दिव्य असंतोष

यह संतोष दुख को छिपाने का उपाय है, यह दुख को मिटाने की तरकीब नहीं है। और दुख मिटाना है, छिपाना नहीं है।संतोष दुख को छिपाता है, मिटाता नहीं। और जो समाज संतोष के माध्यम से दुख को छिपाता जाता है, धीरे-धीरे सैकड़ों वर्षों में इतने दुख इकट्ठे हो जाते हैं कि सारी आत्मा दुख से और घाव से भर जाती है। जैसा कि इस देश के साथ हुआ है। हम हमेशा दुख को छिपाते हैं, हम दुख को मिटाते नहीं। दुख को छिपाना है तो संतोष की चादर ओढ़ लेते हैं और संतुष्ट हो जाते हैं। अगर आदमी पच्चीस साल में मर जाता है तो संतुष्ट हो जाते हैं कि इतनी ही उम्र रही होगी, भाग्य में लिखी। अगर आदमी अंधा पैदा होता है तो संतुष्ट हो जाते हैं कि पिछले जन्म में कोई दुष्कर्म किए होंगे, इसलिए बेचारा अंधा हो गया। अगर गरीबी बढ़ती है, तो हम मानते हैं कि पिछले जन्म में जिन्होंने पाप किए हैं वे लोग बेचारे गरीबी का दुख उठा रहे हैं। लेकिन किसी भी तरकीब से हम संतुष्ट हो जाते हैं और राजी हो जाते हैं। बगावत नहीं है, विद्रोह नहीं है, बदलाहट की आकांक्षा नहीं है। और वह नहीं है, इसलिए कि असंतोष नहीं है।

संतुष्ट समाज क्रांतिकारी समाज नहीं होता है। जीवन में जलती हुई असंतोष की आग चाहिए। असंतोष की आग जीवित होने का लक्षण है। वह जो फायर, वह जो आग है असंतोष की, वह जिंदा आदमी का सबूत है। मरा हुआ आदमी संतुष्ट होता है। जिंदा आदमी रोज नये से नये शिखर को छूने को आतुर होता है। रोज नये मार्गों पर चलने को, रोज नये विस्तार को, रोज नये अभियान को; जिंदगी के आखिरी क्षण तक भी वह नये को पाने की चेष्टा में रत होता है। असंतोष, डिस्कंटेंट दिव्य लक्षण है, डिवाइन है। मैं तो कहता ही हूं कि डिवाइन डिस्कंटेंट, दिव्य असंतोष मनुष्य को परमात्मा की सबसे बड़ी देन है संतोष को छोड़ दो; असंतोष को स्वीकार करो। असंतोष मार्ग है परिवर्तन का, असंतोष मार्ग है क्रांति का, असंतोष मार्ग है नये जीवन की उपलब्धि का।

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