चक्रधारी

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सहंस इकीस छह सै धागा,...

इक्कीस हजार छह सौ नाड़ियां हैं शरीर में। कैसे योगियों ने जाना, यह एक अनूठा रहस्य है। क्योंकि अब विज्ञान कहता है, हां इतनी ही नाड़ियां हैं। और योगियों के पास विज्ञान की कोई भी सुविधा न थी, कोई प्रयोगशाला न थी, जांचने के लिए कोई एक्सरे की मशीन न थी। सिर्फ भीतर की दृष्टि थी, पर वह एक्सरे से गहरी जाती मालूम पड़ती है। उन्होंने बाहर से किसी की लाश को रख कर नहीं काटा था, कोई डिस्सेक्शन, कोई विच्छेद करके नहीं पहचाना था कि कितनी नाड़ियां हैं। उन्होंने भीतर अपनी ही आंख बंद करके, ऊर्जा जब उनके तृतीय नेत्र में पहुंच गई थी और जब भीतर परम प्रकाश प्रकट हुआ था, उस प्रकाश में ही उन्होंने गिनती की थी। उस प्रकाश में ही उन्होंने भीतर से देखा था। वैज्ञानिक घर के बाहर से जांच रहा है। उसकी पहचान अजनबी की है, बहुत गहरी नहीं है। योगी ने घर के मालिक की तरह देखा था, भीतर से देखा था। फर्क है। तुम कमरे के बाहर घूम सकते हो, दीवाल की जांच कर सकते हो; लेकिन जो कमरे के भीतर रहता है, वह भीतर की दीवालों को देखता है। योगी ने भीतर के प्रकाश में, भीतर जब ज्योति जली, तो भीतर की नाड़ी-नाड़ी को गिन लिया था। इक्कीस हजार छह सौ नाड़ियां हैं। अभी सब अलग-अलग हैं। अभी तुम ऐसे हो जैसे मनकों का ढेर। अभी तुम्हारे मनके माला नहीं बने, किसी ने धागा नहीं पिरोया है; अभी तुम मनकों का ढेर हो। धागा भी रखा है, मनके भी रखे हैं; माला नहीं हैं। इसलिए तो तुम भीड़ हो! तुम एक नहीं हो, अनेक हो। तुम्हारे भीतर पूरा बाजार है; हजारों तरह के लोग तुम्हारे भीतर बैठे हैं। कोई कुछ कहता, कोई कुछ कहता। एक कहता है चलो मंदिर की तरफ, दूसरा वेश्यालय ले जाता है। जब तुम वेश्या के घर बैठे हो तब भी मन के भीतर कोई राम-राम जपता है। मंदिर के भीतर बैठे हो, राम-राम जप रहे हो; भीतर वेश्या की मूरत बनती रहती है। ऐसे तुम खंड-खंड हो, टुकड़े-टुकड़े हो। हजार तरफ तुम बह रहे हो। तुम एक धारा नहीं हो जो सीधी सागर की तरफ जा रही हो। तुम मरुस्थल में बिखरे हुए हो, छितरे हुए हो। तुम्हारी इक्कीस हजार छह सौ नाड़ियां अभी माला के धागे नहीं बनीं, अभी माला नहीं बनीं, क्योंकि किसी ने धागा नहीं पिरोया है। वह धागा क्या है? उस धागे का नाम ही ‘सुरति’ है। जिस दिन तुम सारी नाड़ियों को बोधपूर्वक देख लोगे...

निश्चला नाकै पोवै।

और जिसकी मुद्रा हो गई निरति, मध्य में ठहर जाना तुम्हारी मुद्रा हो गई, और जिसका वाद्य बज गया सुरति का, सुरति यानी स्मृति। सुरति यानी होश, जागरण, अमूर्च्छा, अवेयरनेस। मध्य में ठहर जाना तुम्हारी मुद्रा और होश सम्हाले रखना तुम्हारा वाद्य। वह धागे से पिरो देता है सारी नाड़ियों को; वह अखंड, एक हो जाता है; उसके भीतर एक का जन्म होता है।

ब्रह्म अगनि में काया जारै, 

तब उसकी काया, तब उसकी देह ब्रह्म की अग्नि में जल कर भस्मभूत हो जाती है। प्रकृति की अग्नि में तो तुम बहुत बार जल कर भस्मीभूत हुए हो, अनेक बार मरे हो, और देह को चिता पर चढ़ाया गया है। योगी भी एक चिता पर चढ़ता है, लेकिन वह चिता साधारण अग्नि की नहीं, वह ब्रह्म-अग्नि की है! और ब्रह्म की अग्नि में सब काया, काया की सारी संभावना, बीज, सब जल जाते हैं। यहां काया खोती जाती है, पृथ्वी से संबंध छूटता जाता है, ज्योति उठ जाती है, दीये को छोड़ देती है और भीतर--यह तो बाहर की घटना है;

त्रिकुटी संगम जागै।

‘त्रिकुटी’ योगियों का बड़ा महत्वपूर्ण शब्द है। त्रिकुटी का अर्थ होता है: द्रष्टा, दृश्य और दर्शन--इन तीन धाराओं का मिल जाना। इन्हीं तीन के आधार पर प्रयाग को हमने संगम कहा है, उसको तीर्थ बनाया है। उसको तीर्थ बनाने का कुल कारण इतना है कि वह ठीक इन तीन की तरह की सूचना देता है। सरस्वती दिखाई नहीं पड़ती; गंगा यमुना दिखाई पड़ती हैं। सरस्वती अदृश्य है! ऐसे ही दृश्य और द्रष्टा दिखाई पड़ते हैं; दर्शन अदृश्य है, वह दिखाई नहीं पड़ता, वह दोनों के बीच में बह रहा है। मैं तुम्हें देखता हूं, तुम भी दिखाई पड़ रहे हो, मैं भी दिखाई पड़ रहा हूं, लेकिन हम दोनों के बीच जो दर्शन की घटना घट रही है, वह नहीं दिखाई पड़ती--वह सरस्वती है। वह अदृश्य धारा है। और जब इन तीन का मिलन होता है--‘त्रिकुटी संगम जागै।’ जब दृश्य, दर्शन और द्रष्टा तीनों एक हो जाते हैं, तब महाजागरण होता है, वही महापरिनिर्वाण है।

कहै कबीर सोई जोगेस्वर, सहज सुंनि लौ लागै।।

अब तो सिर्फ सहज शून्य में ही लौ लग जाती है, अब तो शून्य में ही विलीन होता जाता है! पहले योग सिखाता है कैसे शरीर का सहारा लो, फिर योग सिखाता है, कैसे शरीर से मुक्त हो जाओ। पहले योग सिखाता है, कैसे जमीन पर आसन को जमाओ, ताकि ज्योति निश्चल उठने लगे, फिर योग सिखाता है, कैसे जमीन को छोड़ दो शून्य गगन में, महाशून्य में कैसे खो जाओ! वह खो जाना ही पा लेना है। वह मिट जाना ही हो जाना है। इधर तुम मिटे उधर परमात्मा हुआ। इधर तुम न रहे, उधर उसके मंदिर का द्वार खुला। 

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