जेण तच्चं विवुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि।
जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे।।
जिससे आत्मा विशुद्ध हो, जिससे चित्त का निरोध हो, जिससे सत्य का बोध हो, उसे ही जिन्होंने जाना उन्होंने ज्ञान कहा है। शास्त्र से मिल जाए जो ज्ञान, काम का नहीं। आत्मा में डुबकी लगाकर मिले, तो ही काम का है। शास्त्र से मिला ज्ञान तो बड़ा ऊपर-ऊपर है। उससे तुम बदलते नहीं, बदलते हुए मालूम भी नहीं पड़ते। उससे तुम्हें बदलने का धोखा भर पैदा हो जाता है--एक प्रवंचना। जिस सत्य की प्रतीति तुम्हें नहीं हुई, उस सत्य को तुम अगर पूरा भी करते रहो, तो भी तुम्हारी आत्मा से उसका कोई तालमेल नहीं होता।
महावीर के सामने सवाल था धर्म बच जाए और अंधविश्वास हट जाए। तो उन्होंने एक ऐसे धर्म को जन्म दिया, जिसमें नास्तिकता भी है और आस्तिकता भी। यह उनका अदभुत समन्वय था। इसलिए उन्होंने कहा, ईश्वर तो नहीं है। क्योंकि ईश्वर के साथ अंधविश्वास आने शुरू हो जाते हैं। ईश्वर किसी की पकड़ में आता नहीं। न समझ में आता। ईश्वर इतने दूर का तारा है कि हमारी आंखें उसे देख भी नहीं पातीं। तो स्वभावतः इतने दूर की चीज को समझने के लिए बीच में दलाल खड़े करने होते हैं। यात्रा इतनी लंबी है कि बीच के पड़ाव बनाने पड़ते हैं। वे ही पड़ाव मंदिर और मस्जिद, गुरुद्वारा बन जाते हैं। वे ही पड़ाव पंडित-पुरोहित बन जाते हैं।
तो पुरोहित कहने लगता है, तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता, लेकिन मेरा सीधा संबंध है। पुरोहित कहने लगता है, तुम फिकिर मत करो, तुम्हारे लिए मैं प्रार्थना कर दूंगा। तुम चिंता छोड़ो। यह तुमसे न हो सकेगा। तुम बड़े असहाय, बड़े कमजोर, बड़े सीमित हो। तो एक व्यवसाय खड़ा होता है मनुष्य और परमात्मा के बीच में। परमात्मा तो नहीं मिलता, परमात्मा के नाम पर धोखाधड़ी हाथ में आती है। तो महावीर ने परमात्मा को तो इनकार कर दिया। इसलिए नहीं कि परमात्मा नहीं है। बल्कि इसलिए कि परमात्मा के कारण ही आस्तिक आस्तिक नहीं हो पा रहा है। महावीर परम आस्तिक थे इसलिए परमात्मा को इनकार कर दिया। क्योंकि देखा, यह औषधि तो बीमारी से भी महंगी पड़ रही है। इस औषधि को लाते ही चिकित्सक बीच में खड़ा हो जाता है। बीच में दुकानदार खड़ा हो जाता है। परमात्मा को इनकार कर दिया। लेकिन परमात्मा को इस तरह इनकार नहीं किया जैसा चार्वाक, लोकायत और नास्तिक करते हैं। परमात्मा को बाहर तो इनकार कर दिया और भीतर स्थापित कर दिया। कहा, मनुष्य के भीतर है परमात्मा। जो भीतर है, उसके लिए पंडित और पुरोहित की जरूरत नहीं। वह इतने पास है, जगह कहां कि तुम अपने बीच और परमात्मा के बीच में पुरोहित को खड़ा कर लो। इतनी भी जगह नहीं। इतना भी स्थान नहीं। तुम ही परमात्मा हो। इसलिए कहीं दूर का संदेश नहीं है, संदेशवाहक की जरूरत नहीं है। कहीं चिट्ठी-पाती लिखनी नहीं है, इसलिए डाकिये की कोई जरूरत नहीं है। आंख बंद करो, जागो, वह मौजूद है। इसलिए महावीर ने आत्मा को परमात्मा के पद पर उठाया। यह बड़ी अनूठी दृष्टि थी। इस तरह नास्तिक के पास जो खूबी की बात थी--अंधविश्वास नहीं--वह भी महावीर ने पूरी कर ली और आस्तिक के पास जो खूबी की बात थी--धर्मभाव, श्रद्धा--वह भी पूरी कर ली। ऐसा अदभुत समन्वय न इसके पहले कभी हुआ था, न इसके बाद हुआ।
कुफ्रो-इलहास से नफरत है मुझे
और मज़हब से भी बेज़ार हूं मैं
नास्तिकता और अधर्म से भी नफरत है, और मजहब से भी बेजार हूं मैं। और धर्म के नाम पर जो चल रहा है, वह भी मन को बहुत पीड़ा देता है।
हूरो-गिल्मां का यहां जिक्र नहीं
नौए-इंसा का परस्तार हूं मैं।
और यहां स्वर्ग के सुखों की कोई बात नहीं, मैं तो सिर्फ आदमीयत, इंसानियत का उपासक हूं। महावीर ने आदमी को, ‘अत्ता’ को, आत्मा को सर्वश्रेष्ठ स्थान पर रखा।
जिससे सत्य का बोध हो, उसे ही जिन्होंने जाना उन्होंने ज्ञान कहा है। शास्त्र से मिल जाए जो ज्ञान, काम का नहीं। आत्मा में डुबकी लगाकर मिले, तो ही काम का है। शास्त्र से मिला ज्ञान तो बड़ा ऊपर-ऊपर है। उससे तुम बदलते नहीं, बदलते हुए मालूम भी नहीं पड़ते। उससे तुम्हें बदलने का धोखा भर पैदा हो जाता है--एक प्रवंचना। जिस सत्य की प्रतीति तुम्हें नहीं हुई, उस सत्य को तुम अगर पूरा भी करते रहो, तो भी तुम्हारी आत्मा से उसका कोई तालमेल नहीं होता।
तो तुम्हें याद भी आ जाए तुम्हारी महिमा, तुम्हारे स्वरूप की थोड़ी-सी झलक भी, स्वप्न ही सही--अंधेरी से अंधेरी रात में भी तुम्हें सुबह का स्वप्न भी आ जाए--तो रात टूटने लगी। इसलिए महावीर ने ये सूत्र कहे हैं-- ‘जिससे तत्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है, तथा आत्मा विशुद्ध होती है, उसी को जिन-शासन ने ज्ञान कहा है।’
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