कृतज्ञता

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डगर-डगर तू गाता चल, यह मस्ती बिखराता चल
जो भी राही मिले राह में, सबको प्रेम लुटाता चल

डोल रहे हैं मदहोशी में, यह बस्ती दीवानों की
पिए प्रेम की मदिरा हैं जो, बात उन्हीं मस्तानों की
ऐसा नर्तन, गायन, उत्सव, और कहीं पर मिला नहीं
जली हुई है यहां शमा और भीड़ लगी परवानों की
तू भी साज बजाता चल, हंसता और हंसाता चल
यह जो है बासंती दुनिया, उसके रंग लुटाता चल

हिम्मत वाले, दिल वाले जो, यह मजमा उन प्यारों का
लगे हुए जो नई सृष्टि में, यह मजमा उन यारों का
जिसकी प्रभु से प्रेम-सगाई, जो उसमें ही डूब गया
जो बेशर्त गंवा बैठे दिल, मजमा उन दिलदारों का
तू भी दांव लगाता चल, मन की मौज बढ़ाता चल
हिलमिल जा तू भी इन सबसे, सबको गले लगाता चल

जाति-वर्ग का भेद नहीं है, नहीं राष्ट्र का बंधन है
जो भी खोजी हैं, प्यासे हैं, उन सबका अभिनंदन है
नहीं शर्त है, बंदिश कोई, जीवन जिसको प्यारा है
उनमें फूल लगेंगे निश्चित, उन सबका मधु-वंदन है
तू भी आता-जाता चल, डुबकी यहां लगाता चल
यह तीर्थों का तीर्थ, यहां पर आकर पुण्य कमाता चल

कह सकते हैं धरतीवासी--यह अभियान हमारा है
यहां कला-विज्ञान मिल रहे--यह उद्यान हमारा है
तरह-तरह के फूल खिले हैं, सबकी गंध अनूठी है,
सभी नहाएं स्वर-गंगा में--यह आह्वान हमारा है
तू भी बीन बजाता चल, कुछ संगीत सुनाता चल
यह धरती ही स्वर्ग बनेगी, सुंदरता बिखराता चल

डगर-डगर तू गाता चल, यह मस्ती बिखराता चल
जो भी राही मिले राह में, सबको प्रेम लुटाता चल

एक संन्यास है--बूढ़ों का, मुर्दों का। एक संन्यास है--युवाओं का, जो अभी जीवंत हैं। और ध्यान रहे, बुढ़ापा शरीर की बात नहीं, मन की हारी हुई अवस्था का नाम है। जवान भी बूढ़ा हो सकता है। बच्चा भी बूढ़ा हो सकता है। और जवानी भी उम्र की बात नहीं, एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। बूढ़ा भी जवान हो सकता है। जीवन से जिसका प्रेम है, वह युवा है। और जीवन से जिसका प्रेम नहीं है, वह बूढ़ा है। जीओ! समग्रता से जीओ! और तुम सच्चे संन्यास को जान सकोगे यह वैराग्य, राग की आत्यंतिकता में से निकलता है। राग के बीज में से ही यह विराग का फूल खिलता है। यह विराग उनका नहीं है, जो राग को छोड़ गए हैं डर कर, पीठ कर ली है जिन्होंने। यह दमन करने वालों का संन्यास नहीं है। और मैं पुनः दोहरा दूं  जब भी संन्यास पृथ्वी पर आया है--चाहे याज्ञवल्क्य का हो, चाहे उद्दालक का, चाहे बुद्ध का, चाहे कबीर का, चाहे जरथुस्त्र का, चाहे बहाउद्दीन का--जब भी संन्यास पृथ्वी पर आया है, तो गाता हुआ आया है, नाचता हुआ आया है। उसके हाथ में सदा ही वीणा है; उसके ओंठों पर सदा वंशी है; उसके प्राणों में सिर्फ एक स्वर है--अहोभाव का, धन्यता का। धन्य हैं हम कि इस महान अस्तित्व के हिस्से हैं। धन्यभागी हैं हम कि इस विराट अस्तित्व ने हमें जीवन दिया, हमारे प्राणों में श्वास फूंकी। यही कृतज्ञता संन्यास है।

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