क्षमता

एक बड़ी पुरानी कहानी है। एक युवक सत्य की खोज में था। वह सभी परीक्षाएं उत्तीर्ण हो गया। उसको भरोसा था कि अब गुरु कह देगा कि अब तुम जा सकते हो संसार में, अब तुम योग्य हो गए। लेकिन गुरु ने कहा, तू सब परीक्षाएं उत्तीर्ण हो गया; आखिरी बाकी रह गई है। और आखिरी परीक्षा मैं नहीं ले सकता हूं; उस परीक्षा का स्वभाव ही ऐसा है--वह तू पीछे समझ पाएगा--कि उस परीक्षा के लिए मुझे तुझे कहीं भेजना होगा। तो युवक ने कहा, भेजें। उसने सम्राट के पास भेजा। गांव में जो सम्राट था, उसका नियम था कि जो व्यक्ति भी पहले उसके द्वार पर आ जाए सुबह, वह जो भी मांगे, वह सम्राट दे देता था। लेकिन लोग सुखी थे, सरल थे, और महत्वाकांक्षा का ज्वर पकड़ा न था। इसलिए कोई आता ही न था। कई दिन तो ऐसे ही निकल जाते थे कि सम्राट उठता और दरवाजे पर कोई होता ही नहीं। लोग उस अवस्था में रहे होंगे जिसकी लाओत्से बात करता है कि जब ज्ञान की बीमारी उन्हें पकड़ी न थी। लेकिन यह युवक तो ज्ञान की बीमारी में पड़ गया था। यह तो सब परीक्षाएं उत्तीर्ण कर आया था। यह तो सुशिक्षित हो गया था। तो उसने सोचा कि सुबह ही वहां पहुंच जाना चाहिए, जब सम्राट के पास ही जा रहे हैं। तो वह तीन बजे रात से ही वहां जाकर खड़ा हो गया कि कहीं ऐसा न हो कि कोई और पहले पहुंच जाए। कोई आया भी नहीं, कोई क्यू भी न लगा। सुबह जब भोर हुई, सम्राट बाहर आया, तो वह अकेला ही था। पता था उसे कि सम्राट पूछेगा, क्या चाहते हो? तो वह सोचता रहा; सोच-सोच कर उसका सिर घूमने लगा। जितना उसने सोचा उतने ही आंकड़े बड़े होते गए। आंकड़ों की कोई कमी है! सम्राट आया। उसने कहा, क्या चाहते हो? उस युवक ने कहा कि तय नहीं कर पा रहा हूं। क्या आप इतनी कृपा करेंगे कि आप बगीचे का एक चक्कर लगा लें, तब तक मैं और सोच लूं। सम्राट एक चक्कर लगा कर लौट आया। उस युवक ने कहा कि नहीं, मैं न सोच पाऊंगा, क्योंकि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं। मैं जितना ही सोचता हूं, पाता हूं वह कम है। अरबों-खरबों पर पहुंच गया है हिसाब भीतर, लेकिन फिर भी मैं सोचता हूं, यह भी हो सकता है कि सम्राट के पास इससे ज्यादा हो। और जो शेष रह जाएगा वह जिंदगी भर खलेगा। तो अब तो मैं एक ही प्रार्थना करता हूं कि जो भी आपके पास है सब मुझे दे दें। आप जो कपड़े पहने हैं इन्हीं को पहने हुए बाहर निकल जाएं। सोचा था कि सम्राट घबरा जाएगा, बचने की तरकीब करेगा। लेकिन सम्राट प्रफुल्लित हो गया। उसने आकाश की तरफ हाथ उठाया और कहा, परमात्मा, धन्यवाद! जिस आदमी की मुझे प्रतीक्षा थी वह आ गया। वह लड़का थोड़ा घबराया। उसने कहा, बात क्या है? आप बड़े प्रसन्न मालूम होते हैं! उसने कहा, मैं बहुत थक गया इस महल, इस साम्राज्य, इस उपद्रव से। कोई मांगने ही नहीं आता। अब किसी को जबरदस्ती तो दिया नहीं जाता। अब तुम आ ही गए अपनी तरफ से, तुम्हारी बड़ी कृपा है। तुम भीतर जाओ; मैं बाहर जाता हूं। उसने कहा कि एक कृपा और करें, आप एक चक्कर और लगा आएं, मुझे एक बार और सोच लेने दें। इतना समय दिया, थोड़ा समय और! सम्राट ने कहा कि नहीं, अब तुम कह ही चुके हो। पर युवक ने पैर पकड़ लिए। तो सम्राट ने कहा, तुम्हारी मर्जी। सम्राट एक चक्कर लगा कर आया, वहां युवक को उसने पाया नहीं। दरबान को वह कह गया था कि जब सम्राट ही भागने को उत्सुक है तो हम क्यों फंसें! वह भाग गया था। कहां तय करोगे? सब पर ही जाकर तय होगा। और सब पाकर भी तृप्ति नहीं होती। सम्राट प्रसन्न है देने को। सब भी मिल जाए तो तुम्हारी हीनता का कुआं भरेगा नहीं; वह दुष्पूर है। वह खड्ड ऐसा है कि उसमें कोई तलहटी नहीं है। तुम जितना डालते जाओगे उतना ही वह पीता जाएगा। और जितना ज्यादा तुम पीते जाओगे उतना ही पता चलेगा कैसे हीन हो।

लाओत्से कहता है, एक और ही रास्ता है। और वह रास्ता है: घाटी के राज को जान लेना। वर्षा होती है; पहाड़ खाली रह जाते हैं, घाटियां भर जाती हैं, लबालब भर जाती हैं। राज क्या है? राज यह है कि घाटी पहले से ही खाली है। जो खाली है वह भर जाता है। पहाड़ पहले से ही भरे हैं, वे खाली रह जाते हैं। अहंकार रोग है, तो निरहंकारिता में राज है, कुंजी है। तुम जब तक दूसरे से अपने को तौलोगे और दूसरे से आगे होना चाहोगे तब तक तुम पाओगे कि तुम सदा पीछे हो। जिसने आगे होना चाहा, वह सदा पाएगा कि वह पीछे है। जिसने प्रतिस्पर्धा की, वह सदा पाएगा कि हार गया। लेकिन जो पीछे होने को राजी हो गया, जीवन की इस व्यर्थ दौड़ को देख कर, समझ कर, ध्यान से जो पीछे खड़ा हो गया, और जिसने कहा हम दौड़ते नहीं आगे होने को, लाओत्से कहता है, एक अनूठा चमत्कार घटित होता है कि जो आगे होने की दौड़ में होते हैं वे हीन हो जाते हैं और जो पीछे खड़े हो जाते हैं उनकी श्रेष्ठता की कोई सीमा नहीं है। सच तो यह है कि पीछे तुम खड़े ही जैसे होते हो वैसे ही श्रेष्ठ हो जाते हो, हीनता मिट जाती है। क्योंकि तुलना ही न रही तो हीन कैसे हो सकते हो? किसी से तौलोगे तो पीछे हो सकते हो। तौलते ही नहीं किसी से, पीछे, सबसे पीछे ही खड़े हो गए, अपने तईं खड़े हो गए, अपने हाथ से ही संघर्ष छोड़ दिया और पीछे आ गए, अब तो तुम्हें हीनता का कैसे बोध होगा? हीनता का घाव भर जाएगा; और श्रेष्ठता के फूल उस घाव की जगह प्रकट होने शुरू हो जाते हैं। श्रेष्ठ केवल वे ही हो पाते हैं जो श्रेष्ठ होने की दौड़ में नहीं पड़ते। और हीन से हीनतर होता जाता है मनुष्य, जितनी ही दौड़ में पड़ता है। और श्रेष्ठ होते ही, हीनता मिटते ही सभी अहंकार मिट जाते है और ऐसे मनुष्य के जीवन में श्रेष्ठ क्षमता के साथ जीवंतता पाने के संघर्ष शुरू होते है तब वह 'जीवंतता' महत्वाकांक्षा मिट कर कर्ता रहित कर्म बनजाती है।


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