आद्रता



मनुष्य का हृदय तो स्वरूपतः आर्द्र है, गीला है। हृदय का अर्थ ही है, गंगोत्री, जहां से प्रेम की गंगा का उदगम होता है। गंगोत्री और सूखी? हृदय कभी सूखा नहीं होता। और मस्तिष्क कभी भीगा नहीं होता। तुम मस्तिष्क को ही हृदय समझ रहे हो। इससे प्रश्न उठ आया है। तुम विचार को भाव समझ रहे हो, इससे भ्रांति हो रही है। अधिक हैं जो इस भ्रांति में पड़े हैं। क्योंकि समाज में इस भ्रांति की प्रतिष्ठा है। समाज तुम्हें सिखाता है हृदय से बचना। समाज तुम्हें इस भ्रांति निर्मित करता है, संस्कारित करता है कि तुम्हारी जीवन-ऊर्जा हृदय को किनारे छोड़ कर सीधी मस्तिष्क में प्रविष्ट हो जाए। यह सबसे बड़ा षड्‌यंत्र है जो मनुष्य के साथ खेला जा रहा है, खेला जाता रहा है, सदियों-सदियों से। इसके पीछे बड़े निहित स्वार्थ हैं। और मनुष्य भी इस षड्‌यंत्र में सम्मिलित हो जाता है; क्योंकि बुद्धि का उपयोग है, हृदय का उपयोग क्या? बाजार में, दुकान में, व्यवसाय में, व्यवहार में विचार की जरूरत पड़ेगी, गणित चाहिए होगा, तर्क चाहिए होगा। प्रेम का तो कोई उपयोग नहीं है। प्रेम तो गुलाब का फूल है। सौंदर्य तो उसमें बहुत है, उपयोगिता कोई भी नहीं। प्रेम तो पूर्णिमा का चांद है, गीत गाओ, नाचो, उत्सव मनाओ, पर बाजार में बेच थोड़े ही सकोगे! तिजोरी थोड़े ही भर सकोगे उससे! समाज का सारा शिक्षण मस्तिष्क का है। और मस्तिष्क हृदय से ठीक उलटा छोर है। और जो लोग मस्तिष्क में ही अटके रह जाते हैं, उनके जीवन में निश्चय ही उस परम प्यारे की कोई झलक नहीं आती। उनके जीवन में परमात्मा की कोई छाया भी नहीं पड़ती। वे पड़ने ही नहीं दे सकते छाया। परमात्मा का होना ही उनके लिए अप्रामाणिक होगा। परमात्मा बुद्धि के लिए है ही नहीं। लाख प्रमाण जुटाओ, बुद्धि सब प्रमाणों का खंडन कर सकेगी। परमात्मा का कोई प्रमाण नहीं है, अनुभव है। जिनको अनुभव है, वे प्रमाण नहीं देंगे। राह सुझाएंगे, हाथ हाथ में ले लेंगे, कहेंगे--चल पड़ो हमारे साथ। लेकिन बुद्धि कहती है: पहले रुको! पहले प्रमाणित हो बात, पहले मुझे भरोसा आ जाए, तब मैं कदम बढ़ाऊं। ऐसी नासमझ नहीं हूं। मुझे पागल न समझो। अंधी नहीं हूं। नगद मेरे हाथ में रखो तो मैं आगे बढूं। 

लेकिन परमात्मा कोई वस्तु तो नहीं है कि हाथ में रख दी जाए। और न ही परमात्मा कोई सिद्धांत है कि जिसे प्रमाणों से सिद्ध किया जाए। यह तो ऐसा ही है जैसे आंख कहे कि संगीत सुनने तो मैं तभी चलूंगी जब मुझे प्रमाण पहले मिल जाए कि संगीत होता है। आंख को कैसे प्रमाण दो कि संगीत होता है? ज्यादा से ज्यादा आंख को तुम वीणा दिखा सकते हो। मगर वीणा थोड़े ही संगीत है! आंख पूछेगी: संगीत कहां है? कान को तुम प्रकाश नहीं दिखा सकते। इंद्रधनुष आकाश में छाया हो, कान को तुम उसकी प्रतीति नहीं करा सकते। कमल के फूल खिले हों, उनकी सुवास उड़ती हो, कान से तुम उस सुवास का संबंध नहीं जुड़वा सकते। और कान अगर जिद्द करके बैठ जाए कि जब तक मेरे पास प्रमाण न हो तब तक मैं कैसे मानूं कि सुगंध होती है, कि रंग होता है, कि गंध होती है, कि प्रकाश होता है? तो मुश्किल हो जाएगी।
ऐसी ही मुश्किल हुई है। हृदय अनुभव करता है, बुद्धि प्रमाण मांगती है। हृदय के पास कोई प्रमाण नहीं है, बुद्धि के पास कोई अनुभव नहीं है। इन दो में से तुम किसे चुनोगे?
उपयोगी तो बुद्धि को चुनना है। अगर तिजोरी में धन इकट्ठा करना हो, तो प्रेम से धन पैदा नहीं होता। प्रेम कोई धन को पैदा करने की टकसाल नहीं है। सच तो यह है कि पास हो तो शायद वह भी चला जाए। क्योंकि प्रेम में बांटने की क्षमता है। प्रेम में देने का मजा है। प्रेम लुटाना जानता है। प्रेम इतना दीवाना है कि लुटा सकता है और आनंदित हो सकता है। बुद्धि पकड़ती है, छोड़ती नहीं; झपटती है, छीनती है, आक्रामक है, सब तरह की चालबाजियां करती है। येन-केन-प्रकारेण बुद्धि धन इकट्ठा करेगी, पद लाएगी, प्रतिष्ठा लाएगी, महत्वाकांक्षाएं पूरी करेगी। इस जिंदगी में जिन चीजों को लोग सफलताएं कहते हैं, वे सब बुद्धि से मिलेंगी। इसलिए जो महत्वाकांक्षी है, वह प्रार्थना से रिक्त रह जाता है। जो सफलता, इस संसार की सफलता के पीछे दौड़ा हुआ है, उसका परमात्मा से कोई नाता नहीं जुड़ पाता। उसकी भांवर उस परम प्यारे से नहीं पड़ती। लेकिन तुमने मस्तिष्क को ही हृदय समझ लिया है। लोग तो प्रेम भी करते हैं तो वे कहते हैं कि मैं विचार करता हूं कि मुझे प्रेम हो गया है। मेरे पास लोग आकर कहते हैं कि मुझे विचार उठ रहा है कि मुझे प्रेम हो गया है।

विचार और प्रेम! लोग तो अब विचार से भी प्रेम कर रहे हैं। विचार से कोई रास्ता ही प्रेम की तरफ नहीं जाता। विचार का अतिक्रमण करना होता है। विचार के कूड़े-करकट को एक तरफ सरका कर रख देना होता है। इसीलिए तो विचार प्रेम को अंधा कहता है, प्रेम को पागल कहता है। अगर विचार की सुनोगे, होशियार रहोगे, तो जरूर उस परम प्यारे से चूक जाओगे। 

यह बात बड़ी विडंबना की है कि इस जगत में बुद्धि सफल होती है, प्रेम हारता है। उस जगत में प्रेम सफल होता है, बुद्धि हारती है। जीसस का प्रसिद्ध वचन है, खूब सम्हाल कर जितने गहरे ले जा सको अपने भीतर ले जाना। जीसस ने कहा है: जो इस जगत में प्रथम हैं, मेरे परमात्मा के राज्य में अंतिम होंगे; और जो यहां अंतिम हैं, वे मेरे प्रभु के राज्य में प्रथम होंगे। अर्थ समझे? जो यहां सफल हैं, वहां असफल हैं। जो यहां असफल हैं, वहां सफल हैं। यह बिलकुल अलग ही गणित है। ये दो अलग दुनियाएं हैं, ये अलग आयाम हैं।मस्तिष्क से थोड़े नीचे उतरो। अगर तुम मंदिर-मस्जिद के परमात्मा की बात कर रहे हो, तो तुम गलत आदमी के पास आ गए! मैं तुम्हें मंदिर-मस्जिद का परमात्मा नहीं दे सकता। वह तो है ही मस्तिष्क का जाल। वह तो बुद्धि का ही खेल है। वह जो मंदिर-मंदिर में विराजमान है, वह तो बुद्धि का ही निर्माण है। और बुद्धि परमात्मा का निर्माण करे, तो परमात्मा झूठा होगा। परमात्मा तो वह है जिसने हमारा निर्माण किया है। और मजा देखते हो, हम उसका निर्माण कर रहे हैं!  मंदिर-मस्जिद में मत जाना उसे खोजने! हां, तुम्हें वह परमात्मा और सब जगह दिखाई पड़ने लगे, तो मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं कि मंदिर-मस्जिद में दिखाई नहीं पड़ेगा। और सब जगह दिखाई पड़ने लगे, तो मंदिर-मस्जिद में भी दिखाई पड़ेगा। लेकिन इससे उलटा नहीं होगा कि मंदिर-मस्जिद में पहले दिखाई पड़े और फिर सब जगह दिखाई पड़े। वृक्ष में जिंदा है! मंदिर की मूर्ति तुम्हारा ही गढ़ा हुआ पत्थर है। वृक्ष में हरा है, अभी खिल रहा है, फूल बन रहा है। जीवंत से संपर्क जोड़ो, परमात्मा के सिद्धांत छोड़ो। न गीता में टटोलो, न कुरान में, न बाइबिल में। और मैं तुमसे यह नहीं कहता कि गीता, कुरान और बाइबिल में कुछ भी नहीं है। बहुत कुछ है! लेकिन पहले जिंदा परमात्मा से संबंधित हो जाओ तो गीता भी जिंदा हो जाएगी। और तब कुरान भी सिर्फ किताब न रह जाएगी, तुम्हारा अनुभव कुरान को भी जीवंत कर देगा। मगर तुम्हारा अनुभव प्राथमिक है। और परमात्मा पर शर्तें मत लगाओ! ऐसा मत कहना कि तू पहले मुझे मिले, तब मैं तुझे अनुभव करूं; तू पहले सामने आए, तो मैं तुझे देखूं। परमात्मा पर शर्तें मत लगाना! परमात्मा की तरफ केवल वे ही लोग चल सकते हैं जो बेशर्त चल सकते हैं। परमात्मा तो है ही, मौजूद ही है। गैर-मौजूद कब था? गैर-मौजूद हो कैसे सकता है? जो गैर-मौजूद नहीं हो सकता, उसी का नाम परमात्मा है। उस पर शर्तें मत बांधो! अपने हृदय को खोलो, बेशर्त खोलो! उघाड़ो अपने को। यही ह्रदय की पूर्ण आद्रता है।

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