कैवल्य धार्मिकता

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मंत्र जब मन को मार डालेगा, मंत्र के द्वारा मन जब आत्महत्या कर लेगा, मंत्र से मतलब है 'शब्द' का कोई भी शब्द जो ध्यानस्थ अवस्था तक ले जाए फिर तुम्हारे भीतर उस सतत झरने का प्रवाह शुरू होगा। और जैसे ही यह सतत झरना पैदा होता है, और सुख-दुख बाह्य वृत्तियों से विमुक्त, वह केवली हो जाता है। तब वह अकेला है। और वह अपने अकेले धुन में मस्त है। अब उसे कुछ भी न चाहिए। अब सब चाह मर गई। क्योंकि सुख भी बाहर है, दुख भी बाहर है। अब न तो वह सुख की चाह करता है, न दुख से बचने की चाह करता है। जो बाहर है, उससे उसका संबंध ही छूट गया। अब तो वह अपने भीतर थिर है। और भीतर सतत आनंदित है, इसलिए चाह का कोई सवाल नहीं। अब वह सतत अपनी चेतना में रमता है। उसका सच्चिदानंद अब निरंतर चलता रहता है। वह उसकी श्वास-श्वास में, होने के कण-कण में व्याप्त है। जब तक तुम सुख और दुख के साथ अपने को एक समझे हो। तब तक तुम पूरी कोशिश करोगे कि दुख न हो और सुख हो। और मैं और-और सुख की यात्रा करूं, और-और सुख खोजूं। तुम्हारे सपने तुम्हें नये जन्मों में ले जाएंगे लेकिन कैवल्य होने वाला व्यक्ति जन्मता नहीं। और जो जन्मता नहीं उसके मरण का कोई कारण नहीं है। जन्मोगे तो मरोगे। जन्म का ही दूसरा पहलू मरण है। वह जन्म के ही सिक्के पर एक तरफ जन्म और दूसरी तरफ मृत्यु है। इधर तुम जन्मे, उधर तुम मरोगे। लेकिन जिसे मृत्यु से मुक्त होना है, उसे जन्म से मुक्त होना पड़ेगा। मृत्यु से तो सभी मुक्त होना चाहते हैं, लेकिन जन्म से कोई मुक्त नहीं होना चाहता। यही हमारी कठिनाई है। दुख से सभी मुक्त होना चाहते हैं, सुख से कोई मुक्त नहीं होना चाहता। जिस दिन तुम सुख से मुक्त होना चाहते हो, उस दिन तुम्हारे जीवन में क्रांति घटी, उस दिन तुम धार्मिक हुए। और ऐसे सुख दुख से विमुक्त व्यक्ति केवली हो जाता है। ‘उस कैवल्य अवस्था में आरूढ़ हुए योगी का अभिलाषा-शून्यता के कारण जन्म-मरण का पूर्ण क्षय हो जाता है।’  

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