शास्त्रार्थ



कुछ मिटे-से नक्से-पा भी हैं जुनूं की राह में
हमसे पहले कोई गुजरा है यहां होते हुए।

शास्त्र का सम्यक उपयोग भी है, असम्यक उपयोग भी। शास्त्र को जो अंधे की तरह स्वीकार कर ले, शास्त्र उसके लिए बोझ हो जाता है। शास्त्र को जो समझे, शास्त्र को जो निष्पक्ष होकर विचार करे, शास्त्र को जो जागरूक होकर ध्यान करे, तो शास्त्र से बड़ी सुगंध उठती है, बड़ी मुक्तिदायी सुगंध उठती है। शास्त्र को पकड़ना मत--सोचना। शास्त्र को अंधे की तरह स्वीकार मत करना। अंधे की तरह स्वीकार करने में शास्त्र का अपमान है। आंख खोलकर, शास्त्र में उतरना, शास्त्र को स्वयं में उतरने देना--तो शास्त्र का सम्मान है। कोई भी शास्त्र तुम्हें अंधा नहीं बनाना चाहता है। क्योंकि वस्तुतः तो, तुम्हारी आंख में ही तुम्हारा शास्त्रार्थ छिपा है। सभी तुम्हारी आंख खोलना चाहते हैं। उतनी ही देर तुम्हारे साथ होना चाहते हैं कि तुम्हारी आंख खुल जाये, कि तुम्हें अपने भीतर का गुरु मिल जाये। महावीर के ये वचन जैन पढ़ते हैं, अंधे की तरह। और अ-जैन तो पढ़ेंगे क्यों! गीता हिंदू पढ़ते हैं, अंधे की तरह। गैर-हिंदू तो फिक्र क्यों करेंगे! कुरान मुसलमान पढ़ते हैं, दोहराते हैं तोते की तरह। गैर-मुसलमान तो फिक्र ही क्यों करेगा, बाइबल क्राइस्ट पंथी पढ़ते है अंधे की तरह तो गैर फिक्र क्यों करेगा! मेरे जाने, तुम शास्त्र को तभी समझ सकोगे जब तुम न हिंदू हो, न मुसलमान हो, न जैन हो, न कोई और पंथ के। क्योंकि अगर पक्षपात पहले से ही तय है, अगर तुमने जन्म से ही तय कर रखा है कि क्या ठीक है, तो अब ठीक की खोज कैसे करोगे? मान ही लिया हो कि सत्य कहां है, तो आविष्कार का उपाय कहां रहा? तुमने जल्दी स्वीकार कर लिया, खोजे बिना स्वीकार कर लिया, तो तुम खोज से वंचित रह जाओगे। ये महापुरुषों के चरण-चिह्न तुम्हें बांध लेने को नहीं हैं, तुम्हें मुक्त करने को हैं। और ये चरण-चिह्न बड़े मिटे-मिटे से हैं। काफी समय बीत गया, इन राहों पर और लोग भी गुजर चुके हैं। इन चरण-चिह्नों को अंधे की तरह मत मानकर चलना, अन्यथा भटकोगे। जागना, खोजना। इन चरण-चिह्नों में अपने चरणों की गति को खोजना है, अपनी चरणों की शक्ति को खोजना है। और सौभाग्यशाली हैं हम कि हमसे पहले लोग यहां गुजरे हैं। वे जो कह गये हैं, उनके जीवन का अनुभव जो बिखेर गये हैं, उससे तुम बहुत कुछ पा सकते हो। लेकिन पाने के लिए बड़ी समझदारी चाहिए। समझो जीवन से बहुत कुछ पाया जा सकता है। लेकिन तुम तो जीवन से भी नहीं पाते हो। शास्त्र तो जीवन की छाया मात्र हैं, प्रतिफलन हैं। शास्त्र जीवन से निकलते हैं, जीवन शास्त्र से नहीं निकलता। तुम्हें जीवन मिला है, उससे तुम कुछ नहीं पाते, तो बहुत कठिन है कि तुम शास्त्र से कुछ पा सकोगे। क्योंकि मूल से नहीं मिलता कुछ, छाया से क्या मिलेगा? जो जानते हैं, जो जागकर जीते हैं, जो हिम्मत और साहस से जीते हैं, जिनके जीवन का आधार सुरक्षा, सुविधा नहीं है, साहस है--वे जीवन से भी निचोड़ लेते हैं सत्य को। वे शास्त्र से भी निचोड़ लेते हैं सत्य को। जो जागकर जीते हैं वे तो छाया से भी मूल को खेाज लेते हैं क्योंकि छाया में भी--‘कुछ मिटे-से नक्से-पा’ कुछ धुंधले हो गये पैरों के चिह्न हैं। अभागे हैं वे, जो जीवन से भी वंचित रह जाते हैं। सौभाग्यशाली हैं वे, जो कि शास्त्रों से भी खोज लेते हैं।


Comments

Popular Posts