धार्मिक संघर्ष



एक दिशा है जिसे हम बाहर की दिशा कहें: वहां विज्ञान ने पदार्थ को खोजा, उसके रहस्य को खोजा। एक और दिशा है जिसे हम भीतर की दिशा कहें: वहां धर्म ने कुछ सत्य खोजे हैं। लेकिन विज्ञान के सत्य ज्यादा प्रभावी हो सके, क्योंकि विज्ञान एक सार्वजनिक सत्य है। और धर्म के सत्य इतने प्रभावी नहीं हो सके, क्योंकि धर्म से अर्थ हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन और बौद्धों से है। धर्म आज भी आपस में टूटा हुआ, आपस में विरोध में, आपस में टुकड़ों-टुकड़ों में, विरोधी टुकड़ों में बंटा है। इसलिए धर्म की वह प्रभावना नहीं हो सकी जो विज्ञान की हो सकी। विज्ञान एक अखंड सत्य की तरह खड़ा हुआ है। पूरब और पश्चिम के फासले गिर गए। संप्रदायों के फासले गिर गए। छोटे-छोटे प्रादेशिक घेरे गिर गए। एक-एक कबीले की अपनी मान्यताएं गिर गईं। और सारी मनुष्यता का विज्ञान खड़ा हो सका। अभी सारी मनुष्यता का धर्म खड़ा नहीं हो सका है। इसलिए धर्म तो हार रहा है रोज, इसलिए नहीं कि धर्म कम ताकत की चीज है। बल्कि इसलिए कि धर्म का खेमा आपस में बंटा हुआ है और आपस में लड़ रहा है। और यह हिंदू और मुसलमान और ईसाई और जैन और बौद्ध जब आपस में लड़ते हैं, तो स्वभावतः इनकी शक्ति तो आपस में लड़ने में समाप्त हो जाती है। और अधर्म की शक्तियां अपने आप बड़ी हो उठती हैं। विज्ञान के ऊपर कसूर नहीं है, कसूर है तो धार्मिक लोगों के ऊपर ही है। इस समय जिसका चित्त भी थोड़ा धार्मिक है, उसके सामने पहली जो बात उठेगी वह यह कि अगर वह ठीक-ठीक अर्थों में रिलीजस है, धार्मिक है, तो वह हिंदू और मुसलमान होने से मुक्त हो जाए। क्योंकि दुनिया में इन नामों के कारण ही धर्म का जन्म नहीं हो पाता है। कोई तीन सौ फेथ, कोई तीन सौ समुदाय हैं सारी जमीन पर, और ये सब एक-दूसरे के विरोधी हैं। दो सौ निन्यानबे में प्रत्येक एक के विरोध में खड़े हैं। उनकी सारी ताकत आपस में लड़ती है और समाप्त हो जाती है। धर्म भी वैसे ही एक शक्ति है, जैसे विज्ञान। और धर्म के सत्य भी वैसे ही युनिवर्सल हैं, वैसे ही सार्वलौकिक जैसे विज्ञान के। लेकिन हम चूंकि अभी धर्म के जगत में बहुत पक्षपातपूर्ण हैं। और हमारी धर्म के संबंध में चिंतना भी कोई तीन-चार हजार वर्ष पुरानी है। इसलिए, इसलिए वह चिंतना विज्ञान के समक्ष एक बल की भांति खड़ी नहीं हो पाती, और निरंतर पराजित हो जाती है। बात तो यह कि मनुष्य चाहे बाहर कुछ भी खोजे, आज नहीं कल उसे भीतर की कमी और अभाव अखरना शुरू होता है। क्योंकि मैं चाहे कुछ भी पा लूं, और कितने ही बड़े भवन और कितने ही बड़े उपकरण और कितने ही बड़े साधन जुटा लूं, लेकिन अगर मेरे भीतर मैं एक आनंदपूर्ण आत्मा की थिरक को अनुभव न कर पाऊं, तो मैंने जो भी पाया है, वह मेरे ही द्वारा पाया हुआ मेरे लिए बंधन हो जाएगा। और मैंने जो पाया है वह भी मुझे दुख देने लगेगा। क्योंकि सुख पाने की क्षमता एक दृष्टि, एक एप्रोच, एक कोण से व्यक्तित्व को खड़े होकर देखने की है। जब हम एक खास जगह से भीतर जीवन की चीजों को देखते हैं तब वे आनंददायी हो जाती हैं। और अगर भीतर से हमारा कोई आनंद के बिंदु पर खड़े होकर देखने की क्षमता और पात्रता न हो तो जीवन दुखदायी हो जाता है।

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