तथाता

उदासीन आदमी अति प्रफुल्लित होता है, उदास नहीं। लेकिन ध्यान रखना, प्रफुल्लित का मतलब? प्रफुल्लित का मतलब यह होता है कि अब कोई भी चीज उसे परेशान नहीं करती, इसलिए भीतर का फूल खिलना शुरू हो जाता है; अब कोई चीज उसको हैरान नहीं करती, इसलिए भीतर वह आनंद में रहता है। उदासी थोप ली अगर आपने जबरदस्ती अपने ऊपर, तो आप प्रफुल्लित न हो पाएंगे। उदासीन होना। इसे जरा देखना प्रयोग करके। रास्ते से गुजर रहे हैं, प्रयोग करके देखना कि पांच मिनट बिलकुल उदासीन होकर गुजरूं रास्ते से। तब कौन सा मकान सुंदर है, कौन सा नहीं है--बराबर है। तब कौन सा आदमी पास से गुजरा; वह अमीर था कि गरीब था, प्रतिष्ठित था कि अप्रतिष्ठित था, नेता था कि चोर था--कोई भी था--कोई प्रयोजन नहीं है। तब कोई सुंदर स्त्री गुजरी, कोई सुंदर पुरुष गुजरा, कोई सुंदर कपड़े दिखाई पड़े--कोई प्रयोजन नहीं है। पांच मिनट रास्ते से ऐसे गुजरना, जैसे रास्ता खाली है और जंगल से गुजर रहे हैं, वहां कुछ है ही नहीं। इसकी कोशिश करके देखना--सिर्फ तटस्थ--तत्काल आप पाएंगे कि रास्ता व्यर्थ हो गया। उसकी सार्थकता आपके भीतर लगाव में थी। उदासीनता का अर्थ है, एक तटस्थ वृत्ति; जो हो रहा है ठीक है, स्वीकार है; एक तथाता; उसमें कहीं कोई चुनाव नहीं है। घर में आग लग गई, इससे बेचैनी नहीं होती है, समझ लें। घर में आग नहीं लगनी चाहिए थी, यह हमारी जो अपेक्षा है, उससे बेचैनी होती है। मेरा घर नहीं जलना चाहिए था, यह छिपी अपेक्षा है। पता भी न हो, अचेतन में छिपी है, मेरा घर नहीं जलना चाहिए था। तो घर जल गया; तो वह भीतर की अपेक्षा टूटी; उससे चाल डगमगा जाती है; उससे चेतना डगमगा जाती है। लेकिन जिसकी कोई अपेक्षा नहीं, कुछ भी हो जाए, जो भी हो जाए, उसके विपरीत कोई भाव और आग्रह नहीं है, इसलिए चेतना नहीं डगमगाती। वह चेतना का अकंप होना ही उदासीनता है। ‘ब्रह्मा से लेकर खंभ तक, पत्थर से लेकर परमात्मा तक सब उपाधियां झूठी हैं, इसलिए एक स्वरूप में रहने वाले पूर्ण आत्मा का ही सर्वत्र दर्शन करना।’ सब पद झूठे हैं, सब उपाधियां झूठी हैं, सब प्रतिष्ठाएं झूठी हैं, सब बनावटी हैं। चाहे सड़क के किनारे पड़ा हुआ पत्थर हो, और चाहे आकाश में हमारा बिठाया हुआ परमात्मा हो, सब व्यर्थ हैं। एक उसका ही ध्यान रखना, जो झूठा नहीं है; एक उस साक्षी-भाव में ही लीन रहना। तो पत्थर भी अगर आप हो जाओ, तो भी उसी साक्षी-भाव में लीन रहना। और अगर ब्रह्मा भी बना दिए जाओ, तो भी उसी साक्षी-भाव में लीन रहना। तो फिर पत्थर और ब्रह्मा होने में कोई चुनाव नहीं लगेगा; क्योंकि वह साक्षी-भाव एक ही है। गरीब हैं, तो साक्षी-भाव में लीन रहना; अमीर हो जाएं, तो साक्षी-भाव में लीन रहना। तो फिर गरीबी-अमीरी कोई फर्क नहीं लाएगी; क्योंकि वह भीतर एक ही धारा साक्षी-भाव की बहती रहेगी। सब उपाधियां व्यर्थ हैं। जो बाहर से उपलब्ध होता है, वह सब व्यर्थ है; और भीतर से जो उपलब्ध होता है, वही सार्थक है। लेकिन भीतर से सिवाय साक्षी चैतन्य के और कुछ भी उपलब्ध नहीं होता। हर हाल में, हर स्थिति में, इस भीतर की आत्मा का ही दर्शन करते रहना। ‘स्वयं ही ब्रह्मा, स्वयं विष्णु, स्वयं इंद्र, स्वयं शिव, स्वयं जगत और स्वयं ही यह सब कुछ है, स्वयं से भिन्न कुछ भी नहीं है।’

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