आत्मन



साक्षीभाव ध्यान है। लेकिन लोग पूछते हैं,ध्यान किसका? ध्यान किसी का भी नहीं, वरन जो भी चित्त में घटित हो और चित्त के आस-पास, सबको, सब-कुछ को ध्यानपूर्वक लेना है। ध्यान का कोई संबंध किसी ऑब्जेक्ट, किसी विषय, किसी मूर्ति, किसी प्रतिमा, किसी नाम, किसी शब्द से नहीं है। लेकिन हमें ऐसा ही सिखाया गया है कि ध्यान किसी का करना पड़ेगा। जब ध्यान किसी का होगा, तो वह ध्यान नहीं रह जाएगा, एकाग्रता होगी। मैंने कहा कि एकाग्रता ध्यान नहीं है। एकाग्रता से विश्वास जन्म लेता है, विश्वास से विचार और विचार तर्क लाता है और तर्क के पार जाने का नाम ध्यान है। किसी व्यक्ति को मैंने कहा, प्रेम करो, उस व्यक्ति ने पूछा, किससे प्रेम करें? मैंने उससे कहा: किससे का सवाल नहीं है, जो भी निकट हो, दूर हो; जो भी पास आए, न आए, सबके प्रति प्रेमपूर्वक होने का सवाल है। किससे प्रेम? ऐसा प्रश्न गलत है। प्रेमपूर्ण? ऐसा सवाल सही है। ऐसे ही, किसका ध्यान? यह नहीं पूछना है। जो भी मैं जीऊं, जो भी सोचूं, जो भी विचारूं, जो भी मेरे चित्त पर घटे, उस सबके प्रति मुझे ध्यानपूर्वक होना है। ध्यानपूर्वकता मेरे चित्त की दशा होनी चाहिए। जैसे प्रेमपूर्णता मेरे चित्त की दशा होनी चाहिए। ध्यानपूर्णता, ध्यानपूर्वकता उसका अर्थ है: साक्षीभाव। जो भी घटे उसे मैं जानूं, देखूं, जागरूक भाव से घटे, मूर्च्छित भाव से नहीं। मैं सोया-सोया न जीऊं , जागा-जागा जीऊं , ध्यान का यह अर्थ है।

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