आलोचना और निंदा

ऐसा कोई सदगुरु नहीं हुआ पृथ्वी पर जिसने आलोचना न की हो।भेद क्या है? आलोचना और निंदा का भेद सूक्ष्म है। कभी-कभी निंदा आलोचना जैसी मालूम हो सकती है और कभी-कभी आलोचना निंदा जैसी मालूम हो सकती है। बहुत करीब नाता-रिश्ता है। उनका रूप-रंग एक जैसा है, मगर उनकी आत्मा बड़ी भिन्न है। आलोचना होती है करुणा से, निंदा होती है घृणा से। आलोचना होती है जगाने के लिए, निंदा होती है मिटाने के लिए। आलोचना का लक्ष्य होता है सत्य का आविष्कार, निंदा का लक्ष्य होता है दूसरे के अहंकार को गिराना, धूल-धूसरित करना, पैरों में दबा देना। निंदा का लक्ष्य होता है दूसरे की आत्मा को कैसे चोट पहुंचाना, कैसे घाव करना? आलोचना का लक्ष्य होता है, सत्य को कैसे खोजें? धूल में पड़ा हीरा है, इसे कैसे धो लें, शुद्ध कर लें? आलोचना अत्यंत मैत्रीपूर्ण है, चाहे कितनी ही कठोर क्यों न हो, फिर भी उसमें मैत्री है और निंदा चाहे कितनी ही मधुर क्यों न हो, मीठी क्यों न हो, उसमें जहर है। शायद जहर ही शक्कर में लपेटकर दिया जा रहा है। निंदा उठती है अहंकार-भाव से--मैं तुम से बड़ा, तुम्हें छोटा करके दिखाऊंगा आलोचना का संबंध अहंकार से नहीं है। आलोचना का संबंध मैं-तू से नहीं है। आलोचना इस बात का अन्वेषण है कि सत्य क्या है, सत्य कैसा है? आलोचना बहुत कठोर हो सकती है, क्योंकि कभी-कभी असत्य को काटने के लिए कृपाण का उपयोग करना होता है। असत्य की चट्टानें हैं तो सत्य के हथौड़े और छैनियां बनानी पड़ती हैं।उनकी चोट ऐसी है कि टुकड़े-टुकड़े कर जाये; लेकिन तुम्हें नहीं टुकड़े-टुकड़े कर जाये, तुम्हारे असत्य को। जब तुम चोर पर हमला कर दो तो निंदा है और जब तुम चोरी पर हमला करो तो आलोचना। जब तुम पापी को घृणा करने लगो तो निंदा और जब तुम पाप को घृणा करो तो आलोचना। निंदा तो योगी नहीं कर सकता। निंदा का तो रस ही अत्यंत मूर्च्छित व्यक्ति में होता है। निंदा का मनोविज्ञान क्या है? दुनिया के अधिकतम लोग निंदा में पड़े होते हैं; मनोविज्ञान क्या है? मनोविज्ञान बहुत सीधा-साफ है। प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि मेरे अहंकार की प्रतिष्ठा हो, कि मैं सबसे बड़ा! इसको सिद्ध करना बहुत कठिन है। मैं सबसे बड़ा, यह बात सिद्ध करनी बहुत कठिन है, क्योंकि और भी सभी लोग इसी को सिद्ध करने में लगे हैं। और वे लोग एक ही बात को सिद्ध करना चाहते हैं कि मैं सबसे बड़ा। और यह में और तू निंदा का मनोविज्ञान हैं, अहंकार है। में और तू के पार की आलोचना संवाद है जो निर अहंकारी है। दो लोगो के बीच जब विवाद होता है तब दोनो हारते है, वह निंदा का परिणाम है। और जब दो लोगो के बीच संवाद हो तब दोनो जीतते है वह आलोचना का परिणाम है। 

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