लोकतंत्र

जिसे हम जिंदगी कहते हैं और जिन मूल्यों के ऊपर हम नाज करते हैं, उनमें कितने भरम हैं और कितनी सच्चाइयां हैं, तुम जरा आंख खोलो तो चौंके बिना न रहोगे। सारी दुनिया में लोकतंत्र के नाम पर ऐसे-ऐसे झूठों का प्रचार किया गया है, और इतने लंबे अरसे से, कि हम यह बात भूल ही गए कि उस प्रचार पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। कहा तो जाता है कि लोकतंत्र जनता का है, जनता के लिए है, जनता के द्वारा है। लेकिन इतने बड़े झूठ भी बहुत बार दोहराए जाने पर सच जैसे मालूम पड़ने लगते हैं। झूठ और सच में सिर्फ एक ही फर्क पाया और वह फर्क है दोहराने का। झूठ नया सच है, जो अभी दोहराया नहीं गया; और सच पुराना झूठ है, परंपरागत, सदियों पीढ़ी दर पीढ़ी दोहराया गया। क्योंकि न तो किसी देश में जनता का राज्य है, न किसी देश में जनता के लिए राज्य है और न किसी देश में जनता के द्वारा राज्य है। लेकिन ये झूठ बड़े प्यारे हैं। ये बड़े मीठे हैं। ये जहरीले हैं जरूर, लेकिन करोड़ों-करोड़ों लोग आनंद से इन्हें पी जाते हैं। और जो लोग इन झूठों का प्रचार कर सकते हैं, वे राज्य करते हैं। उनका ही राज्य है, उनके ही द्वारा है और उनके अपने हित के लिए है। यूं कहने को वे कहते हैं कि वे जनता के सेवक हैं। लेकिन बड़ी अजीब दुनिया है। यहां जनता के सेवक कहने वाले लोग जनता के मालिक बन कर बैठे हैं। हां, पांच साल में एक बार जरूर उन्हें फिर झूठ को दोहराना पड़ता है। उन्हें फिर जनता के द्वार पर आकर कहना पड़ता है: हम तुम्हारे सेवक हैं। एक बार तुम्हारा मत उनकी झोली में पड़ गया, कि वे जो भिखारी की तरह आए थे, उनके द्वार पर खड़े चपरासी तुम्हें धक्के देकर निकाल देंगे। तुम्हें मिलने का भी मौका नहीं मिलेगा। यह अजीब जनता की सेवा हुई! जनता भूखी मरती है। जनता रोज-रोज दुख और पीड़ा से भरती जाती है। लेकिन उसी जनता के सेवक मौज कर रहे हैं, गुलछर्रे कर रहे हैं। वे मौज करें, गुलछर्रे करें, इसमें मुझे एतराज नहीं। मुझे एतराज है उनके झूठों पर। और अगर यह सच है कि किसी धर्म के, किसी चिंतन के विरोध में बोलना अपराध है, तो कृष्ण ने भी अपराध किया है, बुद्ध ने भी अपराध किया है, जीसस ने भी अपराध किया है, मोहम्मद ने भी अपराध किया है, कबीर ने भी, नानक ने भी। इस दुनिया में जितने विचारक हुए हैं, उन सबने अपराध किया है, भयंकर अपराध किया है। क्योंकि उन्होंने, निर्दयी भाव से, जो गलत था उसे तोड़ा है। और जो गलत से बंधे थे, उनको स्वभावतः चोट पहुंची होगी।अगर अब दुनिया में कबीर पैदा नहीं होते, अगर अब दुनिया में बुद्ध पैदा नहीं होते, तो तुम्हारा लोकतंत्र जिम्मेवार है। अजीब बात है। लोकतंत्र में तो गांव-गांव कबीर होने चाहिए, घर-घर नानक होने चाहिए, जगह-जगह सुकरात होने चाहिए, मंसूर होने चाहिए। क्योंकि लोकतंत्र का मूल आधार है: विचार की स्वतंत्रता। जब लोकतंत्र नहीं था दुनिया में और विचार की कोई स्वतंत्रता नहीं थी दुनिया में, तब भी दुनिया ने बड़ी ऊंचाइयां लीं। और अब? अब दुनिया में ऊंचाइयों पर उड़ना अपराध है, तुम्हारे पंख काट दिए जाएंगे। क्योंकि तुम्हारा ऊंचाइयों पर उड़ना--जो लोग नीचाइयों पर बैठे हैं, उनके हृदय को बड़ी चोट पहुंचती है। लोकतंत्र हो तो सकता था एक अदभुत अनुभव मनुष्य की आत्मा के विकास का। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। हो गया उलटा। नाम बड़े, दर्शन छोटे। बड़े ऊंचे-ऊंचे शब्द और पीछे बड़ी गंदी असलियत। कहीं कोई विचार की स्वतंत्रता नहीं है। लेकिन हर आदमी को हिम्मत करनी चाहिए विचार की स्वतंत्रता की।  यह मुसीबत को बुलाना है। यह अपने हाथ से बैठे-बिठाए झंझट मोल लेनी है। लेकिन यह झंझट मोल लेने जैसी है। क्योंकि इसी चुनौती से गुजर कर तुम्हारी जिंदगी में धार आएगी, तुम्हारी प्रतिभा में तेज आएगा, तुम्हारी आत्मा में आभा आएगी। दूसरों के सुंदरतम विचार ढोते हुए भी तुम सिर्फ एक गधे हो, जिसके ऊपर गीता और कुरान और बाइबिल और वेद लदे हैं। मगर तुम गधे हो। तुम यह मत समझने लगना कि सारे धर्मशास्त्र मेरी पीठ पर लदे हैं, अब और क्या चाहिए? स्वर्ग के द्वार पर फरिश्ते बैंड-बाजे लिए खड़े होंगे, अब देर नहीं है।अपना छोटा सा अनुभव, स्वयं की अनुभूति से निकला हुआ छोटा सा विचार, जरा सा बीज तुम्हारी जिंदगी को इतने फूलों से भर देगा कि तुम हिसाब न लगा पाओगे। क्या तुमने कभी यह खयाल किया है, एक छोटे से बीज की क्षमता कितनी है? एक छोटा सा बीज पूरी पृथ्वी को फूलों से भर सकता है। लेकिन बीज जिंदा होना चाहिए। विचार जिंदा होता है, जब तुम्हारे प्राणों में पैदा होता है, जब उसमें तुम्हारे हृदय की धड़कन होती है, जब उसमें तुम्हारा रक्त बहता है, जब उसमें तुम्हारी सांसें चलती हैं। और इस जीवन में अनुभूति की, स्वानुभूति की संपदा से बड़ी कोई संपदा नहीं है। विचार की स्वतंत्रता चाहिए। लेकिन कोई उसे तुम्हें देगा नहीं, तुम्हें उसे लेना होगा। इस भ्रांति को छोड़ दो कि सिर्फ तुमने अपने विधान को लोकतंत्र का विधान कह दिया तो समझ लिया कि विचार की स्वतंत्रता उपलब्ध हो गई। क्या खाक विचार करोगे? स्वतंत्रता भी उपलब्ध हो जाएगी तो विचार क्या करोगे? जो अखबार में पढ़ोगे वही तुम्हारी खोपड़ी में घूमेगा। विचार करने के लिए विधान में तुम्हारे स्वतंत्रता की गारंटी काफी नहीं है। विचार की स्वतंत्रता बड़ा अनूठा प्रयोग है। सबसेपहले तो विचार से मुक्त होना होगा। क्योंकि अभी तुम्हारे पास सब दूसरों के विचार हैं। पहले यह कचरा दूसरों के विचारों का हटाना होगा। इसको हमने इस देश में ध्यान कहा है। ध्यान का अर्थ है: दूसरे के विचारों से मुक्ति। और तुम हो जाओ एक कोरे कागज; एक सादे, भोले-भाले बच्चे का मन, जिस पर कोई लिखावट नहीं है। और तब तुम्हारी अंतरात्मा से उठने लगते हैं, जगने लगते हैं, खिलने लगते हैं--वे जिन्हें स्वतंत्र विचार कहा जाए। वे बाहर से नहीं आते, वे तुम्हारे भीतर से ऊगते हैं। और जब तुम्हारे पास अपना विचार हो, तो चाहे सरकारें लोकतंत्र की बातें करें या न करें, तुम्हारा विचार तुम्हें इतना साहस और बल देगा कि तुम बड़ी से बड़ी सरकारों से टक्करें ले सकते हो। अपने विचार की ताकत किसी भी न्यूक्लियर बम से कम नहीं है, ज्यादा है। आखिर न्यूक्लियर बम भी आदमी के विचार की पैदाइश है। उन आदमी के विचारों की पैदाइश है, जो खुद सोच सकते थे। उसकी क्षमता विचार की क्षमता से बड़ी नहीं हो सकती। वह विचार की ही पैदाइश है। लोकतंत्र उस दिन आएगा दुनिया में, जिस दिन ध्यान का तंत्र सारी दुनिया में व्याप्त हो जाएगा। ध्यान के तंत्र के बिना लोकतंत्र असंभव है।सारी दुनिया में लोकतंत्र असफल है, क्योंकि उसका पहला चरण पूरा नहीं किया गया। पहला चरण ध्यान तंत्र है। केवल ध्यान--और केवल ध्यान--तुम्हारी आंखों में वह चमक, तुम्हारी आंखों में वह गहराई और वह तेजी, तुम्हारे देखने में वह तलवार पैदा कर देता है, जो असत्यों को काट देती है। और लाख गहराइयों में छिपा हुआ सत्य हो, तो भी उसे उघाड़ लेती है, खोज लेती है। और दुनिया में अगर हजारों लोग ध्यान में निष्णात हो जाएं तो विचार की स्वतंत्रता होगी। उस विचार की स्वतंत्रता से लोकतंत्र पैदा होगा। लोकतंत्र से विचार की स्वतंत्रता पैदा नहीं हो सकती। 



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