सात्विकता

एक बहुत बड़ी महानगरी में एक नया मंदिर निर्मित हो रहा था। सैकड़ों कारीगर वहां पत्थर खोदने, मूर्तियां बनाने, दीवालें उठाने में लगे हुए थे। एक अजनबी यात्री उस मंदिर के करीब से गुजरा। उस यात्री ने एक पत्थर तोड़ते हुए कारीगर मजदूर से पूछा: मेरे मित्र क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने क्रोध से भरी हुई आंखें ऊपर उठाईं, जैसे उसकी आंखों से आग की चिनगारियां निकलती हों, ऐसे अत्यंत रोष से उसने कहा कि क्या अंधे हो, आंखें नहीं हैं, दिखाई नहीं पड़ता है कि मैं क्या कर रहा हूं? मैं पत्थर तोड़ रहा हूं। और वह वापस अपने पत्थर तोड़ने में लग गया। जैसे वह पत्थर कम तोड़ रहा हो और क्रोध ही ज्यादा निकाल रहा हो।

वह यात्री आगे बढ़ गया। उसने दूसरे एक पत्थर तोड़ते हुए कारीगर से पूछा: मेरे मित्र, क्या कर रहे हो? उसने अत्यंत उदास आंखों से उस यात्री की तरफ देखा, जैसे उन आंखों में कोई भाव ही न हो, वे आंखें ऐसी निस्तेज, ऐसी उदास, ऐसी उदासीन कि जैसे वे आंखें किसी जीवित व्यक्ति की आंखें न होकर किसी मृत व्यक्ति की आंखें हों। और उस आदमी ने अत्यंत धीमे और रोते से स्वर में कहा: अपने बच्चों के लिए रोटी-रोजी कमा रहा हूं। और वापस उतनी ही सुस्ती से वह पत्थर तोड़ने में लग गया। वह यात्री आगे बढ़ा और उसने मंदिर की सीढ़ियों पर पत्थर तोड़ते एक तीसरे कारीगर से पूछा कि मेरे मित्र, क्या कर रहे हो? वह कारीगर पत्थर भी तोड़ रहा था और गीत भी गुनगुना रहा था। और उसकी आंखों में किसी खुशी की चमक थी और उसके प्राणों में किसी आनंद का भाव था। उसने आंखें ऊपर उठाईं और उस आदमी को ऐसे देखा जैसे कोई अपने प्रेमी को देखता है, और फिर उसने कहा कि मेरे मित्र, मैं भगवान का मंदिर बना रहा हूं। और वह वापस गीत गाने लगा और पत्थर तोड़ने लगा। वह यात्री तो चकित रह गया! वे तीनों लोग ही पत्थर तोड़ रहे थे। वे तीनों एक ही काम कर रहे थे। लेकिन एक क्रोध से भरा था, और उसे वह काम सिर्फ पत्थर तोड़ना दिखाई पड़ रहा था। दूसरा आदमी उदास था, उसके पास कोई जीवंत भाव न था--न क्रोध का, न दुख का, न आनंद का; वह जैसे राह के किनारे चुपचाप पड़ा रह गया था, जैसे उसने जीवन की सारी आशा छोड़ दी हो, उसने धीरे से रोते हुए कहा था: बच्चों के लिए रोटी-रोजी कमा रहा हूं। वह भी पत्थर तोड़ रहा था। और तीसरे आदमी ने तो ऐसे कहा जैसे वह कोई अपने प्रियतम की प्रतिमा बना रहा हो। उसने कहा: मैं भगवान का मंदिर बना रहा हूं। उसकी आंखों में खुशी थी, उसके प्राणों में गीत था, उसके आस-पास की हवा में कुछ और ही झलक थी, कोई और ही नृत्य था, कोई और ही ध्वनि थी, कोई और ही प्रार्थना थी। उसके आस-पास जैसे पूजा की धूप, सुगंध फैल रही हो, वैसी दशा थी। और वे तीनों लोग पत्थर ही तोड़ रहे थे। लेकिन उन तीनों के जीवन को देखने की दृष्टि भिन्न थी। जीवन वैसा ही हो जाता है जैसी उसे देखने की हमारे पास दृष्टि होती है। जो लोग सत्य के मंदिर में प्रवेश करना चाहते हैं, उनके पास सात्विक दृष्टि चाहिए।

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