मनन
मनन का अर्थ होता है जो कहा गया है उसे सुन कर मनन करना है; जो कहा गया है उसकी प्रामाणिकता में सुन कर मनन करना है। यह मनन की पहली शर्त है। आपने अपने मतलब का चुन लिया, उस पर मनन किया, वह मनन नहीं है, वह धोखा है। तो मनन की पहली शर्त: सुन लिया, बिना हां-न किए। निंदा, प्रशंसा, स्वीकार-अस्वीकार--कुछ भी नहीं, कोई मूल्यांकन नहीं, कोई निर्णय नहीं--पक्ष न विपक्ष; मौन, तटस्थ सुन लिया, क्या कहा है। उसे उतर जाने दिया हृदय के आखिरी कोने तक, ताकि उससे परिचय हो जाए। जिससे परिचय है, उसी का तो मनन हो सकता है। यही चिंतन और मनन का फर्क है। चिंतन हम उसका करते हैं, जिसका कोई ठीक से परिचय ही नहीं है। चिंतन है अपरिचित के साथ बुद्धि की प्रक्रिया, व्यायाम। मनन है परिचित के साथ--जिसे आत्मसात किया, डुबा लिया अपने में भीतर, उस पर विचार। दोनों में बड़ा फर्क है। चिंतन में कलह है, मनन में सहानुभूति है। चिंतन में द्वंद्व है, मनन में विमर्श है। ये बड़े फर्क हैं। चिंतन का मतलब है, आप लड़ रहे हैं किसी चीज से। अगर न जीत पाए, तो मान लेंगे। लेकिन मानने में पीड़ा रहेगी। इसलिए जब आप किसी से विवाद करते हैं, और उससे तर्क नहीं कर पाते, और आपको मानना पड़ता है, तो आपको पता है, भीतर कैसी पीड़ा होती है! मान लेते हैं, क्योंकि अब तर्क नहीं कर सकते हैं; लेकिन भीतर? भीतर तैयारी रहती है कि आज नहीं कल, उखाड़ कर फेंक देंगे यह सब; आज नहीं कल, अस्वीकार कर देंगे। इसलिए इस दुनिया में किसी भी आदमी को तर्क से रूपांतरित नहीं किया जा सकता; क्योंकि तर्क का मतलब है, पराजय। अगर उसको तर्क से कोई चीज सिद्ध भी कर दी, तो वह हारा हुआ अनुभव करेगा, बदला हुआ नहीं। हारा हुआ अनुभव करेगा कि ठीक है, मैं कुछ जवाब नहीं दे पा रहा हूं, तर्क नहीं खोज पा रहा हूं; जिस दिन तर्क खोज लूंगा, देखूंगा। हारा हुआ अनुभव करेगा। और ध्यान रहे, हारा हुआ आदमी कभी भी बदला हुआ आदमी नहीं होता। तो आप किसी को चुप कर सकते हैं तर्क से, रूपांतरित नहीं कर सकते। और बात भी ठीक है, तर्क से रूपांतरित किसी को होना भी नहीं चाहिए। क्योंकि जब दो व्यक्ति विवाद करते हैं, तो जो हार जाता है, जरूरी नहीं है कि वह गलत रहा हो; जो जीत जाता है, जरूरी नहीं है कि सही रहा हो। इतना ही जरूरी है कि जो जीत गया है, वह ज्यादा तर्क कर सकता था; जो हार गया है, वह कम तर्क कर सकता था। इससे ज्यादा कुछ भी पक्का नहीं है। तो स्वाभाविक है कि तर्क से कोई कभी बदलता नहीं; क्रांति कोई घटित नहीं होती। तर्क से आघात लगता है अहंकार को, और अहंकार बदला लेना चाहता है। तर्क एक संघर्ष है। चिंतन में एक संघर्ष है भीतर। जो भी आप चिंतन करते हैं, उससे आप जूझते हैं, लड़ते हैं; एक भीतरी लड़ाई चलती है। आप अपनी सारी अतीत की स्मृति और सारे अतीत के विचारों को उसके खिलाफ खड़ा कर देते हैं। फिर भी अगर हार जाते हैं, तो मान लेते हैं; लेकिन मानने में एक पीड़ा, एक दंश, एक कांटा चुभता रहता है। वह मानना मजबूरी का है। उस मानने में कोई प्रफुल्लता घटित नहीं होती। उस मानने से आपका फूल खिलता नहीं है, मुर्झाता है। तो चिंतन, विचारक जो करते रहते हैं सारी दुनिया में, इसलिए विचारकों के चेहरे पर बुद्ध की प्रफुल्लता नहीं दिखाई पड़ेगी। क्या फर्क है? महावीर का प्रमुदित व्यक्तित्व दिखाई नहीं पड़ेगा विचारकों में। विचारकों के चेहरे पर चिंतन की रेखाएं दिखाई पड़ेंगी, मनन के फूल नहीं दिखाई पड़ेंगे। विचारक के माथे पर धीरे-धीरे झुर्रियां पड़ती जाएंगी; एक-एक रेखा खिंच जाएगी, उसने जिंदगी भर जो मेहनत की है उसकी! लेकिन वह जो बुद्ध या किसी महावीर के भीतर घटित होता है, वह जो खिलावट है, वह दिखाई नहीं पड़ेगी। विचार बोझ दे जाएगा; कमर झुक जाएगी। विचारक चिंतित मालूम पड़ने लगेगा। चिंतन और चिंता में कोई गुणात्मक फर्क नहीं है। सब चिंतन चिंता का ही रूप है। बेचैनी है उसमें छिपी हुई; एक तनाव है। क्योंकि एक भीतरी संघर्ष है, कलह है; लड़ाई है एक। इसलिए विचारक बूढ़ा होते-होते, होते-होते, झुक जाता है बोझ से! विचार के ही बोझ से झुक जाता है। बुद्ध और महावीर के साथ उलटी घटना घटती है। जैसे-जैसे ये बूढ़े होते हैं, भीतर जैसे कुछ युवा होता जाता है; कोई ताजगी! यह मनन है।
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