होश



घड़ी पलक में बिनसिए, ज्यूं मछली बिन नीर।

जैसे मछली मर जाती है बिना नीर के, पानी से मछली को खींच कर कोई डाल दे तट पर तो मरने लगी--ऐसे ही तुमने खुद ही अपने को खींच लिया है परमात्मा से, स्वभाव से, धर्म से। अब तुम तड़फ रहे हो, तड़फे जा रहे हो और तड़फने के लिए न मालूम क्या-क्या तुम बहाने खोज रहे हो, तर्क खोज रहे हो! मगर सीधी सी बात नहीं देखते कि नदी के बाहर पड़ गए हो! खुद ही मछली उछल कर बाहर आ गई है, कोई मछुए ने भी नहीं खींचा है तुम्हें। यह तुम्हारी ही करतूत है कि तुम्हीं उछल कर तट की रेत पर पड़ गए हो हु। अब जल-भुन रहे हो। धूप घनी होती जा रही है, तेज होती जा रही है, आग बरस रही है। और तुम तड़फे जा रहे हो, भुने जा रहे हो। मगर तुम बहाने खोज रहे हो, मूल कारण नहीं देखते कि वापस कूद जाओ नदी में, फिर से कूद जाओ नदी में। जब नदी से कूद कर तट पर आ गए तो तट से कूद कर नदी में भी जा सकते हो। जब निर-अहंकार से अहंकार में आ गए तो अहंकार से फिर निर-अहंकार में जा सकते हो। सिर्फ समझ चाहिए, प्रज्ञा चाहिए, बोध चाहिए, जागृति चाहिए, होश चाहिए। उस होश की प्रक्रिया को ही मैं ध्यान कहता हूं। ध्यान तुम्हारे अहंकार को गला देता है; बता देता है कि झूठ है अहंकार। और जिस दिन तुमने जाना कि अहंकार झूठ है, जिस दिन तुमने जाना मैं नहीं हूं--उसी दिन परमात्मा है और उसी दिन आनंद के द्वार खुल जाते हैं। अनंत द्वार! वर्षा हो जाती है फूलों की--अमृत के फूलों की! नहा जाते हो तुम--एक नई रोशनी में। उस जीवन का नाम स्वर्ग है।

‘मैं’ के आस-पास जो अंधेरा घेर लेता है, वह नरक। ‘मैं नहीं हूं’ इसके आस-पास जो आभा उभर आती है, वही स्वर्ग।

बुद्ध से हम बहुत नाराज हुए। आज तक हम बुद्ध को क्षमा नहीं कर पाए। कसूर क्या था इस आदमी का? इस आदमी का कसूर था कि इसने तुम्हारे अहंकार पर जितनी चोट की, दुनिया में किसी आदमी ने कभी नहीं की थी। बुद्ध ने कहा: ‘अनत्ता, अनात्मा।’ बुद्ध ने कहा: कोई आत्मा नहीं तुम्हारे भीतर। क्योंकि आत्मा शब्द के पीछे मैं बच जाता है। आत्मा यानी मैं। आत्मा सुंदर कवच बन जाती है मैं को बचाने की। बुद्ध ने कहा: कोई आत्मा नहीं है, एक ही है परम आत्मा जो सबके भीतर है, वही धर्म और धार्मिकता है। ताकि मैं की बिलकुल ही संभावना न रह जाए। क्योंकि बुद्ध जानते हैं कि जो है वह तो है। आत्मा शब्द के कारण अहंकार बच जाएगा, इसकी आड़ में अहंकार बच जाएगा। और जब हम किन्हीं गलत शब्दों को धार्मिक रंग दे देते हैं तो फिर बचने की बहुत सुविधा हो जाती है। और हम हर चीज को धार्मिक रंग देने में कुशल हो गए हैं। महात्माओं ने शास्त्र लिखे तो अपने अहंकार की व्यवस्था कर ली उन्होंने कि महात्माओं की सेवा करो, इसमें पुण्य है। महात्माओं के पैर दबाओ, इसमें पुण्य है। इससे स्वर्ग मिलेगा। बुद्ध ने इस सबकी जड़ काट दी। कहा: ब्राह्मण होता है कोई ब्रह्म को जानने से। और ब्रह्म है तुम्हारा स्वभाव। मैं-भाव नहीं--स्वभाव। और स्वभाव का पता तब चलता है जब मैं बिलकुल मिट जाता है। आत्मा को भी मत अपने पकड़ कर रखना, नहीं तो उतने में भी अहंकार बच रहेगा। बुद्ध को हम क्षमा नहीं कर पाए, क्योंकि बुद्ध ने बाहर के ईश्वर को भी इनकार कर दिया और भीतर की आत्मा को भी इनकार कर दिया। अहंकार को कहीं भी बचने की कोई जगह न दी, कोई शरण न दी। अहंकार को जिस तरह से बुद्ध ने काटा, पृथ्वी पर किसी व्यक्ति ने कभी नहीं काटा था। इसलिए बुद्ध की जो अनुकंपा है वह बेजोड़ है, उसका कोई जवाब नहीं। बुद्ध बस अपने उदाहरण स्वयं हैं। लेकिन हमने उखाड़ फेंका बुद्ध को इस देश से। यह धार्मिक देश है! धार्मिक नहीं है, अहंकारी है। इसलिए उखाड़ फेंका बुद्ध को, क्योंकि बुद्ध ने हमारे अहंकार पर ऐसी चोटें कीं कि हम कैसे बर्दाश्त करते। हमने बदला लिया। अहंकार का अर्थ है: मैं अलग हूं अस्तित्व से। अस्तित्व तो माया है, मैं सत्य हूं! ये वृक्ष, ये पशु-पक्षी, ये आकाश, ये चांद-तारे--ये सब माया हैं, मैं सत्य हूं। और मजा यह है कि ये सब सत्य हैं और यह मैं माया है। लेकिन मैं को माया कहने में हमारे प्राण छटपटाते हैं।

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