क्षण



समय के तत्व को जो समझ लेता है, वह यह भी समझ लेता है कि अगर मुझे समय के बाहर होना है, तो मुझे वासना के बाहर हो जाना पड़ेगा। और अगर मुझे वासना के बाहर होना है या समय के बाहर होना है, वासना में जो बहुत दौड़ते हैं वे भी, वासना में जो कम दौड़ते हैं वे भी, दोनो के अनुपात तो बराबर होता है। अनुपात में फर्क नहीं पड़ता। लेकिन फिर भी, जो कम वासना में दौड़ते हैं, वे पानी की सतह के करीब होते हैं। और जो ज्यादा वासना में दौड़ते हैं, वे पानी की गहराइयों में होते हैं। कम वासना में दौड़ने वाला आदमी झटके से छलांग ले सकता है समय के बाहर। ज्यादा वासना में दौड़ने वाले को उतना ही कठिन हो जाता है। समय ही नहीं मिलता कि समय के बाहर निकल सके। 

अव्यक्तात्‌ व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।। 
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे।। 
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।। 

कृष्ण कहते है वे जो काल के तत्व को जान लेते हैं, वे इसी का प्रयोग करते हैं। वे क्षण में जीना शुरू करते हैं। समय में नहीं, क्षण में। नाट इन टाइम, बट इन दि मोमेंट। एक क्षण है अभी मेरे पास; और एक क्षण से ज्यादा किसी आदमी के पास कभी होता नहीं। कितना ही बड़ा आदमी हो, कितना ही छोटा आदमी हो, दीन हो, दरिद्र हो, सम्राट हो, कमजोर हो कि शक्तिशाली हो, अज्ञानी हो कि ज्ञानी हो, एक क्षण से ज्यादा किसी के हाथ में कभी इकट्ठा नहीं होता। जब एक क्षण सरक जाता है, तब दूसरा क्षण हाथ में आता है। एक क्षण से ज्यादा किसी के पास नहीं होता। अगर कोई इस एक क्षण में ही जीना शुरू कर दे, आने वाले क्षण की वासना न करे, चिंता न करे, आकांक्षा न करे; बीते हुए क्षण को भूल जाए, छोड़ दे, स्मृति के बाहर कर दे; इस क्षण में ही ठहर जाए--तो ऐसे आदमी को वासना में जाने का उपाय नहीं होगा। क्योंकि वासना इसी क्षण में नहीं हो सकती। इसी क्षण में तो केवल प्रार्थना ही हो सकती है। इसी क्षण में तो केवल ध्यान ही हो सकता है। इसी क्षण में तृष्णा नहीं हो सकती। तृष्णा के लिए एक क्षण से ज्यादा चाहिए। फैलाव के लिए, विस्तार के लिए भविष्य चाहिए। और भविष्य के फैलाव के लिए अतीत में जड़ें और स्मृति चाहिए। अगर अतीत भी नहीं, भविष्य भी नहीं, यही क्षण है, तो समय गिर गया और वासना भी गिर गई। इसलिए ज्ञानी क्षण में जीना शुरू कर देता है, अभी और यहीं। और जैसे ही कोई अभी और यहीं जीता है, समय के बाहर हो जाता है। क्षण जो है, समय के बाहर होने का द्वार है। वैज्ञानिक खोजों ने पदार्थ के अंतिम कण पर मनुष्य को पहुंचा दिया, एटम पर, अणु पर पहुंचा दिया, परम अणु पर पहुंचा दिया। फिर परम अणु का भी विभाजन हो गया और परम अणु का भी विभाजित हिस्सा इलेक्ट्रान हाथ में आ गया। लेकिन एक बड़ी अदभुत घटना घटी, परमाणु के टूटते ही पदार्थ खो जाता है। परमाणु के टूटते ही पदार्थ खो जाता है। और इधर बीस वर्षों में विज्ञान की जो बड़ी से बड़ी उपलब्धि है, वह यह है कि अब पदार्थ जगत में नहीं है। तीन सौ वर्ष पहले जो विज्ञान सोचकर चला था कि परमात्मा जगत में नहीं है, कोई सोच भी नहीं सकता था.अगर आज पुराने वैज्ञानिकों को कब्रों से उखाड़ा जाए, न्यूटन को उखाड़ा जाए कब्र से या गैलीलियो को, तो वे विश्वास न कर सकेंगे कि यह विज्ञान ने कौन-सी उपलब्धि कर ली! सोचते थे कि ईश्वर खो जाएगा, आत्मा खो जाएगी। इस सदी के प्राथमिक समय में भी सभी वैज्ञानिक इस खयाल से भरे थे कि आत्मा-परमात्मा के बचने की कोई जगह नहीं। पदार्थ ही सत्य है, मैटर इज़ दि ओनली रियलिटी। लेकिन इधर उन्नीस सौ पचास के करीब जो प्रतीति गहन होने लगी, वह यह है कि मैटर इज़ दि मोस्ट अनरियल थिंग, पदार्थ है ही नहीं। जैसे ही परमाणु टूटता है, पदार्थ खो जाता है और परमाणु के टूटते ही पदार्थ के बाहर प्रवेश हो जाता है, अपदार्थ में, नान-मैटीरियल में प्रवेश हो जाता है।

ठीक ऐसे ही समय का जो आखिरी टुकड़ा है, उसका नाम क्षण है, कहें कि वह समय का परमाणु है, क्षण। जो व्यक्ति क्षण में ठहर जाता है, वह समय के बाहर हो जाता है। जैसे परमाणु में जो व्यक्ति प्रवेश करता है, वह पदार्थ के बाहर हो जाता है, वैसे ही जो व्यक्ति क्षण में, समय के परमाणु में प्रवेश करता है, वह समय के बाहर हो जाता है। विज्ञान ने पदार्थ की खोज करके परमाणु पाया और परमाणु के बाहर द्वार पाया, जहां से अपदार्थ में, अव्यक्त में, अनमैनिफेस्टेड में प्रवेश हो जाता है। ठीक ऐसे ही पूरब के धर्म ने, पूरब के धर्म के खोजियों ने, समय की खोज की ज्यादा। क्योंकि उनके इरादे कुछ और थे; उनके इरादे उसको जानने के थे, जो इटरनल है, शाश्वत है, सनातन है। उन्होंने समय की खोज की और समय के आखिरी टुकड़े को खोजा, जिसका नाम उन्होंने क्षण दिया है। उसको कहें टाइम एटम, कहें समय का परमाणु। और जब वे समय के इस परमाणु के भीतर प्रविष्ट हुए, खड़े हुए, उन्होंने पाया, टाइम सिंपली डिसएपियर्स, समय खो जाता है। और फिर जो बचता है, वही शाश्वत, सनातन, नित्य है। 

समय के रहस्य को जानने वाले के लिए कृष्ण कहते हैं, जो समय के, काल के इस तत्व को जान लेता है, इस क्षण के द्वार को पहचान लेता है और समय के बाहर होने की कला जिसे आ जाती है, वह संपूर्ण दृश्यमात्र भूतगण ब्रह्मा के दिन के प्रवेशकाल में अव्यक्त से उत्पन्न होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेशकाल में उसी अव्यक्त में लय होते हैं इस तत्व का भी ज्ञाता हो जाता है। ब्रह्मा के दिन के प्रवेशकाल में, ब्रह्मा के प्रथम मुहूर्त क्षण में, जब ब्रह्मा का दिन शुरू होता है.। चौबीस घंटे हमारे जैसे हैं, बारह घंटे का दिन और बारह घंटे की रात भी मान लें, तो ब्रह्मा की जब सुबह होती है, ब्रह्ममुहूर्त! अभी भी हम सुबह के क्षण को ब्रह्ममुहूर्त कहते हैं, सिर्फ इस याददाश्त में कि कभी हमें वास्तविक ब्रह्ममुहूर्त का भी पता चल जाएगा। जिसे हम ब्रह्ममुहूर्त कहते हैं, वह ब्रह्ममुहूर्त नाम मात्र को है।
ब्रह्ममुहूर्त का अर्थ है, ब्रह्मा का वह क्षण, जब जगत शुरू होता है, जीवन प्रारंभ होता है, पदार्थ आविर्भूत होते हैं, व्यक्त होते हैं और लीला शुरू होती है। सुबह वह लीला शुरू होती है, सांझ होते-होते वह लीला अपने शिखर पर पहुंच जाती है। और जब भी कोई चीज शिखर पर पहुंचती है, तो उतरना शुरू हो जाती है। फिर रात ब्रह्मा की, और सब चीजें बिखरती जाती हैं, उतरती चली जाती हैं। और अंतिम क्षण में रात्रि के, जो जगत प्रकट हुआ था, वह पुनः अप्रकट में लीन हो जाता है। और फिर सुबह, और फिर सांझ, और फिर सुबह, ऐसा वर्तुलाकार ब्रह्मा का समय चलता रहता है। ये पदार्थ अव्यक्त से उत्पन्न होते हैं। अव्यक्त का अर्थ है, दि अनमैनिफेस्टेड, जो प्रकट नहीं है। उससे प्रकट होता है सब। जो छिपा है, उससे प्रकट होता है सब। जो गुप्त है, उससे प्रकट होता है सब। कोई फिजिसिस्ट कह सकता है कि यह वक्तव्य न केवल धर्म का वक्तव्य है, यह वक्तव्य विज्ञान का भी वक्तव्य है। क्योंकि परमाणु के विभाजन के बाद विज्ञान ने पाया कि वह जो प्रकट परमाणु था, अचानक अप्रकट में लीन हो जाता है।
इसके पहले तक कभी विज्ञान को खयाल नहीं था और यह इल्लाजिकल भी है। यह वक्तव्य बहुत अतार्किक है, तर्कहीन है। बुद्धिमत्ता इसका समर्थन न करेगी, बुद्धि इसके सहयोग में खड़ी न होगी। क्यों? क्योंकि व्यक्त अगर प्रकट होता है अव्यक्त से, तो इसका तो अर्थ हुआ कि शून्य से पूर्ण का जन्म होता है। इसका तो अर्थ हुआ कि जो नहीं है, उससे, जो है, वह निकल आता है। इसका तो अर्थ हुआ, जो कहीं नहीं पाया जाता, उससे भी, सारा जो सब जगह पाया जाता है, उसका फैलाव है। यह तो बहुत तर्क में बात आती नहीं। विचार इसको पकड़ नहीं पाता। यह तो ऐसा ही हुआ कहना कि आउट आफ नथिंग, ना-कुछ से, सब कुछ का जन्म है।
लेकिन परमाणु के विघटन ने इस गीता के वक्तव्य को वैज्ञानिक प्रामाणिकता भी दे दी। क्योंकि परमाणु के विघटन के बाद कोई उपाय न रहा। और जब किसी ने बहुत बड़े भौतिकविद प्लांक से पूछा कि यह तुम कैसी तर्कहीन बातें कर रहे हो! कि परमाणु के नीचे उतरते ही परमाणु का जो पदार्थ है, वह अपदार्थ हो जाता है, मैटर इम्मैटर हो जाता है, यह तुम कैसी तर्कहीन और अवैज्ञानिक बातें कर रहे हो! तो प्लांक का उत्तर बहुत अदभुत है। प्लांक ने कहा, जब तक मुझे पता नहीं था, प्रयोग में जाना नहीं था, तब तक मैं भी यही कहता। अब मैं तुमसे इतना ही कहूंगा, हमारे वश के बाहर है। परमाणु का जो व्यवहार है, वह यही है कि उसके टूटते ही वह नीचे अव्यक्त में खो जाता है। अब अगर वह अतर्क है, तो हम अपने तर्क को बदल डालें, और कोई उपाय नहीं। नाउ लेट अस चेंज अवर होल लाजिक! लेकिन हम अस्तित्व को नहीं बदल सकते। अगर हमारे तर्क में बात नहीं बैठती है, तो भी अस्तित्व राजी नहीं होगा कि हमारे तर्क के अनुसार चले। हम अपने तर्क को ही बदल लें। और तो कोई उपाय नहीं है। लेकिन ये दो विरोधी बातें हमें एक साथ दिखाई नहीं पड़तीं, कृष्ण को दिखाई पड़ती हैं। वे कहते हैं, वह अव्यक्त से जो पैदा होता है और फैलता है, वह ब्रह्मा का दिन। फिर अव्यक्त में सिकुड़ने लगता है, वह रात। और फिर अव्यक्त में लीन हो जाता, वह प्रलय है। और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेशकाल में अव्यक्त में ही सब कुछ लय हो जाता। जैसे एक व्यक्ति के लिए मैंने कहा कि वह अपनी ही वासना के कारण, अपनी वासना के वश में हुआ, या वासना के कारण अवश हुआ, अपने वश के बाहर हुआ, फिर मरते क्षण में कामना करता है, फिर-फिर जन्म पाऊं। फिर जन्म जाता है। फिर दौड़ता है, सुबह और रात, और फिर मरता है। ठीक ऐसे ही यह पूरा ब्रह्मांड भी कृष्ण कहते हैं, यह पूरा ब्रह्मांड भी, यह समस्त भूत समुदाय, यह जो कुछ भी दिखाई पड़ता है सब, इसको अगर हम इकट्ठा लें, तो यह भी वासना के वश में हुआ, कामना से प्रेरित हुआ, अपने वश के बाहर हुआ, आकांक्षा में ग्रस्त हुआ, फिर-फिर पैदा होता है, फिर-फिर लय को उपलब्ध होता है। फिर होती है सृष्टि, फिर होता है प्रलय। और यह खेल इस भांति चलता रहता है। परंतु अव्यक्त से भी अति परे दूसरा अर्थात विलक्षण जो सनातन अव्यक्त है, वह पूर्ण ब्रह्म परमात्मा सब भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है।  तो जो प्रकट हो जाए, वह अप्रकट नाम मात्र को था, जस्ट फार दि नेम्स सेक। बीज नाम मात्र को अप्रकट है। इतनी तो तैयारी दिखा रहा है प्रकट होने की। ऐसा आतुर है। नाम मात्र को अव्यक्त है। तो अभी जिस अव्यक्त की बात कही, कृष्ण कहते, वह अव्यक्त माना है। लेकिन नाम मात्र को, क्योंकि व्यक्त हो जाता है। माना कि अदृश्य है, लेकिन दृश्य हो जाता है। तो जिस अदृश्य में दृश्य छिपा हो, वह बहुत अदृश्य हो नहीं सकता। हमें दिखाई न पड़ता हो, यह और बात है। हमारी आंखें कमजोर होंगी, हमारी आंखें न पकड़ पाती होंगी, लेकिन वह बिलकुल अव्यक्त नहीं कहा जा सकता। इन दोनों के पार, इस अव्यक्त के भी पार, बियांड दिस अनमैनिफेस्ट, वह ब्रह्म है। वह अव्यक्त से भी अति परे। बियांड दि बियांड, अव्यक्त से भी अति परे। उसके भी पार, पार के भी पार, अतिक्रमण का भी अतिक्रमण करता हुआ वह ब्रह्म है, जो सनातन अव्यक्त है। जो सनातन अव्यक्त है, इटरनली अनमैनिफेस्ट। लेकिन एक ऐसा अव्यक्त भाव भी है, एक ऐसा अव्यक्त अस्तित्व भी है, एक ऐसा अव्यक्त होना भी है, जो कभी व्यक्त न हुआ है, न होगा, न हो सकता है। वह अव्यक्त के भी परे है। वही ईश्वर, वही ब्रह्म, वही परमात्मा, वही मोक्ष--या जो भी नाम हम देना चाहें, दें--वही पूर्ण ब्रह्म परमात्मा सब भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है। 

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