श्रद्धा का मंदिर
श्रद्धा का अर्थ विश्वास नहीं होता, खयाल रखना। वह पहली बात खयाल रखना, नहीं तो चूक हो जाएगी। विश्वास तो संदेह के विपरीत है और श्रद्धा विश्वास और संदेह दोनों के अतीत है। श्रद्धा बात ही और है। विश्वास तो सिर्फ संदेह को छिपाना है, ढांकना है। जैसे घाव तो है, लेकिन सुंदर वस्त्रों से ढांक लिया है। औरों को दिखाई नहीं पड़ेगा, मगर तुम कैसे भूलोगे? तुम नग्न हो, तुमने वस्त्र ओढ़ लिए; औरों के लिए नग्न न रहे, मगर अपने लिए तो नग्न ही हो। हर व्यक्ति अपने वस्त्रों में नग्न है। कैसे तुम यह बात भुला सकते हो कि तुम वस्त्रों के भीतर नग्न नहीं हो? यह तो असंभव है। हां, औरों के लिए तुम नग्न नहीं हो, क्योंकि तुम्हारे और औरों के बीच वस्त्र आ गए। मगर तुम्हारे स्वयं के लिए तो तुम नग्न ही हो। तुम्हारे लिए तो वस्त्र बाहर हैं। तुम्हारी नग्नता ज्यादा करीब है; वस्त्र नग्नता के बाहर हैं, दूर हैं। विश्वास वस्त्रों जैसा है। तुम्हारे संदेहों को ढांक लेगा। औरों को लगेगा--तुम बड़े श्रद्धालु! ये मंदिरों में घंटे बजाते हुए लोग, ये पूजा-पाठ करते हुए लोग, ये मस्जिदों में नमाजें पढ़ते हुए लोग, ये गिरजाघरों में, गुरुद्वारों में जय-जयकार करते हुए लोग--ये सब विश्वासी हैं। काश, पृथ्वी पर इतनी श्रद्धा से भरे लोग होते तो ऐसी विक्षिप्त, ऐसी रुग्ण, ऐसी सड़ी-गली मनुष्यता पैदा होती? इतनी श्रद्धा होती तो इतने सत्य के फूल खिलते! अनंत फूल खिलते। फूलों से ही पृथ्वी भर जाती, सुगंध ही सुगंध से भर जाती। पृथ्वी स्वर्ग हो जाती। लेकिन देखते हो, नमाज पढ़ने आदमी मस्जिद जाता है और कहावत तो तुमने सुनी है, उसको चरितार्थ करता है मुंह में राम, बगल में छुरी। मनुष्य के इतिहास में जितना पाप धर्मों के नाम पर हुआ है, किसी और चीज के नाम पर नहीं हुआ। राजनीति भी पिछड़ जाती है; धर्म ने वहां भी बाजी मार ली है। निश्चित ही ये विश्वासी लोग हैं, लेकिन श्रद्धालु नहीं! श्रद्धालु हिंदू और श्रद्धालु मुसलमान और श्रद्धालु ईसाई और श्रद्धालु जैन में कोई भेद नहीं हो सकता। श्रद्धा का रंग एक, रूप एक, स्वाद एक। श्रद्धा एक ही अमृत है। जिसने पीया, फिर वह कौन है कोई फर्क नहीं पड़ता। उस एक परमात्मा से जोड़ देती है। उस एक सत्य से जोड़ देती है। विश्वास जोड़ते नहीं, तोड़ते हैं। मैंने कहा संदेह तोड़ता है--और विश्वास भी तोड़ते हैं। इसलिए विश्वास केवल संदेह को छिपाने वाले वस्त्र हैं। विश्वास धोखा है। विश्वास को श्रद्धा मत समझ लेना। श्रद्धा और विश्वास में वैसा ही फर्क है जैसे कागजी फूलों में और असली फूलों में; झूठे सिक्कों में और असली सिक्कों में। विश्वास में मत पड़ जाना। इसलिए मैं चाहता हूं: सौभाग्य का दिन होगा वह, जिस दिन हम अपने बच्चों को विश्वास देना बंद कर देंगे। हमें वस्तुतः अपने बच्चों को संदेह पर धार रखना सिखाना चाहिए। संदेह की तलवार पर धार रखो। संदेह का उपयोग करो, ताकि कोई विश्वास तुम्हें पकड़ न सके। श्रद्धा है जानना; मानना नहीं। श्रद्धा है अनुभव। श्रद्धा है ध्यान; ज्ञान नहीं। ज्ञान विश्वास पैदा कर देता है। संदेह है अज्ञान। विश्वास है ज्ञान--उधार, बासा, शास्त्रीय, तोतारटंत। और श्रद्धा है स्वानुभव, साक्षात्कार, सत्य के साथ मिलन। संदेह को सीढ़ी बनाओ--श्रद्धा के मंदिर तक पहुंचने के लिए। इसलिए ठीक कहा ऐतरेय ब्राह्मण ने कि ‘श्रद्धा पत्नी, सत्यं यजमानः। जीवन-यज्ञ में श्रद्धा पत्नी है और सत्य यजमान।’
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