भक्तिपूर्ण हृदय

भक्ति का मतलब किसी की भक्ति नहीं होती, भक्ति का मतलब है, डिवोशनल एटिट्यूड। भक्ति का मतलब है, भक्त का भाव, प्रेयर नहीं, प्रेयरफुलनेस। उसके लिए भगवानका होना जरूरी नहीं है। भक्ति भगवान के बिना हो सकती है। सच तो यह है कि भगवान कहीं भी नहीं है, भक्ति के कारण पैदा हुआ है। भगवान के कारण भक्ति है, ऐसा नहीं, भक्ति के कारण भगवान दिखाई पड़ना शुरू हुआ है। जिन लोगों का हृदय भक्ति से भरा है, उन्हें यह जगत भगवान हो जाता है। जिनका हृदय भक्ति से नहीं भरा है, वे पूछते हैं--भगवान कहां है? वे पूछेंगे। और उन्हें बताया नहीं जा सकता, क्योंकि वह भक्त के हृदय से देखा गया जगत है। वह भक्ति के मार्ग से देखा गया जगत है। जगत भगवान नहीं है, भक्तिपूर्ण हृदय जगत को भगवान की तरह देख पाता है। जगत पत्थर भी नहीं है, पत्थर की तरह हृदय जगत को पत्थर की तरह देख पाता है। जगत में जो हम देख रहे हैं, वह प्रोजेक्शन है, वह हमारे भीतर जो है उसका प्रतिफलन है। जगत में हमें वही दिखाई पड़ता है, जो हम हैं। अगर भीतर भक्ति का भाव गहरा हुआ, तो जगत भगवान हो जाता है। फिर ऐसा नहीं है कि भगवान कहीं बैठा होता है किसी मंदिर में; नहीं, फिर जो होता है वह भगवान ही होता है। कृष्ण भक्त हैं, और भगवान भी हैं। और जो भी भक्ति में प्रवेश करेगा, वह भक्त से शुरू होगा और भगवान पर पूरा हो जाएगा। एक दिन जब वह बाहर भगवान को देख लेगा, तो उसने खुद ऐसा क्या कसूर किया है कि उसे भीतर भगवान नहीं दिखाई पड़ेंगे! भक्त शुरू होता है भक्त की तरह, पूरा होता है भगवान की तरह। यात्रा शुरू करता है जगत को देखने की और देखता है उसे जो जगत में है। भक्तिपूर्ण हृदय से, डिवोशनल माइंड से, प्रेयरफुल, भक्तिपूर्ण, भावपूर्ण, प्रार्थनापूर्ण मन से देखता है जगत को। फिर धीरे-धीरे अपने को भी उसी तरह देख पाता है, कोई उपाय नहीं रह जाता। कृष्ण दोनों हैं। तुम भी दोनों हो, सभी दोनों हैं। लेकिन भगवान से शुरू नहीं कर सकते हो तुम। भक्त से ही शुरू करना पड़ेगा। क्योंकि अगर तुमने यह कहा कि मैं भगवान हूं, तो खतरा है। ऐसे कई लोग खतरा पैदा करते हैं, जो भगवान से ही शुरू कर देते हैं। वे कहते हैं: मैं भगवान हूं। उनके भीतर भक्ति का तो कोई भाव होता नहीं, इसलिए भगवान की घोषणा तो कर देते हैं, तब ऐसे लोग अहंकेंद्रित होकर, ईगोसेंट्रिक होकर दूसरों को भक्त बनाने की कोशिश में लग जाते हैं। क्योंकि उनके भगवान के लिए भक्तों की जरूरत है। पर वे दूसरे में भगवान नहीं देख पाते। अपने में भगवान देखते हैं, दूसरे में भक्त देखते हैं। ऐसे गुरुडम के बहुत घेरे हैं सारी दुनिया में। यात्रा शुरू करनी पड़ेगी भक्ति से। अब कृष्ण को भगवान माना जा सकता है, क्योंकि वह दूसरों की मदद को सदा तत्पर होते है, और वह भी बिना किसी अहंकार के। इस आदमी को जिस से डर नहीं है, इससे किसीको खतरा नहीं है। यह अगर भगवान की अकड़ वाला आदमी होता तो सारथी की जगह बैठ नहीं सकता। अर्जुन से कहता, बैठो नीचे, बैठने दो ऊपर! मैं हु भगवान, तुम हो भक्त! भगवान बैठेंगे रथ में, भक्त चलाएगा।जो अपने को भगवान घोषित करते हैं, जरा उन्हें तख्त के नीचे बिठा कर आप तख्त पर बैठ कर देखिए, तब पता चलेगा! तो भक्त से शुरू होगी यात्रा, भगवान पर पूरी होती है।

Comments

Popular Posts