो आनंद है।

तो यह मत सोचिए कि कल कभी ऐसा होगा कि हम बुरा करेंगे तो उसका बुरा फल होगा। यह मत सोचिए कि हम भला करेंगे तो उसका भला फल होगा। जो भी हम कर रहे हैं, साइमलटेनियसली, उसी वक्त, क्योंकि यह हो ही नहीं सकता कि मैं अभी क्रोध करूं और अगले जन्म में मुझे उसका फल मिले, यह बड़ी डिलेड हो जाएगी, यह बात फिजूल हो जाएगी। क्योंकि इतनी देर क्या होगा? मैं अभी क्रोध करूं, अगले जन्म में मुझे फल मिले, यह बात बड़ी फिजूल हो जाएगी। इतनी देर क्यों होगी? मैं जब क्रोध कर रहा हूं, क्रोध करने में ही मैं क्रोध का फल भोग रहा हूं। क्रोध के बाहर क्रोध का फल नहीं है। क्रोध ही मुझे वह पीड़ा दे रहा है, जो क्रोध का फल है। और जब मैं अक्रोध कर रहा हूं, तो मुझे उसी क्षण फल मिल रहा है, क्योंकि अक्रोध का जो आनंद है, वही उसका फल है। जब मैं किसी की हत्या करने जा रहा हूं, तो हत्या करने में ही मैं वह कष्ट भोग रहा हूं जो कि हत्या करने का है। और जब मैं किसी की जान बचा रहा हूं, तो उस जान बचाने में ही मुझे वह सुख मिल रहा है जो कि उसमें छिपा है। 

कर्म ही फल है। कर्म का कोई फल नहीं होता, कभी भविष्य में नहीं। वर्तमान कर्म ही, प्रत्येक कर्म का अपना स्वयं उपलब्ध फल है।

तो बुरा कर्म मैं उसको नहीं कहता जिसके बाद में बुरे फल मिलेंगे। बुरा कर्म मैं उसको कहता हूं जिसका बुरा फल उसी क्षण तुम्हें मिल रहा है। उस फल को जांच कर ही अनुभव कर लेना कि कर्म बुरा है या भला है। जो कर्म अपनी क्रिया के भीतर ही दुख देता हो, वही कर्म बुरा है।

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