अनाशक्त वितरागता



मैंने ऐसी दुनिया जानी।
इस जगती के रंगमंच पर
आऊं मैं कैसे क्या बन कर
जाऊं मैं कैसे क्या बन कर
सोचा, यत्न किया जी भरकर
किंतु कराती नियति-नटी है
मुझसे बस मनमानी।
मैंने ऐसी दुनिया जानी।
आज मिले दो, यही प्रणय है
दो देहों में यही हृदय है
एक प्राण है एक श्वास है
भूल गया मैं यह अभिनय है
सबसे बढ़ कर मेरे जीवन
की थी यह नादानी।
मैंने ऐसी दुनिया जानी।
देखा बुरा, भूल गये कि नाटक है। देखा भला, भूल गये कि नाटक है। बुरे में जो भटक गया, हो गया रावण। भले में जो भटक गया, हो गया राम। जिसने बुरे को ओढ़ लिया, हो गया पापी। जिसने भले को ओढ़ लिया, हो गया पुण्यात्मा। जिसने बुरे में जड़ें जमा लीं, हो गया हीनात्मा। और जिसने भले में जड़ें जमा लीं, हो गया महात्मा। लेकिन जिसने दोनों में जाना और जिसने देखा कि सब नाटक है बुरा भी, भला भी; रावण भी रामलीला के पात्र, राम भी! जिसने जीवन को अभिनय जाना; जो साक्षी हो कर पार खड़ा हो गया; जिसने कहा, न मैं रावण हूं न मैं राम हूं वह पार हो गया! निर्द्वंद हो गया।

हातुमिच्छति संसारं रागी दुःखजिहासया।

पहले तो रागी व्यक्ति दुख से बचने के लिए संसार को पकड़ता है; धन को पकड़ता है ताकि दुख से बच जाये; मित्र को पकड़ता है, दुख से बच जाये; परिवार को पकड़ता है, दुख से बच जाये। पहले तो कोशिश करता है संसार की चीजों को पकड़ कर दुख से बचने की; फिर पाता है कि यह पकड़ से तो दुख ही पैदा हो रहा है, दुख से बचना नहीं हो रहा--तो फिर संसार की चीजों को त्यागने लगता है, लेकिन कामना पुरानी अब भी वही है कि दुख से बच जाऊं। पहले पकड़ता था, अब त्यागता है; लेकिन दुख से बचने की वासना वही की वही है। ‘रागवान पुरुष दुख से बचने के लिए संसार को त्यागना चाहता है, लेकिन वीतराग पुरुष दुख-मुक्त हो कर संसार के बीच में भी रहे तो भी खेद को उपलब्ध नहीं होता।’
रागी दुख से ही भागता रहता है संसार में भागे तो, मंदिर जाये तो, दुकान जाये तो, मस्जिद जाये तो--दुख से ही भागता रहता है। वीतरागी जाग कर सुख दुख से मुक्त हो जाता है; साक्षी बन कर सुख दुख से मुक्त हो जाता है। सुख दुख से भागता नहीं; सुख दुख को देख लेता है भर आंख और सुख दुख दोनो ही खो जाते है।

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