सिद्ध

बुद्ध की शून्यता को अगर ठीक से समझें, तो वह किसी चीज की एब्सेंस है, जो हममें मौजूद है। तो हम पहचान लेते हैं। असल में जिस-जिस को हम मनुष्यता की बीमारियां कहते हैं, बुद्ध में उनका अभाव है। जहां तक मनुष्य के बीमार होने का संबंध है, बुद्ध बिलकुल शून्य हैं। आदमी की कोई बीमारियां उनमें नहीं हैं। बस यहीं तक बुद्ध हमें दिखाई पड़ते हैं। इसके बाद बुद्ध एक और छलांग लेते हैं, वह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ती। वह छलांग जो बुद्ध इस शून्यता के बाद लेते हैं, वह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ती। बुद्ध मर रहे हैं और आखिरी क्षण में भी उनके शिष्य उनसे पूछते हैं कि जब आप मर जाएंगे तो आप कहां जाएंगे? कहीं तो होंगे आप! मोक्ष में होंगे? निर्वाण में होंगे? कैसे होंगे? बुद्ध कहते हैं, मैं कहीं नहीं होऊंगा, मैं होऊंगा ही नहीं। यह उनकी पकड़ में नहीं आता। क्योंकि वे मानते हैं, जिसने लोभ छोड़ा, क्रोध छोड़ा, मोह छोड़ा, उसे कहीं होना चाहिए! हां, जमीन पर नहीं, मोक्ष में होना चाहिए, लेकिन कहीं होना चाहिए! बुद्ध कहते हैं, मैं कहीं भी नहीं होऊंगा। मैं ऐसे ही मिट जाऊंगा जैसे पानी पर खींची गई रेखा मिट जाती है। जब हम पानी पर रेखा खींचते हैं तब वह होती है, और जब मिट जाती है तब--बुद्ध पूछते हैं--वह कहां होती है? कहीं चली जाती? कहीं रहती? बस मैं पानी पर खींची गई रेखा की तरह मिट जाऊंगा। मैं कहीं भी नहीं होऊंगा। बुद्ध की यह बात उनके शिष्यों की समझ में नहीं आती। कृष्ण इस पानी पर खींची गई रेखा की तरह जिंदगी भर जीते हैं, इसलिए कोई शिष्य भी नहीं खोज पाते, यह तो किसी की भी समझ में नहीं आती। बुद्ध और महावीर आखिरी क्षण में उस छलांग को भी पूरा करते हैं, जो एक डायमेंशनल नथिंगनेस से, एक-आयामी शून्यता से परम शून्य में छलांग हो जाती है, लेकिन उस शून्य को पकड़ नहीं पाते हम, उसको हम देख नहीं पाते। और कृष्ण के साथ हमारी कठिनाई और ज्यादा हो जाती है, क्योंकि वह शून्य में जीते ही हैं। वह रेखा किसी दिन मिटेगी, नहीं, ऐसा नहीं, वह प्रतिपल खींचते हैं और मिट जाती है। न केवल खींचते हैं और मिट जाती है, बल्कि उससे विपरीत रेखा भी खींच देते हैं। रेखाएं-रेखाएं हो जाती हैं, सब मिटता है, सब होता रहता है। बुद्ध शून्यता को किसी दिन उपलब्ध होते हैं, कृष्ण शून्य ही हैं। और इसलिए कृष्ण की शून्यता को पकड़ना मुश्किल होता है। कबीर ने एक दिन अपने बेटे को जंगल में भेजा है घास काट लाने को। जैसे यहां पौधे हवा में नाच रहे हैं, ऐसे ही वह जंगल में गया है हंसिया लेकर घास काट लाने को। सुबह से सांझ होने लगी है और वह नहीं लौटा। कबीर परेशान हो गए और सबने कहा कि कुछ पता लगाओ, घास काटने में इतनी देर की कोई जरूरत न थी, दोपहर तक आ जाना था। फिर सांझ भी हो गई। अब अंधेरा भी घिर जाएगा थोड़ी देर में। लोगों ने कहा तो कबीर और सारे लोग खोजने निकले कि वह कहां गया है? देखा जाकर तो घास में, गले-गले घास में वह खड़ा है। खड़ा कहना गलत है। हवाएं नाच रही हैं, वह भी नाच रहा है। जैसे वृक्ष नाच रहे हैं, पौधे नाच रहे हैं, घास के पत्ते नाच रहे हैं, वह भी नाच रहा है। उसे हिलाया, उसने आंख खोलीं। उन सबने कहा, तुम यह क्या कर रहे हो? घास काटा नहीं? उसने कहा, अच्छी याद दिलाई! हंसिया उठाया। उस सबने कहा, अब तो सांझ भी हो गई है। लोगों ने कहा अब वापस चलो। लेकिन तुम दिन भर क्या किए? उस लड़के ने कहा, मैं घास हो गया था। मैं भूल ही गया कि मैं भी हूं। मैं भूल ही गया कि वह घास है और उसको काटना है। इतनी आनंद की थी सुबह, सब इतना नाचता हुआ था कि मैं पागल नहीं था कि नाचते हुए समय और काटने में लग जाऊं, मैं नाचने लगा। और फिर तो मुझे याद ही न रही कि कौन घास है और कौन कमाल है जो काटने आया है। यह तो आप आए तो आपने मुझे खयाल दिला दिया। कृष्ण इतने नाचने में मगन हो गए इस जगत में। कबीर का बेटा तो घास के साथ नाचा, कृष्ण इस पूरे जगत के साथ नाचे। इसके चांद-तारों के साथ नाचे, इसके स्त्री-पुरुषों के साथ नाचे, इसके फूलों के साथ नाचे, इसके कांटों के साथ नाचे। वह इस जगत के साथ नाचने में ऐसे लीन हो गए कि कौन है मैं, कौन है तू, इसकी कोई जगह न रही। इस क्षण जो निर-अहंकार उपलब्ध हुआ, वह महावीर और बुद्ध को अत्यंत तपश्र्चर्या, आरडुअस लंबी यात्रा के अंतिम पड़ाव पर उपलब्ध होता है। वे बहुत दौड़ कर उस जगह आते हैं, जहां से कृष्ण कभी दौड़े ही नहीं। वे बहुत यात्रा करके उस जगह का पता लगा पाते हैं, जहां से उन्होंने यात्रा शुरू की थी।इसलिए कृष्ण साधक नहीं हैं। कृष्ण को साधक कहना ही मुश्किल है। कृष्ण सिद्ध हैं। और इस सिद्ध अवस्था में, इस चित्त की दशा में जो भी उन्होंने कहा है, उसमें हमें अहंकार दिखाई पड़ सकता है। क्योंकि वह जो शब्द हम उपयोग करते हैं मैं का, वह वे भी कर रहे हैं। लेकिन हमारे और उनके मैं की अभिव्यक्ति और अर्थ में बड़ा फर्क है, कनोटेशन में बड़ा फर्क है।

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