पूर्णमेवावशिष्यते
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पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
परमात्मा जिसे हम खोजते हैं, वह सदा से मौजूद है। वह हमारी खोज के बाद में प्रगट नहीं होता, हमारे खोज के पहले भी मौजूद है। जिस सत्य का उदघाटन होगा वह सत्य, हम नहीं थे, तब भी था। हमने जब नहीं खोजा था, तब भी था। हम जब नहीं जानते थे, तब भी उतना ही था, जितना जब हम जान लेंगे, तब होगा। खोज से सत्य सिर्फ हमारे अनुभव में प्रगट होता है, सत्य निर्मित नही होता। वह सत्य ही परमात्मा है। जो हम सब के भीतर है। हम जिसे अनुभूति कहते हैं, प्रज्ञा कहते हैं--कहें पश्चिम में जिसे हम लाजिक कहते हैं और पूरब में जिसे इंट्यूशन कहते हैं--यह प्रज्ञा बिजली की कौंध की तरह सारी चीजों को एक साथ प्रगट कर जाने वाली है। इसलिए सत्य पूरा का पूरा जैसा है वैसा ही प्रतिफलित होता है। इसलिए महावीर ने जो कहा है, उसमें बदलने की कोई जगह नहीं है। कृष्ण ने जो कहा है, उसमें बदलने की कोई जगह नहीं है। बुद्ध ने जो कहा है, उसमें बदलने का कोई उपाय नहीं है। मोहम्मद ने जो कहा है, उसमें बदलने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि उनके सत्य रिविलेशन हैं। दीया लेकर खोजे गए नहीं--निर्विचार की कौंध, निर्विचार की बिजली की चमक में देखे गए और जाने गए, उघाड़े गए सत्य हैं। वह पहले घोषणा कर देते हैं, सत्य क्या है, फिर वह सत्य कैसे जाना जा सकता है, वह सत्य कैसे जाना गया है, वह सत्य कैसे समझाया जा सकता है, उसके विवेचन में पड़ते हैं। यह घोषणा है। जो घोषणा से ही पूरी बात समझ ले, शेष किताब, उपनिषद बेमानी है। लेकिन बहुत-बहुत मार्गों से अलग अलग लोगो के द्वारा इसी बात को पुनः-पुनः कहा जाएगा। जिनके पास बिजली कौंधने का कोई उपाय नहीं है, जो कि जिद पकड़कर बैठे हैं कि दीए से ही सत्य को खोजेंगे,शेष उपनिषद किताब उनके लिए है।
यह सूत्र अनूठा है। सब इसमें पूरा कह दिया गया है। उसे हम समझ लें, क्या कह दिया गया है! कहा है कि पूर्ण से पूर्ण पैदा होता है, फिर भी पीछे सदा पूर्ण शेष रह जाता है। और अंत में, पूर्ण में पूर्ण लीन हो जाता है, फिर भी पूर्ण कुछ ज्यादा नहीं हो जाता है; उतना ही होता है, जितना था।
पी.डी.आस्पेंस्की ने एक किताब लिखी है। किताब का नाम है, टर्शियम आर्गानम। किताब के शुरू में उसने एक छोटा सा वक्तव्य दिया है। पी.डी.आस्पेंस्की रूस का एक बहुत बड़ा गणितज्ञ था। बाद में, पश्चिम के एक बहुत अदभुत फकीर गुरजिएफ के साथ वह एक रहस्यवादी संत हो गया। लेकिन उसकी समझ गणित की है--गहरे गणित की। उसने अपनी इस अदभुत किताब के पहले ही एक वक्तव्य दिया है, जिसमें उसने कहा है कि दुनिया में केवल तीन अदभुत किताबें हैं; एक किताब है अरिस्टोटल की--पश्चिम में जो तर्क-शास्त्र का पिता है, उसकी--उस किताब का नाम है: आर्गानम। आर्गानम का अर्थ होता है, ज्ञान का सिद्धांत। फिर आस्पेंस्की ने कहा है कि दूसरी महत्वपूर्ण किताब है रोजर बैकन की, उस किताब का नाम है: नोवम आर्गानम--ज्ञान का नया सिद्धांत। और तीसरी किताब वह कहता है मेरी है, खुद उसकी, उसका नाम है: टर्शियम आर्गानम--ज्ञान का तीसरा सिद्धांत। और इस वक्तव्य को देने के बाद उसने एक छोटी सी पंक्ति लिखी है जो बहुत हैरानी की है। उसमें उसने लिखा है, बिफोर दि फर्स्ट एक्झिस्टेड, दि थर्ड वाज़। इसके पहले कि पहला सिद्धांत दुनिया में आया, उसके पहले भी तीसरा था।
पहली किताब लिखी है अरस्तू ने दो हजार साल पहले। दूसरी किताब लिखी है तीन सौ साल पहले बैकन ने। और तीसरी किताब अभी लिखी गई है कोई चालीस साल पहले। लेकिन आस्पेंस्की कहता है कि पहली किताब थी दुनिया में उसके पहले तीसरी किताब मौजूद थी। और तीसरी किताब उसने अभी चालीस साल पहले लिखी है! जब भी कोई उससे पूछता कि यह क्या पागलपन की बात है? तो आस्पेंस्की कहता कि यह जो मैंने लिखा है, यह मैंने नहीं लिखा, यह मौजूद था, मैंने सिर्फ उदघाटित किया है।
न्यूटन नहीं था, तब भी जमीन में ग्रेविटेशन था। तब भी जमीन पत्थर को ऐसे ही खींचती थी जैसे न्यूटन के बाद खींचती है। न्यूटन ने ग्रेविटेशन के सिद्धांत को रचा नहीं, उघाड़ा। जो ढंका था, उसे खोला। जो अनजाना था, उसे परिचित बनाया। लेकिन न्यूटन से बहुत पहले ग्रेविटेशन था, नहीं तो न्यूटन भी नहीं हो सकता था। ग्रेविटेशन के बिना तो न्यूटन भी नहीं हो सकता, न्यूटन के बिना ग्रेविटेशन हो सकता है। जमीन की कशिश न्यूटन के बिना हो सकती है, लेकिन न्यूटन जमीन की कशिश के बिना नहीं हो सकता। न्यूटन के पहले भी जमीन की कशिश थी, लेकिन जमीन की कशिश का पता नहीं था। आस्पेंस्की कहता है कि उसका तीसरा सिद्धांत पहले सिद्धांत के भी पहले मौजूद था। पता नहीं था, यह दूसरी बात है। और पता नहीं था, यह कहना भी शायद ठीक नहीं। क्योंकि आस्पेंस्की ने अपनी पूरी किताब में जो कहा है, वह इस छोटे से सूत्र में आ गया है। आस्पेंस्की की टर्शियम आर्गानम जैसी बड़ी कीमती किताब.। मैं भी कहता हूं कि उसका दावा झूठा नहीं है। जब वह कहता है कि दुनिया में तीन महत्वपूर्ण किताबें हैं और तीसरी मेरी है, तो किसी अहंकार के कारण नहीं कहता। यह तथ्य है। उसकी किताब इतनी ही कीमती है। अगर वह न कहता, तो वह झूठी विनम्रता होती। वह सच कह रहा है। विनम्रतापूर्वक कह रहा है। यही बात ठीक है। उसकी किताब इतनी ही महत्वपूर्ण है। लेकिन उसने जो भी कहा है पूरी किताब में, वह इस छोटे से सूत्र में आ गया है। सत्य अपने होने में पूर्ण और निराकार है।
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