परिवर्तन अतीत

प्रक्रियाएं पैदा होती हैं और खो जाती हैं। खो जाती हैं इसीलिए कि सब प्रक्रियाएं अनिवार्यरूपेण, मनुष्य का जैसा स्वभाव है, वह उसमें जो सार्थक है भूल जाता है और जो निरर्थक है उसको पकड़ लेता है। क्योंकि जो सार्थक है वह गहरे में होता है, जो निरर्थक है वह ऊपर होता है। जो निरर्थक है वह वस्त्र की तरह ऊपर होता है, जो सार्थक है वह आत्मा की तरह भीतर होता है। जो भीतर है वह दिखाई नहीं पड़ता, धीरे-धीरे ऊपर का ही रह जाता है, भीतर का भूल जाता है। और इसलिए ऐसे वक्त आ जाते हैं, जैसे मैं ही हूं, शरीर ही है आत्मा नहीं, अब वह चाक ही है, कील का पता लगाना बहुत मुश्किल है उसमें। किसी गतिमान चाक और स्थिर कील में कील को पकड़ने के दो रास्ते हो सकते हैं। एक रास्ता तो यह हो सकता है कि आप इतने खड़े हो जाएं कि आपमें कोई कंपन ही न रह जाए। कंपन ही न रह जाए कोई, इतने ठहरे हो जाएं, इतने थिर हो जाएं, जस्ट स्टैंडिंग की हालत रह जाए तो उस हालत में आप कील पर पहुंच जाएंगे। या दूसरा रास्ता यह है कि आप इतने मूवमेंट में हो जाएं, इतनी गति में हो जाएं कि चाक पूरा चल पड़े और कील पहचान में आ जाए। आसान दूसरा ही होगा। चाक जोर से चले तो कील को पहचानना आसान होगा। बहुत कम लोग हैं जो खड़े हुए चाक में और कील को पहचान पाएं। बुद्ध, मोहम्मद, महावीर खड़े होकर पहचानते हैं, कृष्ण, मीरा, गतिमान हो कर। पर ध्यान में लेने की बात इतनी ही है कि हमारे भीतर दो...हमारी परिधि जो है, गतिमान है, परिवर्तन है वहां; वह चाक है, और हमारी जो गहरी आत्मा है वहां शाश्र्वतता है, इटरनिटी है, वहां कोई परिवर्तन नहीं, वहां सब चुप और शांत और सदा खड़ा रहा है, वह कील की भांति है, वह थिर है। उस थिर को, उस परिवर्तन-अतीत को किस भांति पहचान लें। और इसे वे लोग ही पहचान सकते है, जो अपने अचेतन चित्त को जानने में समर्थ हो गए हैं। वह उसकी पात्रता का नियम है। जब तक अचेतन चित्त पर हमारी अपनी सामर्थ्य नहीं है, तब तक कलेक्टिवली हम हिप्नोटाइज्ड हो सकते हैं। लेकिन जिस दिन मेरे अपने अचेतन चित्त का मुझे पता हो गया, उस दिन मुझे हिप्नोटाइज्ड नहीं किया जा सकता। उस दिन कोई उपाय नहीं है, क्योंकि मेरे भीतर वह कोई हिस्सा नहीं रहा जहां सुझाव डाल कर और मेरे सामने कोई प्रोजेक्शन करवाया जा सके। इसीलिए कृष्ण कहते है। नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः 


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