अर्थ

धर्म और विद्याओं जैसी विद्या नहीं है। दुनिया में बहुत तरह की विद्याएं हैं, धर्म उनमें से एक विद्या नहीं है। अगर दुनिया में कोई भी चीज सीखनी है तो किसी और से सीखनी पड़ेगी। अगर कोई भी चीज सीखनी है दुनिया में तो किसी से सीखना पड़ेगा। धर्म अकेली ऐसी विद्या है कि अगर सीखनी हो तो दूसरे से सीखने से बचना, अन्यथा मुश्किल हो जाएगी। असल में धर्म दूसरे को स्वीकार ही नहीं करता। धर्म अकेली ऐसी विद्या है, जो स्वयं ही सीखी जाती है, जिसमें दूसरे से सीखने की गुंजाइश नहीं है। उसके कारण हैं। सत्य ट्रांसफरेबल नहीं है, एक हाथ से दूसरे हाथ में नहीं दिया जा सकता। जगत में सब चीजें एक हाथ से दूसरे हाथ में दी जा सकती हैं। धर्म का ज्ञान भर एक हाथ से दूसरे हाथ में नहीं दिया जा सकता। और दिया जाए तो बासा और उधार हो जाता है। और उधार होते से ही अज्ञान से भी बदतर हो जाता है। अज्ञान की एक खूबी है कि अज्ञान विनम्र होता है। और उधार ज्ञान का एक खतरा है, उधार ज्ञान अहंकार से भर जाता है, ईगो से भर जाता है। और मजा यह है कि जो ज्ञान भीतर से पैदा होता है, उसके पैदा होते ही अहंकार ऐसे विदा हो जाता है जैसे सुबह के सूरज उगने पर अंधेरा विदा हो जाता है। खुद के ज्ञान के पैदा होने पर अहंकार कहीं नहीं पाया जाता, लेकिन दूसरे से लिया गया ज्ञान अहंकार को मजबूत करता है, पुष्ट करता है और भीतर भारी, कड़ी, सख्त चीज पैदा कर देता है। वह कड़ा अहंकार ही परमात्मा से मिलने में बाधा बन जाता है। धर्म दूसरे से कभी भी उपलब्ध नहीं होता। इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरा बिलकुल बेकार है। जब कभी कोई एक बुद्ध हमारे बीच से गुजरता है तो बुद्ध हमें ज्ञान नहीं दे सकता, और जब कभी कोई नानक गीत गाता हुआ हमारे बीच से निकलता है तो नानक हमें ज्ञान नहीं दे सकते, लेकिन एक बुद्ध या एक नानक के गुजरने से हमारी प्यास जग सकती है। ज्ञान नहीं मिल सकता, प्यास जग सकती है। उन्हें देख कर हमें इस बात का स्मरण आ सकता है कि जो उन्हें संभव हुआ, वह मुझे भी संभव हो सकता है। ज्ञानी धर्म की दुनिया में ज्ञान का देने वाला नहीं, सिर्फ प्यास का जगाने वाला है। लेकिन प्यास जगाने के बाद कुआं तो अपने ही भीतर खोदना पड़ता है और पानी तो अपने भीतर ही खोजना पड़ता है, वह कोई दूसरा नहीं दे सकता। अगर दूसरा दे सकता होता तो एक ही ज्ञानी ने सारी दुनिया को ज्ञान दे दिया होता। उसका कारण है। क्योंकि ज्ञानी में इतनी करुणा है कि वह रुकता ही नहीं, वह सबको बांट ही देता। लेकिन वह नहीं दिया जा सकता। सब ज्ञानी तड़पते हुए मरते हैं अपने लिए नहीं, दूसरे के लिए क्योंकि जो उन्हें मिल गया है, वे देना चाहते हैं, लेकिन वह दिया नहीं जा पाता। देते हैं कि बदल जाता है। हाथ से दिया, दूसरे के पास गया कि बदला। क्योंकि जब देते हैं तो अनुभूति तो भीतर रह जाती है, शब्द ही उसके पास पहुंचते हैं। और शब्दों का अर्थ? शब्दों का अर्थ देने वाले से तय नहीं होता; जिसके पास शब्द पहुंचते हैं वही उनका अर्थ तय करता है। इसलिए गीता की एक हजार टीकाएं हैं। कृष्ण का दिमाग खराब तो नहीं रहा होगा कि एक हजार अर्थ रहे हों। कृष्ण जैसे आदमी का मतलब तो सुनिश्चित रूप से एक होता है। लेकिन एक हजार टीकाएं हैं। गीता के एक हजार अर्थ करने वाले हैं। ये अर्थ कहां से आए? ये कृष्ण के अर्थ नहीं हैं। ये हजार टीका करने वालों के अर्थ हैं। गीता को पढ़ते हैं जब हम तो वह कृष्ण की गीता नहीं होती, हम उसमें अपना अर्थ डाल कर पढ़ते हैं। हम ही उसमें होते हैं। आज तक दुनिया में कृष्ण की गीता को कृष्ण जैसा हुए बिना पढ़ने का उपाय भी नहीं है।

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