समाधि के फूल



हर सुबह नहीं, हर शाम नहीं
हर रात नहीं
वरन हर पल-अनुपल
तुम मुझे तोड़ते रहते हो
जुही के डंठल की तरह नहीं
सूखी सनाठी की तरह।

हर सुबह नहीं, हर शाम नहीं
हर रात नहीं
वरन हर पल-अनुपल
मैं अपने को जोड़ता रहता हूं
सीमेंट जैसे ईंटों को जोड़ता है
वैसे नहीं
कतिहारिन के टूटे धागे की तरह।
हर पल-अनुपल
की यह जोड़-तोड़
हर पल-अनुपल
की यह आशा-निराशा
हर पल-अनुपल
की यह जीवन-मृत्यु
निरर्थक जिजीविषा है
या सार्थक
कौन समझाएगा
तुम्हें छोड़ कर?

परमात्मा के सिवाय कहीं और कोई शरण नहीं। कौन समझाएगा तुम्हें छोड़ कर? उस परमात्मा को छोड़ कर कहीं और से समझ की किरण नहीं आएगी, कहीं और से बोध का सूरज नहीं ऊगेगा। और तुम्हें जो करना है वह थोड़ी सी बात है, छोटी सी बात है: तुम्हें अपने को इतना खाली कर लेना है शोरगुल से, चित्त के व्यर्थ शोरगुल से, कि उसकी आवाज तुम्हें सुनाई पड़ने लगे। तुम्हें इतने मौन हो जाना है कि वह बोले तो तुम्हें बहरा न पाए। बस इतना ही। मैं प्रार्थना का यह अर्थ नहीं करता कि तुम परमात्मा से कुछ कहो। वह तो प्रार्थना का गलत अर्थ है। प्रार्थना का ठीक अर्थ होता है: तुम इतने मौन हो जाओ कि परमात्मा कुछ कहे तो तुम सुन सको। और उसी क्षण से तुम्हारे जीवन में सार्थकता आ जाएगी--अपूर्व सार्थकता! क्योंकि उसी क्षण से तुम्हारे जीवन में मृत्यु तिरोहित हो जाएगी। उसी क्षण से न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है; जीवन ही जीवन है--शाश्वत जीवन है! जिसका न कोई प्रारंभ, न कोई अंत। और आनंद के ऐसे झरने तुमसे फूट सकते हैं, ऐसे गीत तुमसे निर्मित हो सकते हैं--जैसे गीत उपनिषदों में हैं; जैसे गीत कुरान में हैं; जैसे गीत गुरुग्रंथ साहिब में हैं। वे सारे गीत ऐसे ही प्रकट हुए हैं। वे समाधि के फूल हैं।

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