कलिः शयानो भवति...
यह सूत्र कहता है: ‘जो सो रहा है वह कलि है।’ इसने संबंध ही तोड़ दिया समय से। इसने संबंध जोड़ दिया मूर्च्छा से। और यही बुद्धपुरुषों का अनुदान है इस जगत को कि तुम्हारे कांटों को भी फूलों में बदल देते हैं; तुम्हारी मूढ़ताओं को भी बोध की दिशा दे देते हैं; तुम्हारे अंधविश्वासों को भी श्रद्धा का आयाम बना देते हैं। ‘जो सो रहा है वह कलि है।’ जो मूर्च्छित है वह अगर हजार साल पहले था तो भी कलियुग में था और दस हजार साल पहले था तो भी कलियुग में था। उसके सोने में कलियुग है। सो रहे हैं सारे लोग। मूर्च्छित हैं सारे लोग। उन्हें यह भी पता नहीं वे कौन हैं, क्यों हैं, किसलिए हैं, कहां से आते हैं, कहां जाते हैं, क्या है उनका स्वभाव? यह मूर्च्छा है। अपने से अपरिचित होना मूर्च्छा है। ध्यान से ही तो तुम उठोगे। यह विचारों की तंद्रा तभी तो टूटेगी। यह खोपड़ी में भरा कचरा जो कलयुग है सदियों-सदियों का, तभी तो जलेगा। ध्यान की अग्नि ही इसे राख कर सकती है। जो बेहोशी में जी रहा है वो जीवन की परिस्थिति ही कलयुग है, कलयुग न पहले था न आज है ना कभी होगा।
....संजिहानस्तु द्वापरः
निद्रा से उठके बैठने वाला द्वापर है। और जो कभी भी निद्रा से उठ बैठा, जिसने झाड़ दी निद्रा, जो लेटा नहीं, बैठ गया, वह द्वापर है। जब भी बैठ गया--आज तो आज, अतीत में तो अतीत में, भविष्य में तो भविष्य में जब भी बैठ गया तब द्वापर है।
उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति...।
और जो उठ खड़ा हुआ वह त्रेता है। और आंख खुली तो उठ ही बैठोगे। कब तक पड़े रहोगे? जिसकी आंख खुली उसे दिखाई पड़ने लगेगा: फूल खिल गए हैं, सूरज निकल आया, पक्षी गीत गा रहे हैं। अब पड़े रहना मुश्किल हो जाएगा अपने से परिचित होने की पहली किरण जब तुम नींद से उठ बैठे, आंख खोली, बैठ गए -तो द्वापर और त्रेता का प्रारंभ है। ये तुम्हारे चेतना के चरण हैं, समय के नहीं। ये कोई युग नही ये, होना है मनुष्य का।
...कृतं संपद्यते चरन्।
और जो चल पड़ता है वह कृतयुग बन जाता है। सोना, उठ बैठना, चल पड़ना। जो चल पड़ा वह कृतयुग है। अब होश आगया पूरी तरह से, उसके जीवन में स्वर्ण-विहान आ गया। गति आ गई तो जीवन आ गया। गत्यात्मकता आ गई तो ऊषा आ गई। तो रात टूट गई, पूरी तरह टूट गई।
चरैवेति। चरैवेति। .... सतयुग
जो आज है, अभी है और उसीका होना जीवंतता है जीवन की
इसलिए ऐतरेय उपनिषद यह सूत्र देता है: ‘चलते रहो, चलते रहो।’ रुकना ही मत। अनंत यात्रा है यह। इसकी कोई मंजिल नहीं। यात्रा ही मंजिल है। यात्रा का हर कदम मंजिल है। अगर तुम हर कदम को उसकी परिपूर्णता में जीओ तो कहीं और मंजिल नहीं; यहीं है, अभी है, वर्तमान में है। भविष्य में नहीं, अतीत में नहीं; तुम्हारे बोध में है, तुम्हारे बोध की समग्रता में है, वही सतयुग है। मैं इस सूत्र से पूर्णतया राजी हूं: चरैवेति! चरैवेति! चलते रहो। चलते रहो। कहीं रुकना नहीं है। रुके कि मरे। रुके कि सड़े। बहते रहे तो स्वच्छ रहे। बहो, चलो, गतिमान होओ। छोड़ो अतीत को। ये जंजीरें तोड़ो। यह मूर्च्छा छोड़ो। थोड़ा होश सम्हालो। ध्यान की सारी प्रक्रियाएं होश को सम्हालने की प्रक्रियाएं हैं। ध्यान से ही यह सूत्र पूरा हो सकता है। यह जीवन का आकर्षण और जीवन का सौंदर्य! ये परमात्मा के छुपे हुए ढंग तुम्हें बुलाने के! यह उसका निमंत्रण है। जागे कि सुनाई पड़ा। और तब उठ कर चल पड़ोगे--तलाश में सत्य की; तलाश में सौंदर्य की; तलाश में भगवत्ता की। और जो चल पड़ा उसने पा लिया। क्योंकि जो चल पड़ा वही कृतयुग बन जाता है, वही सतयुग बन जाता है। सतयुग में कोई पैदा नहीं होता। सतयुग अर्जित करना होता है। पैदा तो हम सब कलियुग में होते हैं। फिर हममें से जो जाग जाता है, वह त्रेता। जो उठ बैठता है, चल पड़ता है, वह कृत। और जो चलता ही रहता है, वही भगवान है, वही भगवत्ता को उपलब्ध है। इसलिए भगवत्ता को उपलब्ध व्यक्ति के साथ चलना भी मुश्किल हो जाता है। वह चलता ही जाता है।
सतयुग की, द्वापर की, त्रेता की, कलियुग की जो भी परिभाषाएं शास्त्रों में की गईं, सभी गलत हैं। यह अकेला सूत्र है जो सम्यक दिशा में इशारा करता है। यह सूत्र सतयुग से लेकर कलियुग तक की धारणा को समय से मुक्त कर लेता है; समाज से मुक्त कर लेता है; अतीत, भविष्य, वर्तमान से मुक्त कर लेता है और इसे प्रतिष्ठित कर देता है व्यक्ति की चेतना में, व्यक्ति के जागरण में, उसकी समाधि में।
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