निर्लेप, दोषरहित
अक्षयं निरंजनम्। निःसंशय ऋषिः।
ऋषि कहता हैः वे जो परमहंस हैं, अमृत की तरंगों से युक्त जैसे कोई सरिता हो, ऐसी उनकी चेतना है। ध्यान रहे, लेकिन ऋषि कहता हैः अमृत की तरंगों से युक्त। यह जो जीवन की भीतर धारा है, डायनेमिक है, स्टैगनेंट नहीं है--गत्यात्मक है, सरिता की तरह है, सरोवर की तरह नहीं। भरे हुए तालाब की तरह नहीं है, जिसमें पानी भरा है। एक बहती हुई नदी की तरह है--उफनती, दौड़ती, भागती, जीवंत। ध्यान रहे, सरोवर अपने में बंद और कैद होता है, और सरिता सागर की खोज पर होती है। सागर की तरफ जो दौड़ है, वही तो सरिता का रूप है। उस सागर की तरफ जो खिंचाव है, कशिश है, वही तो सरिता का जीवन है। अमृत की तरंगों से भरी हुई सरिता जैसी जिसकी चेतना है, जो निरंतर गत्यात्मक है, गतिमान है, अगम की खोज में, अनंत की खोज में भागा चला जा रहा है।और ध्यान रहे, यह मत सोचना आप कि जब सरिता सागर में गिरती है, तो खोज समाप्त हो जाती है। सरिता सागर में गिरती है, हमारे लिए मिट जाती है, लेकिन सरिता तो सागर में और गहरे, और गहरे, और गहरे डूबती ही चली जाती है। तट छूट जाते हैं, सरिता की सीमा मिट जाती है, लेकिन सागर की गहराइयों का कोई अंत नहीं है। खोज चलती ही चली जाती है। छोटी लहरें बड़ी लहरें हो जाती हैं। अमृत के तूफान आने लगते हैं, अमृत का सागर हो जाता है; लेकिन खोज चलती ही चली जाती है। यह खोज अनंत है, क्योंकि ईश्वर को कभी चुकता नहीं किया जा सकता। ऐसा कोई क्षण नहीं आ सकता कि कोई आदमी कह दे कि नाउ आई पजेस, अब मेरी मुट्ठी में है ईश्वर। हां, ऐसा एक क्षण जरूर आता है, जब खोजी कहता है कि अरे, ईश्वर ही बचा, मैं कहां गया! मैं कहां हूं अब! वह जो खोजने निकला था, खो गया है; और जिसे खोजने निकला था, वह हो गया है। बड़ी दुर्घटना की बात है कि व्यक्ति का और परमात्मा का कभी मिलन नहीं होता। क्योंकि जब तक व्यक्ति होता है, तब तक परमात्मा प्रकट नहीं हो पाता; और जब परमात्मा प्रकट होता है, तो व्यक्ति खोजे से मिलता नहीं। उसके साथ एक हो गया होता है। इसलिए अनंत खोज की प्रतीक चेतना की धारा ऋषि ने कही है। आप जब आकाश की तरफ देखते हैं, तो आकाश नीला दिखाई पड़ता है। तो आप सोचते होंगे कि आकाश का रंग नीला है, तो आपने गलती कर दी। आकाश का कोई रंग नहीं है। नीला आपको दिखाई पड़ता है। दिखाई पड़ता है आपको नीला, आकाश का कोई रंग नहीं है। आपको नीला दिखाई पड़ने का कारण हवाएं हैं। बीच में हवाओं की पर्तें हैं दो सौ मील तक। सूर्य की किरणें इन दो सौ मील तक हवाओं में प्रवेश करके भ्रांति पैदा करती हैं नीलिमा की। इसलिए जैसे ही इन दो सौ मील के पार उठ जाता है अंतरिक्ष में यात्री, आकाश रंगहीन हो जाता है, कलरलेस हो जाता है।आकाश में कोई रंग नहीं है, लेकिन हमारी आंख आकाश में रंग डाल देती है। उसे भी नीला कर देती है। अस्तित्व में भी कोई रंग नहीं है। लेकिन हमारे विचार और हमारी देखने की दृष्टि उसमें भी रंग डाल देती है। हम वही देख लेते हैं जो हम देख सकते हैं; वह नहीं, जो है। वह अनुभूति है। यह अनुभूति आकाश जैसी निर्लेप है। इसमें विचार का कोई भी आवरण नहीं है। यह खुले मुक्त आकाश जैसा है। अक्षय और निर्लेप उसका स्वरूप है जो दोषरहित हे। वही शिवतुल्य है, वही ब्रह्म है, वही निराकर है।
Comments
Post a Comment