परार्थ जागरण

साधारणतः हम समझते हैं, हम सभी अपने को प्रेम करते हैं। इससे बड़ी दूसरी भ्रांति नहीं। इसे सुनकर तुम चौंकोगे। क्योंकि तुम्हारे धर्मगुरु भी यही कहते हैं, तुम्हारे पंडित भी यही कहते हैं, दूसरों को प्रेम करो। पड़ोसी को प्रेम करो। परमात्मा को प्रेम करो। एक बात उन्होंने मान ही रखी है कि तुम अपने को प्रेम करते हो। अब दूसरों को करो। वहीं चूक हो रही है। तुमने अभी अपने को ही प्रेम नहीं किया। जीसस का प्रसिद्ध वचन है, पड़ोसी को अपने जैसा प्रेम करो। अपने जैसा! इसका अर्थ हुआ कि पड़ोसी को प्रेम करो, उसके पहले अपने को प्रेम करना होगा। और तुम्हें तो उलटा ही समझाया गया है। तुम्हें तो कहा गया है, अपने को प्रेम करना स्वार्थ है। अपने को प्रेम करना जैसे पाप है। लेकिन जिसने स्वयं को प्रेम नहीं किया, वह दूसरे को प्रेम कर ही न पाएगा। जिसके स्वयं के जीवन में प्रेम की ज्योति न जली, उसका प्रकाश पड़ोसी तक कैसे पहुंच जाएगा? जो तुममें नहीं है, वह तुम दूसरे को न दे पाओगे।


हम वही देते हैं, जो हममें है। हम लाख कुछ और कहें, हम कहें कि प्रेम देते हैं, लेकिन हम देंगे घृणा। अगर वही है, तो तुम क्या करोगे? नाम बदल देने से थोड़े ही कुछ होता है। लेबिल चिपका देने से थोड़े ही प्रेम हो जाता है। तुम लाख कहो कि हम प्रेम देते हैं, लेकिन तुम दोगे क्रोध। क्रोध है, तो क्रोध ही दोगे।

राबिया के जीवन में प्रसिद्ध उल्लेख है। कुरान में वचन है कहीं--शैतान को घृणा कर। उसने काट दिया। उसके घर मेहमान था एक फकीर, हसन। सुबह-सुबह उठाकर कुरान पढ़ रहा था। कुरान में संशोधन देखकर वह घबड़ा गया। मुसलमान सोच ही नहीं सकते। कुरान में, और संशोधन! वह आखिरी किताब है। जैसे हिंदुओं की जिद्द है कि हमारी पहली किताब है। उससे पहले किसी की किताब नहीं। ऐसे मुसलमानों की जिद्द है कि हमारी आखिरी किताब है। उसके बाद फिर कोई किताब नहीं। मोहम्मद आखिरी पैगंबर हैं। परमात्मा ने अपना आखिरी संदेश भेज दिया, अब इसमें कोई तरमीम और संशोधन की जरूरत नहीं, न सुविधा है। हसन तो घबड़ा गया। यह तो कुफ्र है! यह किसने लकीर काटी? यह किसने संशोधन किया? वह भागा, उसने राबिया को कहा, देख! तेरी किताब किसी ने अपवित्र कर दी। राबिया ने कहा, किसी ने नहीं, मैंने ही की है। और अपवित्र नहीं; अपवित्र थी, पवित्र की है। यह वचन मेरे बरदाश्त के बाहर हो गया। जब मैंने प्रेम जाना, तो अब घृणा शैतान को भी देनी हो तो कहां से दूं? यह बात मुझसे मेल नहीं खाती। प्रेम को जानकर, प्रेम में जीकर, प्रेम में पग गयी; अब तो मेरे पास प्रेम ही है। अब शैतान खड़ा हो कि भगवान खड़ा हो, मजबूरी है, प्रेम ही दे सकती हूं। अब तो मैं पहचान भी न कर पाऊंगी कि कौन शैतान है, कौन भगवान है। क्योंकि प्रेम की आंख ने कब भेद किया? प्रेम की आंख ने कब द्वंद्व जाना, कब द्वैत जाना? तुम भी अपनी किताब में सुधार कर लेना।

यदि तुमने अपने को प्रेम किया, तो यह शुरुआत तो स्वार्थ की है, लेकिन परार्थ के फूल इसमें खिल जाएंगे। इसलिए मैं तुम्हें सिखाता हूं स्वार्थ; परार्थ तो अपने से आता है। भूल वहीं हो गयी, स्वार्थ ही तुम न सीखे और परार्थ की बातें करने लगे।

जगत में देखो चारों तरफ! लोग शांति की बातें करते हैं और युद्ध पैदा होते हैं। प्रेम की बातें करते हैं और घृणा का जहर फैलता है। सौंदर्य की बातें करते हैं और कुरूप होते जाते हैं। दया, करुणा और अहिंसा की चर्चा चलती है मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में और पृथ्वी पर घृणा और अहिंसा फैलती चली जाती है। और वही हैं फैलाने वाले लोग।

तुम जरा देखो तो, जरा आदमी की तरफ गौर तो करो! जिनके मुंह से शांति की बातें चल रही हैं, उन्हीं के हाथ में तलवार है। हालांकि वे बड़े कुशल हैं, वे कहते हैं, शांति की रक्षा के लिए। अब अगर शांति को भी रक्षा के लिए तलवार की जरूरत है, अगर शांति की रक्षा के लिए युद्ध की जरूरत है, तो छोड़ो बकवास शांति की। फिर युद्ध ही सत्य है। फिर छोड़ो ये सपने। फिर कम से कम जानकर चाहो कि युद्ध ही चाहते हैं। युद्ध की ही बात करो, युद्ध ही जीवन में हो। कम से कम एकरसता तो होगी। शायद उससे तुम कभी जाग जाओ पर युद्ध और वासना जागरण या होश नही , इसको तुम बहुत होश मत समझना, यह सिर्फ कुशलता है। कुशलता होश नहीं है।


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